हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधानसभा में विधायक रेखा देवी को कहा कि तुम क्यों बोल रही हो, अरे तुम महिला हो, कुछ जानती नहीं हो। पुरुषों का ऐसा बोलना एकदम नयी घटना नहीं है। ये भारतीय पुरूष की प्रकृति बन चुकी है कि महिलाओं के लिए वे अमूमन स्त्रीद्वेषी बयान देते हैं। वैसे इस समाज में कदम-कदम पर ये भेदभाव की प्रवित्ति महिलाएं झेलती रहती हैं लेकिन नीतीश कुमार बिहार राज्य के मुख्यमंत्री हैं, इसलिए आम जनता को संवेदनशील भाषा और व्यवहार की उम्मीद है।
नीतीश विधानसभा के मॉनसून सत्र में चर्चा के दौरान जातीय जनगणना को लेकर अपनी बात कह रहे थे। इस बीच उन्होंने कहा कि बिहार में महिलाओं का आरक्षण सबसे अधिक हमारी ही सरकार ने दिया और महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए हमारी सरकार काम करती है। इसी क्रम में उन्होंने रेखा देवी को रूढ़िवादी और सेक्सिस्ट बयान दिया। उनका ये बयान दर्शाता है कि महिलाओं को लेकर उनकी सोच कितनी सतही और प्रतिगामी है।
इस बीच राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के विधायक भाई वीरेंद्र सिंह ने नीतीश कुमार की आलोचना करते हुए आपत्तिजनक टिप्पणी की। मुख्यमंत्री के बयान को लेकर वीरेंद्र ने कहा कि मुख्यमंत्री महिला प्रेमी हैं, इसलिए महिलाओं की बात करते हैं। अगर देखा जाए तो ये टिप्पणी भी महिला विरोधी है और गहरी लैंगिक असमानताओं की खाई में पड़े इस देश का सच भी है। हमारे देश में नेताओं के इस तरह के महिला विरोधी बयानों की लंबी फेहरिस्त है जिनमें देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लेकर दिग्विजयसिंह , कैलाश विजयवर्गीय, उत्तरप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ,सुब्रमण्यम स्वामी तक शामिल हैं । इस लिस्ट में दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तक शामिल हैं।
पुरुष नेताओं के महिला विरोधी बयान
पुरुष नेताओं की इन्हीं महिला विरोधी टिप्पणियों से पता चलता है कि हमारे देश में महिला विरोध का स्तर कितना गहरा है। साल 2012 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कांग्रेस नेता शशि थरूर पर की गई टिप्पणी महिलाओं के लिए आपत्तिजनक टिप्पणी थी। उन्होंने उस वक्त एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘वाह क्या गर्लफ्रेंड हैं, आपने कभी देखा है 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड को।’ यहां एक महिला को सीधे-सीधे सामान की तरह उन्होंने आब्जेक्टिफाइ किया। कहा जाता है प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में शशि थरूर का सीधे तौर पर नाम नहीं लिया था, लेकिन उनका बयान स्त्रियों का अपमान था। यहां तक अपने वर्चस्व के लिए पितृसत्तात्मक सोच महिलाओं को बच्चे पैदा करने की मशीन समझता है। बीजेपी सांसद साक्षी महाराज ने कहा कि हिंदू महिलाओं को हिंदुत्व की रक्षा के लिए कम से कम चार बच्चे जरूर पैदा करना चाहिए।
इसी तरह साल 2014 में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और दिवंगत नेता मुलायम सिंह यादव का बयान बेहद स्त्री विरोधी था। मुरादाबाद में एक सभा को संबोधित करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलाकात सिंह यादव ने कहा था कि लड़कियां पहले दोस्ती करती हैं, लड़का-लड़की में मतभेद हो जाता है। लड़कियां मतभेद होने के बाद उसे रेप का नाम दे देती हैं। लड़कों से गलतियां हो जाती हैं। मुलायम सिंह का ये बयान दर्शाता है कि हमारे यहां शीर्ष पर बैठा नेता कितना असंवेदनशील हो सकता है।
मुलायम सिंह जैसे नेताओं के ऐसे बयान ये बताता है कि हमारे समाज में हर वर्ग स्त्री को बहुत निचले पायदान की मनुष्य समझता है और उसे नियंत्रण में रखना चाहता है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव तो हमेशा से ऐसे बयानों के लिए चर्चित रहे हैं। उनका बयान कि बिहार की सड़क को हेमा मालिनी की गाल की तरह बना देंगे बहुत सुर्खियों में रहा। हालांकि महिलाओं ने लालू के इस बयान का काफी विरोध किया था, लेकिन जब समाज की रग-रग में पितृसत्ता हो तो न तो ऐसे बयान देने वाले पुरुषों को अफ़सोस होता है न सुनने वाले पुरुषों को कोई तकलीफ़ होती है। तकलीफ़ होती है चेतनाशील स्त्रियों को।
