संस्कृतिख़ास बात ख़ास बातः बॉलीवुड में क्वीयर मुद्दों पर फिल्म निर्देशक ओनिर से

ख़ास बातः बॉलीवुड में क्वीयर मुद्दों पर फिल्म निर्देशक ओनिर से

कई कहानीकार, डायरेक्टर मेरे पास आ कर बोलते हैं कि तुम कहानी अच्छी बनाते हो, अच्छा लिखते हो, मगर खुद को ब्रेकेट में क्यों डालते हो? मैं क्वीयर फिल्में ही बनाता हूं। इस पर मैंने जवाब दिया कि ब्रेकेट में मैंने नहीं डाला खुद को बल्कि आपने डाला है। मैं तो हर विषय पर फ़िल्म बनाता हूं।

ओनिर एक पुरस्कार विजेता फिल्म निर्देशक, लेखक और निर्माता हैं। वह अपनी फिल्मों के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कई मंचो पर सम्मानित हो चुके हैं। वह अपनी फिल्म के ज़रिये क्वीयर संबंधों, एड्स जैसे विषयों पर संवेदनशीलता से संवाद करते हैं। वह अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर मुखर होकर बात करते है और समाज में क्वीयर समुदाय को लेकर स्थापित पूर्वाग्रहों को सिनेमा के माध्यम से एड्रेस करते हैं। फेमिनिज़म इन इंडिया ने सिनेमा में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के प्रतिनिधित्व और अन्य मुद्दों पर उनसे बातचीत की है, पेश है बातचीत के कुछ अंशः

फेमिनिज़म इन इंडियाः आपके जीवन में ऐसी कोई घटना रही जिसने आपको सिनेमा की ओर आकर्षित किया और एक कहानीकार के रूप में आपने आगे आना तय किया। फिल्मों से आपका जुड़ाव कैसे हुआ?

ओनिरः जब मैं कक्षा छह में पढ़ता था तब सिनेमा का मेरे जीवन में पहला इम्प्रेशन आया। मैंने डेविड कॉपरफील्ड की फ़िल्म देखी थी। उसकी तस्वीरें और भावनाएं तभी से मेरे साथ रही। ये सब मैं महसूस कर रहा था। इसके बाद जब मैं कक्षा आठ में पहुंचा तब मैंने श्याम बेनेगल की ‘जुनून’ फ़िल्म देखी। ये फ़िल्म उस ज़माने के पैरेलल सिनेमा का हिस्सा थी। मेरे माता-पिता ऐसी फ़िल्मों को पसंद करते थे, तो मैं भी उनके साथ देखने जाता था। फ़िल्म की कहानी तो मुझे समझ नहीं आई मगर उस फ़िल्म में जो रंग थे और संगीत था उसने मुझे आकर्षित किया। तभी से मैं फिल्मों में आने के लिए सोचने लगा। इसके बाद जब मैं कक्षा दस में था जब मैं कोलकाता आया। इससे पहले हम भूटान में रहा करते थे। उस दौरान विंटर वेकेशन के लिए हम कोलकाता आते थे। उसी दौरान मेरी बड़ी बहन मुझे एक फ़िल्म फेस्टिवल में ले गयी। जहां मैंने दो फ़िल्म देखी एक थी ‘चारुलता’ और दूसरी थी ‘द फ्रेंच लेफ्टिनेंट वुमन’ इन दो फिल्मों ने मुझे पूरी तरह से सिनेमा की तरफ मोड़ दिया। ये कह सकते हैं कि उसके बाद से मैंने सिनेमा के आधार को समझना शुरू कर दिया था। 

“अभी जो क्वीयर समुदाय की फ़िल्म बन रही हैं उनमें ज़्यादातर यही दिखाया जा रहा है कि हेट्रोसेक्सुअल समाज हमको किस तरह से खुद को जोड़ेगा, हमारी समस्याओं से अवगत होगा।”

फेमिनिज़म इन इंडियाः बॉलीवुड में हर एक नए कलाकार को अपनी पहली फिल्म बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन आपने अपनी क्वीयर पहचान को सामने रखते हुए काम किया है आपको क्या लगता है कि यह आपके लिए इंडस्ट्री के अन्य बाहरी लोगों की तुलना में अधिक कठिन था? एक क्वीयर होने के नाते आपको बॉलीवुड सिनेमा में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

