तस्वीरों की महत्ता और उनके माध्यम से होने वाले प्रभाव ने नारीवादी आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ये तस्वीर न केवल सामाजिक और राजनीतिक बदलाव लाने में सहायक होते हैं, बल्कि वे जनमत बनाने और जागरूकता फैलाने का भी सशक्त माध्यम होते हैं। नारीवादी आंदोलनों में तस्वीरों का महत्व समझना ज़रूरी है। ये तस्वीर नारीवादी विचारधारा को सशक्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और समाज में महिलाओं और लैंगिक रूप से हाशिये पर रहने वालों लोगों के अधिकारों के लिए लड़ाई को एक नई दिशा देते हैं।
तस्वीरों का उपयोग नारीवादी आंदोलनों में प्रारंभ से ही होता आया है। 19वीं सदी में महिला मताधिकार आंदोलन में पोस्टरों और तस्वीरों का व्यापक उपयोग हुआ था। इन चित्रों ने जनसमूह को एकत्र करने और महिलाओं और लैंगिक रूप से हाशिये पर रहने वालों लोगों के अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाने का काम किया। तस्वीरों के माध्यम से दर्ज इतिहास अक्सर दशकों तक लोगों को याद रहते हैं। इसलिए तो तस्वीरें आम जनता तक अपनी बात पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम है। हालांकि इसमें भी महिला फ़ोटोग्राफ़र्स की महत्त्वपूर्ण भूमिका को कम ही आंका जाता रहा है। महिला फ़ोटोग्राफ़रों ने अपने कैमरों का इस्तेमाल न सिर्फ़ कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए किया, बल्कि लैंगिक असमानता को उजाकर करने और महिलाओं और लैंगिक रूप से हाशिये के समुदायों के अधिकारों को लेकर एक्टिविज़्म और एडवोकेसी के टूल के रूप में इस्तेमाल किया।
शीबा छाछी– आर्ट से एक्टिविज़्म
शीबा छाछी एक सुप्रसिद्ध फ़ोटोग्राफ़र और इंस्टॉलेशन आर्टिस्ट हैं। अपने काम के माध्यम से वे महिला अधिकारों को लेकर लंबे समय से एक्टिविज़्म करती रही हैं। दहेज प्रथा के ख़िलाफ़ चले आंदोलन की तस्वीरों में इनकी ली हुई तस्वीरों ने अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाई है। इनकी ही ली गई वे तस्वीरें हैं जो उस वक्त चल रहे आंदोलन का पर्याय बन गए थे। 80 के दशक में दहेज प्रथा के विरोध में खड़ी महिला आंदोलनकारियों की वो तस्वीरें इतनी चर्चित हुई कि आंदोलन में शामिल महिलाओं की बदलाव के लिए छटपटाहट और उनकी सशक्त आवाज़ को और बुलन्द करने और आंदोलन को घर-घर पहुंचाने का कुछ श्रेय इन्हें दिया जाए तो गलत नहीं होगा।
शीबा की कलात्मक यात्रा की शुरुआत भारत में महिला आंदोलनों से होती है, जहां वे इन आंदोलनों को शक्ल देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। चाहे वो आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर हों या अपनी अस्मिता के लिए स्त्री की आन्तरिक लड़ाई हो। साल 1992 से 2004 तक, क़रीब एक दशक से भी लंबा चला उनका प्रॉजेक्ट ‘गंगाज़ डॉटर्स’ उसी आन्तरिक लड़ाई पर जीत पा चुकी महिला साधुओं के जीवन का दस्तावेज़ीकरण है। ये ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीरें उन साध्वी महिलाओं की कहानी कहती हैं, जिन्होंने ख़ुद को लैंगिक चिह्नों से मुक्त कर लिया था।
उन्होंने अपनी अपने सामाजिक पहचान यानि कि कपड़े, बाल, आभूषण, नाम, पारिवारिक वंश, जाति और लिंग की परतों को एक-एककर उतार दिया। ये महिला साधु ऐसा जीवन जीती हैं, जो कि भारतीय समाज की महिलाओं के ‘सामान्य’ जीवन जीने के तरीके से बिल्कुल विपरीत है। ये किसी की पत्नी, बेटी, मां या केवल महिलाएं भी नहीं हैं। शीबा की ली गई ये तस्वीरें एक क्रांतिकारी मनोवैज्ञानिक परिवर्तन को दर्शाती हैं जोकि तपस्वियों/साधुओं को सभी सामाजिक मानदंडों को तोड़ने के लिए प्रेरित करती है।