राजनीति में महिलाओं का आकलन करते पुरुष राजनीतिज्ञ
आए दिन राजनीति और समाज को प्रभावित करने वाले पुरुष नेता महिलाओं को लेकर अपना नजरिया बता देते हैं जैसेकि औरतें फैसला नहीं कर सकतीं, वे सही-गलत नहीं समझती। बहुत लोग तो सीधे कहते हैं कि औरतें बस चूल्हा-चौका करें। इसी प्रकार जनता दल (यूनाइटेड) (जदयू) के सांसद और केंद्रीय मंत्री ललन सिंह ने भी राबड़ी देवी पर विवादित बयान दिया था। उन्होंने कहा कि बजट जैसी चीज़ राबड़ी देवी की समझ से बाहर है। उन्हें हस्ताक्षर करना आता नहीं, बजट पर क्या बोलेंगी।
महिलाओं के शृंगार से लेकर सूरत तक की बात
राजनीति में आकर भी मर्दवादी ढांचे में पुरुष स्त्री को देह से बाहर नहीं देख पाता। न ही उन्हें उसका अभ्यास होता है अपनी कुंठा में ढले ये पुरूष समय-समय पर स्त्री को उसकी देह या बुद्धि के दायरे में परिभाषित करते रहते हैं। अपने मस्तिष्क को वो कोई आसमानी चीज समझते हैं वे जैविक रूप महिलाओं से खुद को श्रेष्ठ समझते हैं। वे मानकर बैठें हैं कि औरतों के पास मर्द से कम दिमाग होता है। नीतीश कुमार कोई अपवाद नहीं हैं। वो इसी समाज की पुरुष मानसिकता का एक साफ़ आईना हैं। बीजेपी के एक और नेता कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था कि महिलाओं को ऐसा श्रृंगार करना चाहिए जिससे लोगों में श्रद्धा पैदा हो ना कि वे उत्तेजित हो।
उन्होंने उस वक्त कहा था कि महिलाएं कभी-कभी ऐसा श्रृंगार करती हैं जिससे लोग उत्तेजित हो जाते हैं। बहुत हास्यास्पद और अमानवीय है कैलाश विजयवर्गीय का ये बयान। आखिर स्त्री अपनी इच्छा से क्यों न श्रृंगार करे? अगर ऐसी मानसिकता से समाज चलेगा तो ये पूरा पुरुष समाज कुंठित और बीमार ही रहेगा जिसके इलाज की जरूरत है। पितृसत्ता इतनी भीतर तक धंसी है कि समाज के भीतर के पुरूष क्या महिलाएं तक भी इसमें शामिल हैं। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी एक बार कहा था कि लड़कियों को ज्यादा एडवेंजर्स नहीं होना चाहिए। उन्हें मर्यादित कपड़े पहनने चाहिए।
सत्ता की प्रवित्ति में स्त्रियां हमेशा कमतर समझी जाती हैं। लेकिन अगर वे आधुनिक पढ़ी-लिखी तार्किक और विचारशील हो, तो पुरुषों की फूहड़ आलोचना झेलनी ही पड़ेगी। इतने सारे स्त्रीद्वेषी बयान व व्यवहार को देखते हुए लगता है कि हमारे पितृसत्तात्मक समाज को स्त्रियों को पूर्ण मनुष्य मानने-समझने का अभ्यास नहीं है, वो अभ्यास कर भी नहीं रहा है। उसे तो दंभ है कि वो सब जानते हैं। स्त्रियां कुछ नहीं जानती। वे स्त्रियों की अस्मिता को अभी तक स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन उनके न मानने-समझने का हर्जाना स्त्रियां लगातार भुगत रही हैं। भारतीय समाज के पुरुषों को अभी शिक्षित और सभ्य होने में सदियां लग जाएगीं।
स्त्री विरोधी बयान और विचार न केवल स्त्रियों के प्रति समाज की विकृत मानसिकता को दर्शाते हैं, बल्कि यह भी दिखाते हैं कि हमारे नेताओं को समाज के आधे हिस्से की गरिमा और सम्मान का कितना कम आभास है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाज में स्त्रियों को समान अधिकार और सम्मान देने की बात केवल कागजों तक ही सीमित रह जाती है। वास्तविकता में, शीर्ष पर बैठे नेता जब खुद स्त्री विरोधी बयान देते हैं, तो इससे न केवल स्त्रियों का मनोबल गिरता है बल्कि यह समाज के अन्य लोगों के लिए भी एक गलत उदाहरण पेश करता है।
स्त्रियों की समानता और गरिमा की रक्षा के लिए केवल कानून बनाना काफी नहीं है, बल्कि इसके लिए समाज की मानसिकता में भी बदलाव लाना आवश्यक है। इसके लिए शिक्षित और जागरूक समाज की आवश्यकता है, जो स्त्रियों को केवल उनके लिंग के आधार पर नहीं बल्कि उनकी क्षमताओं और योग्यताओं के आधार पर सम्मान दे। पितृसत्ता के इस जाल को तोड़ने के लिए हमें मिलकर प्रयास करना होगा ताकि एक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज की स्थापना हो सके। स्त्रियों को समान अवसर और सम्मान देने से ही समाज का समग्र विकास संभव है। समय है कि हम अपनी सोच और व्यवहार में बदलाव लाएं और स्त्रियों को उनका सही स्थान और सम्मान दें।