सोचिए अगर आपको दिन के 10 रुपए में खान-पान, दवाई या कोई और जरूरत पूरी करनी पड़े या 30,000 रुपए में अपनी बेटी की शादी निपटाने की बात कही जाए। आपको भी लग रहा होगा कि आज के ज़माने में आखिर ये कैसे संभव है। हमारे देश में विधवाओं के लिए सरकार का तय किया गया मुआवज़ा इतना ही है। केंद्र सरकार 40 साल से 79 साल की उम्र वाली विधवाओं को 300 रुपए प्रतिमाह पेंशन देने का वादा करती है, जो श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों से कम है। वहीं 80 साल या उससे अधिक आयु वाले विधवाओं के लिए पेंशन 500 रुपए प्रतिमाह है। राजधानी दिल्ली की बात करें, तो दिल्ली सरकार गरीब विधवाओं को अपनी बेटियों की शादी के लिए अधिकतम 30 हजार रुपए वित्तीय सहायता देती है।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना देश के हर राज्य में लागू है, जिसमें केंद्र सरकार के मुआवज़े के अलावा अलग-अलग राज्य विधवाओं को निर्धारित राशि देती है। हालांकि ये राशि मिलने के लिए उनका बैंक में अकाउंट, आधार, और निश्चित राज्य का निवासी होना ज़रूरी है। नरेंद्र मोदी की सरकार ने बेघर महिलाओं के लिए 2016 में स्वाधार गृह योजना शुरू की थी। यह योजना कठिन परिस्थितियों में रहने वाली महिलाओं की प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करती है। ये ऐसी महिलाएं हैं जो पारिवारिक कलह, अपराध, हिंसा, मानसिक तनाव, सामाजिक बहिष्कार के कारण बेघर हुई हैं या वेश्यावृत्ति में मजबूर की जा रही हैं और खतरे में हैं।
पति के मौत के बाद से, मैं घरेलू कामगार की नौकरी करके अपने दोनों बच्चों को बड़ा कर रही हूं। विधवा पेंशन में 1000 रुपए मिलता है, पर इससे तो चल नहीं सकता। इसलिए, अच्छी नौकरी खोजती रहती हूं जिससे थोड़ी राहत मिले।
इस योजना का उद्देश्य कठिन परिस्थितियों में महिलाओं को आश्रय, भोजन, कपड़े, काउन्सिलिंग, प्रशिक्षण, नैदानिक और कानूनी सहायता के प्रावधानों के माध्यम से आर्थिक और भावनात्मक रूप से पुनर्वास करना है। द क्विन्ट में प्रकाशित 2018 की खबर मुताबिक महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 559 आश्रय गृहों को करीब 200 करोड़ रुपए की धनराशि जारी की गई। खबर के मुताबिक राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) ने दिसंबर में मंत्रालय को एक रिपोर्ट सौंपी जिसमें उत्तर प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के 26 में से 25 आश्रय गृहों की ‘खराब और दयनीय’ स्थिति का खुलासा किया गया था।
क्या विधवा पेंशन से चल सकता है जीवन
सरकार के विभिन्न दावों के बावजूद, देश में विधवाओं के जीवन को नजरन्दाज़ किया जाता रहा है। बिहार के मुंगेर जिले की इंदु देवी की पति की कथित रूप से जायदाद के लिए ठेकेदारों ने हत्या कर दी थी। इसके बाद, इंदु को अपने घर के बाकी सामान बेचने पर भी मजबूर किया गया। जीवन चलाने को लेकर वह कहती हैं, “पति के मौत के बाद से, मैं घरेलू कामगार की नौकरी करके अपने दोनों बच्चों को बड़ा कर रही हूं। विधवा पेंशन में 1000 रुपए मिलता है, पर इससे तो चल नहीं सकता। इसलिए, अच्छी नौकरी खोजती रहती हूं जिससे थोड़ी राहत मिले। ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हूं इसलिए घरों में काम करती हूं। कई घरों में काम के वक्त यौन हिंसा की कोशिश भी हुई। इसलिए, किसी भी जगह जाकर काम करना आसान नहीं है।”
ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हूं इसलिए घरों में काम करती हूं। कई घरों में काम के वक्त यौन हिंसा की कोशिश भी हुई। इसलिए, किसी भी जगह जाकर काम करना आसान नहीं है।
