समाजमीडिया वॉच भारतीय मीडिया हाउस में नारीवादी नज़रिया होना ‘क्यों’ आवश्यक है?

भारतीय मीडिया हाउस में नारीवादी नज़रिया होना ‘क्यों’ आवश्यक है?

जब हम नारीवादी दृष्टिकोण से चीज़ों को लिखते, देखते और समझते हैं तो हम महिलाओं से जुड़े मुद्दे, अल्पसंख्यक लैंगिक पहचान वालों समुदाय के लोगों की बात को बहुत प्रमुखता से रख पाते हैं।

पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। पत्रकारिता के क्षेत्र में विविधता होना इसका सबसे महत्वपूर्ण मूल्य है। लेकिन मीडिया के अलग-अलग माध्यमों में यह आयाम गायब नज़र आता है। मीडिया में महिला और पुरुषों के प्रतिनिधित्व की ही बात करें तो तमाम आंकड़ें यह अंतर साफ दिखाते हैं। पुरुषों से अलग महिलाओं और अन्य लैंगिक पहचान वाले लोगों का प्रतिनिधित्व सूचनाओं को देने में भी नज़र नहीं आता है। मेनस्ट्रीम मीडिया की जेंडर को लेकर अंसवेदनशीलता को खत्म करने के लिए नारीवादी नज़रियां बहुत ज़रूरी है क्योंकि यह दृष्टिकोण पीछे छुटे जा रहे हर मुद्दें और व्यक्ति को केंद्र में रखते हुए सूचना के क्षेत्र में समावेशी माहौल की वकालत करता है। 

हाल ही में बिहार से जुड़ी एक ख़बर सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रही है। इस खबर में एक पुरुष पत्रकार एक महिला से उसके निजी संबंधों को लेकर कुछ इस तरह से सवाल पूछता नज़र आता है जो संवैधानिक मूल्यों के रूप में भी एक नागरिक की निजता का उल्लंघन है। अक्सर हम देखते है कि मीडिया और पत्रकार अपने काम के ज़रिये पितृसत्ता की जड़ को और मजबूत करने का काम करते हैं। ख़ास तौर पर महिलाओं और हाशिये के समुदाय से जुड़ी रिपोर्टिंग के दौरान उन्हें किस तरह से पेश आना चाहिए और कितना संवेदनशील होकर काम करना चाहिए इन्हें बातों को भूल जाते हैं।

शेड्स ऑफ रूरल इंडिया की संस्थापक और पत्रकार नीतू सिंह हमसे बात करते हुए कहती हैं, “अगर नारीवादी नज़रिया नहीं रहेगा तो हम संवेदनशील होकर उस मुद्दे को नहीं रख पायेंगे। जब हम जेंडर या यौन हिंसा जैसे मुद्दों पर काम करते हैं तो ऐसे में नारीवादी नज़रिया का होना बहुत महत्वपूर्ण हैं।”

ऐसे में भारतीय मीडिया सस्थानों में नारीवाद नज़रिया का होना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। यहां जब हम नारीवाद की बात करते हैं तो केवल महिलाओं की बात नहीं करते हैं। इसमें समाज के शोषित, अल्पसंख्यक वर्ग की आवाज़ की बाते करते हैं। इसमें ट्रांसजेंडर समुदाय और अलग-अलग पहचान, क्षेत्र के लोगों के साथ हाशिये पर रहने वाले समुदाय भी आते हैं। इस तरह से पत्रकारिता में नारीवाद नज़रिया का होना उतना ही ज़रूरी है जितना सामाजिक न्याय को लेकर जागरूक होना है क्योंकि जब भी सामाजिक न्याय की बात आयेगी तब उसके अंदर नारीवादी नज़रिया होगा ही। 

“पितृसत्ता का कोई जेंडर नहीं होता है”

पत्रकारिता में नारीवादी दृष्टिकोण को लेकर पत्रकार और लेखिका प्रियंका दुबे कहती हैं, “मीडिया में नारीवादी दृष्टि का होना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि अभी जो मेनस्ट्रीम मीडिया है वो जेंडर से जुड़ी ख़बर को तब ही करती है जब वह बहुत बड़ा मुद्दा हो और ऐसे में टीआरपी की ज़रूरत हो, जैसे हाथरस की घटना आदि। मुझे ऐसा लगता है कि मीडिया संस्थानों को चाहिए कि ऐसी घटना को कवर न करके के एक सतत एंगेजमेंट और सालभर की रिपोर्टिंग करें ताकि मीडिया संस्थान को यह पता हो कि उनके स्टॉफ में कितनी संवेदनशीलता है? और अगर नहीं है तो इसके लिए वो अपने स्टॉफ को ट्रेनिग दें।” वह आगे कहती हैं, “पितृसत्ता का कोई जेंडर नहीं होता है यह पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं में भी विद्यमान है लेकिन ज्यादातर संस्थानों में इस विषय पर रुचि नहीं है। जिसका प्रमुख कारण उदासीनता है।”