शीबा अक्सर भारतीय समाज की उन महिलाओं की कहानी कहती हैं, जिन्हें समाज ने कई मायनों में हमेशा नज़रअंदाज़ किया है या फिर उनके ऐसे अनुभव को दर्ज करती हैं जिसे ख़ास महत्त्व नहीं दिया जाता है। साल 1997 में आई ‘नोट्स टू द बॉडी’ की तस्वीरों में एक स्त्री और उसके शरीर के बीच के संबंधों की पड़ताल करती हैं। इसमें तीन ब्लैक-एण्ड-व्हाइट तस्वीरें हैं, जो महिला शरीर को केंद्र में रखकर उसके विभिन्न पहलुओं और उनके अनुभवों को दर्शाती हैं। इन महिलाओं के अनुभवों का चित्रण हमें विचार करने पर मजबूर करती है, जिसके लिए शीबा को व्यापक स्तर पर प्रशंसा भी मिली।
इस कड़ी में साल 2000 आई उनकी कृति ‘वेन गन स्पीक्स’ में वे कश्मीर की महिलाओं के संघर्षों और उनके अनुभवों को प्रस्तुत करती हैं। आमतौर पर नज़रअंदाज़ की गई इन महिलाओं के झेले गए संघर्ष और उत्पीड़न भी लोगों की नज़र में नहीं आते। वे उनके अनुभवों को दुनिया के सामने लाने का प्रयास करती हैं। लैंगिक समानता की वकालत करने वाली शीबा कई ऐसे संस्थानों से भी जुड़कर काम करती रही हैं। उन्होंने ‘सहेली’ की स्थापना की और नारीवादी संस्था ‘जागोरी’ का हिस्सा रहीं। उनकी डॉक्यूमेंट्री फ़ोटोग्राफ़ी और इंस्टॉलेशन आर्ट (मल्टीसेंसरी आर्ट) ने भारत में महिलाओं के संघर्ष और सामाजिक रूढ़ियों पर जीत को उजागर करने का बेहद ज़रूरी काम किया।
कैमरे से बदलावों को दर्ज करती पोलोमी बसु
पोलोमी बसु फ़ोटोग्राफ़र, ट्रांसमीडिया आर्टिस्ट और एक्टिविस्ट हैं जो लैंगिक भेदभाव और यौन हिंसा पर अपने काम को लेकर वैश्विक स्तर पर जानी जाती हैं। उनके काम ने दक्षिण एशिया में महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन लाने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई है। साल 2013 में आए उनके प्रॉजेक्ट ‘ब्लड स्पीक्स- अ रिचुअल ऑफ़ एक्साइल’ ने एशिया, ख़ासकर नेपाल में चौपाड़ी प्रथा (पीरियड्स के दौरान लड़कियों को अलग रखे जाने की प्रथा) पर वैश्विक समुदाय का ध्यान खींचा। बसु ने अपने इस आर्ट वर्क के माध्यम से समाज में अनुष्ठानिक हिंसा झेल रही महिलाओं के लिए आवाज़ उठाने का काम किया है। बसु के इन प्रयासों ने गैर सरकारी संगठनों के साथ ही नेपाल सरकार को चौपाड़ी प्रथा के उन्मूलन की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित किया। इसके नतीजन 2017 में इस प्रथा के रोकथाम के लिए नेपाल सरकार ने 3000 रुपए जुर्माना और तीन महीने जेल की सज़ा का प्रावधान किया।
2009 में बसु ने प्रॉजेक्ट ‘टू कॉनकर हर लैंड’ में महिला सैनिकों के बदलाव के ऐतिहासिक प्रक्रिया को डॉक्यूमेंट किया है। इस प्रोजेक्ट में वह भारत–पाकिस्तान सीमा पर महिला सैनिकों की तस्वीरों से यह दर्शाने का प्रयास करती हैं कि कैसे महिलाएं उस समाज में अपनी भूमिकाओं को पुनर्परिभाषित करती हैं, जिस समाज में लगातार महिलाओं को अपने अधीन रखने का भरसक प्रयास करता है। साथ ही इसमें भारतीय महिला सैनिकों के सामने आने वाले चुनौतियों और एक सैनिक और महिला के रूप में उनकी भूमिकाओं के बीच संतुलन बनाए रखने के उनके संघर्ष पर भी प्रकाश डालती हैं।