2001 की जनगणना के अनुसार, विधवाएं महिला आबादी का 9 फीसद यानी 34 मिलियन से अधिक महिलाएं प्रतिनिधित्व करती हैं। कुल विधवा आबादी में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है जो लगभग 78 फीसद विधवा आबादी का हिस्सा है। फिर भी शोधकर्ताओं और नीति निर्माताओं ने इस समूह पर बहुत कम ध्यान दिया है। यह इसलिए भी है कि भारतीय समाज में विधवाओं की समस्याओं को एक ‘सामाजिक समस्या’ के बजाय एक पारिवारिक और निजी मामला माना जाता है।
विधवाएं आखिर क्यों है एक कमज़ोर समूह
अगर बात सशक्तिकरण की करें, तो विधवाओं का सशक्त होना महज इस बात तक सीमित नहीं है कि पति की मौत के बाद, उसकी नौकरी उसे मिले या रहने के लिए सिर्फ एक आश्रय मिल जाए। अक्सर विधवाओं की समाज और परिवार में एजेंसी नहीं होती। विधवा हो जाने से महिला की सामाजिक स्थिति कम हो जाती है, क्योंकि समाज में आज भी अधिकतर महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति उनके पति से तय होती है। कई बार उन्हें अशुभ भी माना जाता है, खासकर अगर वह बहुत छोटी है या शादी के तुरंत बाद अपने पति को खो चुकी है। असल में सामाजिक तौर पर सशक्त होने के लिए आर्थिक सशक्तिकरण को आधार बनाने की जरूरत है।
आंकड़ों के अनुसार स्वाधार गृह योजना में साल 2016-17 में 90 करोड़ संशोधित बजट आवंटित किया गया था, जिसमें 83.78 करोड़ रुपए खर्च किए गए। वहीं साल 2020-21 आते-आते इसे कम कर 25 करोड़ रुपए आवंटित किए गए जिसमें से फ़रवरी 2021 तक 16.50 खर्च हुए हैं। जीवनयापन के मामले पर गुजरात के लीम्बडी गांव में रहने वाली आदिवासी महिला नेता और पंचायत सदस्य दक्षाबेन बरफरिया कहती हैं, “पति के मौत के बाद पहले एक साल विधवा पेंशन के लिए प्रयास की थी। सरकारी अफसर कुछ कागज़ मांग रहे थे, जो मैं बैंक में नहीं दे पाई। सरकार की ओर से मुझे कुछ नहीं मिलता।” ऐसी स्थिति में रह रही महिलाओं के लिए मोबाईल कनेक्शन और आधार बनाना भी कई बार एक चुनौती होती है।
आर्थिक चुनौतियों को कैसे दूर करेंगी विधवाएं
नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन में छपे एक शोध में केरल के ग्रामीण इलाके में विधवा महिलाओं की समस्याओं पर बात की गई। इस शोध में महिलाओं ने बताया कि विधवा होने के शुरुआती दौर में उन्हें कर्ज, शर्म और जीवनयापन से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कुछ महिलाओं ने पति के बीमार होने से अत्यधिक कर्ज होने के कारण चुनौतियों की बात की। वहीं कुछ महिलाओं के पतियों के अतिरिक्त शराब सेवन से मौत के बाद उनमें शर्म की भावना थी। शोक की अवधि के बाद, महिलाओं ने निराशा की भावना व्यक्त की, जो उनके पति को खोने के अनुभव और भावनात्मक तनाव और उनके घरों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की चुनौतियों से संबंधित थी।
इस साक्षात्कार में शामिल प्रतिभागियों में नौ विधवाओं ने अपने पति को उस समय खो दिया था, जब उनके बच्चे अभी छोटे थे। उनमें से किसी ने भी अपने ससुराल वालों से पर्याप्त सहायता मिलने की बात नहीं कही। परिवार के समर्थन के बिना, दूसरे उत्तरदाताओं ने गुजारा करने में अपने संघर्ष के बारे में बात की। शोध में शामिल प्रतिभागियों के मुताबिक महज तीन महिलाओं को विधवा पेंशन मिल रही थी, जो 110 रुपये प्रति माह थी, जो हर साल दो बार में एक साथ मिलती थी। वहीं कुछ ने वार्ड पार्षद का उनकी ओर से हस्तक्षेप करने के बाद ही विधवा पेंशन मिलने की बात कही।