खबरों और मीडिया में नारीवाद नज़रिया सिर्फ ज़रूरी नहीं, बल्कि बहुत ही महत्वपूर्ण है। ये नज़रिया हर तरह की ख़बर, चाहे वो अपराध, संस्कृति, स्वास्थ्य या राजनीति से जुड़ी हो, सबके लिए लागू होता है। इसे लेकर फ़्रंटलाइन की पत्रकार इस्मत आरा कहती हैं, “लिंग (जेन्डर) वो चश्मा होना चाहिए जिससे पत्रकार हर ख़बर को देखें। भारत की आधी आबादी महिलाएं हैं। उनकी आवाज़ हर ख़बर का केंद्र होनी चाहिए।” आगे वे कहती हैं कि नारीवादी नजरिए से ख़बर लिखने से बहुत सी असमानताएं सामने आती हैं जैसे आर्थिक फर्क हो या भेदभाव। जाति, धर्म या वर्ग के आधार पर महिलाओं का अलग-अलग अनुभव होता है। नारीवादी रिपोर्टिंग इन सब पहलूओं को भी सामने लाती है। इससे ख़बरें सिर्फ विविध (डाइवर्स) ही नहीं बनतीं, बल्कि ज़रूरी भी हो जाती हैं। लेकिन हम देखते हैं और यह अफसोस की बात भी है कि अक्सर ख़बरों में सनसनी फैलाने को ज्यादा अहमियत दी जाती है। जिससे महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों और सामाजिक मुद्दों में छिपी हुई लैंगिक असमानता को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

“ख़बरों को कवर करने में नारीवादी नज़रिया का होना बहुत महत्वपूर्ण

तस्वीर साभारः रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

जब हम जेंडर जैसे मुद्दों की बात करते हैं। तब हमें लगता है कि उसमें नारीवादी नज़रिया का होना क्यों जरूरी है। क्योंकि जब हम नारीवादी दृष्टिकोण से चीज़ों को लिखते, देखते और समझते हैं तो हम महिलाओं से जुड़े मुद्दे, अल्पसंख्यक लैंगिक पहचान वालों समुदाय के लोगों की बात को बहुत प्रमुखता से रख पाते हैं। इस विषय पर शेड्स ऑफ रूरल इंडिया की संस्थापक और पत्रकार नीतू सिंह हमसे बात करते हुए कहती हैं, “अगर नारीवादी नज़रिया नहीं रहेगा तो हम संवेदनशील होकर उस मुद्दे को नहीं रख पायेंगे। जब हम जेंडर या यौन हिंसा जैसे मुद्दों पर काम करते हैं तो ऐसे में नारीवादी नज़रिया का होना बहुत महत्वपूर्ण हैं।”

वह आगे इस विषय पर अपनी बात रखते हुए कहती हैं, “जब हम ग्राउंड पर जाते हैं, तो हम देखते है कि पुरुष बहुत पूर्वानुमानित होकर जाते हैं। ऐसे में जब हम एक महिला और एक पुरुष के द्वारा यौन हिंसा या सेक्स वर्कर जैसे विषय पर लिखी गई ख़बरों को देखते तो हमें वो अंतर समझ आ जाता हैं। इसलिए हमें ऐसे मुद्दों को नारीवादी नज़रिया देखने की जरूरत है,क्योंकि हर चीज़ उतनी प्लेन नहीं होती है जितनी हमें दिखती है। जब हम ग्राउंड पर होते है तो हमें यह ध्यान रखना होता है कि हमारा जो विषय है वो किससे जुड़ा है और हमें उसके लिए कितना संवेदनशील हो कर जाना है। हम पत्रकार है इसका मतलब ये नहीं कि जाते ही जो मन में सवाल आया वह पूछने लग जाए।”

“मीडिया संस्थानों के स्ट्रक्चर में बदलाव की ज़रूरत”