उनकी फ़ोटोबुक ‘सेंट्रलिया’ में लैंगिक असमानता के स्वर स्पष्ट सुनाई देते हैं। हाल में उनकी रिलीज़ हुई फ़िल्म– ‘माया: द बर्थ ऑफ़ अ सुपरहीरो’ एक सुपरहीरो नहीं सुपरहिरोइन की कहानी है। माया फ़िल्म उनके एक बड़ी परियोजना ‘ब्लड स्पीक्स’ का एक हिस्सा है, जिसके माध्यम से वह महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के सामान्यीकरण के प्रति लोगों को जागरूक करना चाहती हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘To Be A Girl’ और #MyBodyIsMine जैसे अभियानों पर पर भी काम किया है।
स्मिता शर्मा
स्मिता शर्मा ह्यूमन ट्रैफ़िकिंग, महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा और महिलाओं के अधिकारों के अपने दमदार विज़ुअल कहानियों के ज़रिए भारतीय नारीवादी आंदोलन को सशक्त करने में अहम भूमिका निभा रही हैं। स्मिता केवल घटनाओं का बेजान ब्यौरा नहीं बल्कि लोगों की कहानियां कहने में ज़्यादा विश्वास रखती हैं। वे कहती हैं कि स्टोरीज़ हेल्प अस ह्यूमनाइज़ दीज़ प्रॉब्लम्स! उनका मानना है कि घटना से पीड़ित या प्रभावित लोगों के आंकड़ें ज़रूरी है क्योंकि वे स्थिति की गम्भीरता को दर्शाते हैं। लेकिन, इसके साथ ही उनकी पर्सनल स्टोरीज़ जानना भी बेहद ज़रूरी है क्योंकि अक्सर इन बड़ी संख्याओं में चेहरे गुम हो जाते हैं। वह भारत, नेपाल और बांग्लादेश की उन लड़कियों की कहानी कहती हैं जिन्हें मानव तस्करी और सेक्स ट्रैफिकिंग में धकेला गया। इस प्रॉजेक्ट के दौरान ली फ़ोटोज़ की एक फ़ोटोबुक ‘We Cry In Silence’ नाम से प्रकाशित हुई है।
‘नॉट माय शेम’ प्रॉजेक्ट में स्मिता ने भारत में बलात्कार और यौन हिंसा का सामना कर रही महिलाओं की कहानियों को उजागर करने की बात कहती हैं। स्मिता अक्सर तस्वीरों के माध्यम से उन लड़कियों की कहानी कहती हैं जो समाज में नज़रअंदाज़ की जाती रही हैं। उनकी प्रभावशाली तस्वीरों ने ग्लोबल साउथ में महिला आंदोलन और लैंगिक समानता के मुद्दों को उजागर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके लिए उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। वह मानती हैं कि तस्वीरें व्यक्ति के साथ सीधा सम्पर्क साधने में सार्थक हैं।
आज के समय में, तस्वीरों का उपयोग नारीवादी आंदोलनों में और भी व्यापक हो गया है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, न्यू मीडिया और डिजिटल आर्ट्स के माध्यम से नारीवादी मुद्दों को व्यापक जनसमूह तक पहुंचाना आसान हो गया है। तस्वीरों का महत्व नारीवादी आंदोलनों में अति महत्वपूर्ण है। ये न केवल आंदोलन को सशक्त बनाते हैं, बल्कि समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में भी सहायक होते हैं। तस्वीरों के माध्यम से नारीवादी विचारधारा को व्यापक जनसमूह तक पहुंचाना और उन्हें जागरूक करना संभव हो पाया है। पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा होते हुए न दिखने वाली इन महिलाओं की कहानियों को इन फ़ोटोग्राफ़रों ने दिखाया है। तस्वीरों के माध्यम से इन औरतों के संघर्ष की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित कर उन्हें हाशिए से मुख्यधारा में लाने का इनका प्रयास अतुलनीय है जिसे पूरी दुनिया में सराहा जाता है। इन तीन महिला फ़ोटोग्राफ़र के अलावा भी कई और फ़ोटोग्राफ़र हैं जिनको इस लिस्ट में हम शामिल नहीं किया जा सका है।