पति के मौत के बाद पहले एक साल विधवा पेंशन के लिए प्रयास की थी। सरकारी अफसर कुछ कागज़ मांग रहे थे, जो मैं बैंक में नहीं दे पाई। सरकार की ओर से मुझे कुछ नहीं मिलता।
क्यों विधवाओं की समस्या सामाजिक है
विधवाओं से जुड़ी समस्या एक जटिल सामाजिक मुद्दा है, जिसे चंद योजनाओं से मिटाया नहीं जा सकता। देश में विधवा होने की सबसे ज़्यादा घटनाएं 41-80 साल की महिलाओं के बीच होती हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के एक सर्वेक्षण मुताबिक प्रतिभागीओं में से 49.8 फीसद 41-60 वर्ष की आयु के बीच और 36 फीसद 61-80 वर्ष की आयु के बीच पाई गई। सर्वेक्षण की गई विधवाओं में से केवल 10.8 फीसद 18-40 वर्ष की आयु के बीच थी। सर्वेक्षण के मुताबिक शादी के समय महिलाओं की उम्र विधवा होने की घटना के साथ महत्वपूर्ण रूप से जुड़ी है।
कम उम्र में शादी जल्दी और गरीबी के कारण विधवा होने का एक सहायक कारक है। सर्वेक्षण में शामिल 65.9 फीसद महिलाओं का बाल विवाह किया गया था। 18 साल से कम उम्र में शादी करने वाली अधिकांश महिलाओं की शिक्षा कम पाई गई, और वे आर्थिक रूप से अपने वैवाहिक या पैतृक परिवारों पर निर्भर थीं। वहीं इनमें से कई को अपने जीवन पर नियंत्रण की कमी महसूस हुई। वहीं 68.6 फीसद लाभार्थियों को किसी न किसी प्रकार की पेंशन मिलने की बात कही, जिनमें से 60.7 फीसद को विधवा पेंशन मिलती है।
विधवाओं का स्वास्थ्य और कल्याण का मुद्दा
देश में विधवाओं का स्वास्थ्य और कल्याण सार्वजनिक स्वास्थ्य और महिला अधिकारों का एक महत्वपूर्ण लेकिन उपेक्षित मुद्दा है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सर्वेक्षण में शामिल उत्तरदाताओं ने कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में बात की, जिनमें सबसे आम थी सांस संबंधी समस्याएं, जोड़ों और शरीर में दर्द, और चलने-फिरने में कठिनाई। स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करने के बावजूद, अधिकांश उत्तरदाताओं ने बताया कि उन्हें अपने या परिवार के किसी सदस्य के लिए स्वास्थ्य देखभाल लागतों को पूरा करने में कठिनाई हुई। विधवाओं को उन पर लगाए गए सामाजिक प्रतिबंधों और सामाजिक सुरक्षा की कमी से भी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
क्या विधवाओं को समाज से अलग-थलग करना हल है
एनसीडब्ल्यू 2018 की रिपोर्ट मुताबिक सरकारी आश्रय गृहों में अपर्याप्त सुविधाओं और अस्वच्छ, यहां तक कि खतरनाक स्थितियों का उल्लेख किया गया। रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को उचित चिकित्सकीय सहायता नहीं दी गई, गंदे और अस्वच्छ रसोईघर, तंग कमरे, सोने के लिए कोई बिस्तर या गद्दे नहीं दिए गए। सरकार ने उत्तर प्रदेश के मथुरा के वृंदावन में विधवाओं के लिए आश्रम भी बनाए हैं। पर भले ये सुनने में एक महत्वाकांक्षी योजना लगे, ये मूल रूप से परिवार से बहिष्कृत विधवाओं का एक ठिकाना है।
वहीं विधवाओं को एक अलग कमजोर समूह मानते हुए, उन्हें सुरक्षित रखने के लिए समाज से अलग कर आश्रय देना भी उन्हें मुख्यधारा से बाहर करना है। विधवा होने के बाद, महिलाओं को घर में कई भूमिकाएं निभानी पड़ती हैं। एक आम महिला कमाने वाली, निर्णय लेने वाली, बच्चों की परवरिश करने वाली और यहां तक कि अपने माँ-बाप की देखभाल करने वाली बन जाती है। जब तक हम विधवाओं को सांस्कृतिक नजरिए से देखते रहेंगे, तबतक न तो उनके साथ होने वाले भेदभाव को हम मिटा पाएंगे और न ही नीतिनिर्माण करने वाले उनके सशक्तिकरण के लिए समावेशी नीतियां बना पाएंगे।