तस्वीर साभारः  श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

पत्रकारिता के विविध आयामों और मीडिया हाउस में नारीवादी नज़रिया शामिल क्यों होना चाहिए इस पर हम से बात करते हुए वर्तमान में दैनिक भास्कर में बतौर पत्रकार काम करने वाली शिवांगी सक्सेना कहती हैं, “जब हम ग्राउंड पर जाते हैं, तो हमें इस चीज़ का ध्यान रखना होता है कि हम किस समुदाय में जा रहे है। क्योंकि एक मुस्लिम, हिन्दू, विकलांग या ट्रांस महिला की अलग-अलग परेशानियां होंगी। हमें अपनी जाति, वर्ग और पावर को छोड़ कर जाना चाहिए तब ही उस समुदाय को समझ पायेंगे और गैप भर पायेगा। जब तक हम इस चीज़ को नहीं समझ पायेंगे तब तक हम नारीवाद की समझ नहीं रख सकते हैं।”

आगे वे कहती हैं, ज्यादातर संस्थान महिला पत्रकार की नियुक्ति इसलिए करते है ताकि यौन हिंसा या संवेदनशील विषय की रिपोर्ट को उनसे करवाया जाए। और तो और पुरुष पत्रकार यह कह भी देते है कि बलात्कार का मुद्दा है तो आप कर लो। मीडिया संस्थानों में यह एक स्ट्रक्चर बनाया गया है कि जेंडर या मनोरंजन होगा तो महिला पत्रकार करेगी, जबकि क्राइम या कोई और ख़बर पर पुरुषों का वर्चस्व है। ऐसे में यही लगता है कि पुरूष कभी भी अपने आप को बदलना ही नहीं चाहते है।”

नारीवाद नज़रिये के अनुसार बहुत ज़रूरी है कि किसी भी मुद्दे को लेकर कितने संवेदनशील है। जब हम नारीवाद के बारे में बात करते हैं,तो इससे जुड़ी बहुत सारी घटना होती है। मीडिया संस्थानों के न्यूज़ रूप से गायब अंसवेदनशीलता पर बोलते हुए ज़ी स्विच की पत्रकार स्वर्णा झा कहती है, “कोई भी संवेदनशील मुद्दा जैसे यौन हिंसा, बलात्कार हो इसे लेकर न्यूज रूम बहुत असंवेदनशीलता दिखती है। ऐसे मुद्दे कब ‘इंसिडेंट से इवेंट’ बन जाते है। पता ही नहीं चलता है। तब हमें लगता है अगर हम नारीवाद की समझ रखते तो यह समझ आता है कि यह मुद्दा कितना संवेदनशील है।” 

वह आगे कहती है, “जब हम कोई स्टोरी करते है जिसमें कोई एक लड़की है जो संघर्ष करके कुछ हासिल की हो, और उसके पापा या भाई बड़े पद पर हो। ऐसे स्टोरी में लड़की के संघर्ष को साइड कर दिया जाता है, और उस पूरे लेख को उसके पिता, भाई और पति से जोड़ दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर वह बताती है कि अभी लोकसभा चुनाव होने वाला है जिसमें असदुद्दीन ओवैसी के विपक्ष में जिस महिला को बीजेपी ने प्रत्याशी चुना है वो तीन बच्चों की माँ है जिसे लेकर हर जगह यह हेडलाइन चला कि तीन बच्चों की मां है जबकि हमें यह देखना चाहिए कि वो प्रत्याशी कौन है? इसलिए पत्रकारिता में नारीवाद नज़रिया होना बहुत महत्वपूर्ण है। ताकि इस तरह की ख़बर को कैसे किया जाए इसकी समझ हो।”

पत्रकार और लेखिका प्रियंका दुबे कहती हैं, “मीडिया में नारीवादी दृष्टि का होना बहुत प्रमुख है, क्योंकि अभी जो मेनस्ट्रीम मीडिया है वो जेंडर से जुड़ी ख़बर को तब ही करती है जब वह बहुत बड़ा मुद्दा हो और ऐसे में टीआरपी की ज़रूरत हो, जैसे हाथरस की घटना आदि।

इस तरह से हम देखें तो मीडिया सस्थानों में न्यूज चैनल हो या वेबसाइट हर जगह जेंडर से जुड़े मुद्दों पर एक तो बहुत कम ख़बरे होती है और अगर होती भी तो है ज्यादातर पत्रकार को बस यही लगता है इससे क्लिकबेट्स की तरह प्रस्तुत किया जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा व्यूज मिल जाये। ऐसे में सूचना के माध्यमों द्वारा समाज में भेदभाव, अंसवेदनशीलता को स्थापित किया जा रहा है। मास मीडिया उद्योग के हर स्तर के व्यक्ति को इंटरसेक्शनल नारीवाद के नज़रिये से मुद्दों देखना और इंगित करना ज़रूरी है। साथ ही उन तरीकों को ढूढ़ना भी ज़रूरी है जिससे असमानता और रूढ़िवाद की विचारधारा को बदला जा सकें।


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