ओनिरः बॉलीवुड बहुत मिक्स है, यहां समावेशिता नज़र आती है। यहां हर राज्य के लोग काम कर रहे हैं, हर धर्म, जाति के लोग काम कर रहे हैं। हर सेक्सुअलिटी के लोग भी काम कर रहे हैं। जेंडर अभी तक उतना ओपन नहीं हुआ है। ट्रांस लोग अभी भी यहां पर मान्य नहीं हैं। अभी उसकी जागरूकता धीरे-धीरे शुरू हो रही है। मगर एक तरह से बॉलीवुड काफी समावेशी रहा है। यहां कोई आपसे ये नहीं पूछता कि आपका मज़हब क्या है? या आपकी सेक्सुअलिटी क्या है? और एक बात बताना चाहूंगा कि मेरी सारी फिल्में क्वीयर समुदाय पर ही नहीं बनी, बल्कि इनमें और भी मूवी मैंने बनाई है जैसे ‘बस एक बार’, ‘सॉरी भाई’, ‘चौरंगा’ अलग-अलग किस्म की स्टोरी है। यहां तक कि मुझे लगता है कि लोग मेरी फिल्म ‘माय ब्रदर निखिल’ को एक गे स्टोरी मानते हैं मगर ये गे स्टोरी नहीं है। ये भाई-बहन की कहानी है। इसमें भाई गे होता है मगर कहानी का प्लॉट अलग है। बॉलीवुड में लोगों ने मुझे एक ब्रैकट में डाल दिया है कि मैं केवल गे मूवी बनाता हूं। मेरे सामने तो कभी किसी ने कुछ ऐसा नहीं बोला मगर मेरे पीछे सब इस बात को बोलते हैं कि मैं केवल गे समुदाय पर ही फ़िल्म बनाता हूं। तो यहां बॉलीवुड में भी एक छुपा हुआ क्वीयर फोबिया तो है। हर फ़िल्म बनाने से पहले बजट की समस्या सबसे बड़ी समस्या है तो जब मैं साधारण कहानी बनाता हूं तो मुझे पैसों की परेशानी होती है और जब क्वीयर थीम पर फ़िल्म बनाने को कोशिश करता हूं तो वहां दोहरी समस्या उभर आती है। 

तस्वीर साभारः इमरान

कई कहानीकार, डायरेक्टर मेरे पास आ कर बोलते हैं कि तुम कहानी अच्छी बनाते हो, अच्छा लिखते हो, मगर खुद को ब्रेकेट में क्यों डालते हो? मैं क्वीयर फिल्में ही बनाता हूं। इस पर मैंने जवाब दिया कि ब्रेकेट में मैंने नहीं डाला खुद को बल्कि आपने डाला है। मैं तो हर विषय पर फ़िल्म बनाता हूं। फिर वो लोग कहते हैं कि ओनिर तुम क्वीयर समुदाय के बारे में ज़्यादा बोलते हो तो मैं जवाब देता हूं कि मुझे बोलने की ज़रूरत पड़ रही है क्योंकि तुम चुप हो। मैं तो हर तरह की फ़िल्में देखने जाता हूं तुम लोग क्यों नहीं आते, तुम लोगों ने खुद को एक रूढ़ि में बांध लिया है। मगर मैं तो हर तरह की फिल्में बना रहा हूं और क्वीयर समुदाय को दुनिया के सामने लाना चाहता हूं। ये अच्छी बात है कि इस क्षेत्र में महिलाएं आगे आ रही हैं और एक्टर, निर्देशक के रूप में काम कर रही हैं। तो ऐसे में क्वीयर समुदाय के लोगों को भी आगे लाने के लिए बॉलीवुड को भी आगे आना होगा। यहां हर साल 2000 से ज़्यादा फिल्में बनती हैं तो क्वीयर समुदाय पर तो पांच फ़िल्में तक नहीं बन पाती। समस्या ये है कि बॉलीवुड भी उसी समाज से आता है जहां क्वीयर समुदाय को समाज के लिए अच्छा नहीं माना जाता। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः ‘माई ब्रदर निखिल’ बनाने के बारे में बारे में बताइए। इसका ख्याल आपको कैसे आया?

ओनिरः उस दौरान मैं एक डॉक्यूमेंट्री शूट कर रहा था जो डोमिनिक डिसूजा के विषय में थी। वह एक एड्स से पीड़ित एक्टिविस्ट थे। इस डॉक्यूमेंट्री को बनाते समय मुझे माय ब्रदर निखिल बनाने का ख्याल आया। डोमिनिक डिसूजा का चेहरा, उनके काम ने मुझे काफी प्रभावित किया। मेरे दोस्त, सह निर्देशक संजय सूरी ने मुझे सलाह दी कि क्यों न हम इस विषय से जुड़ी एक कहानी खुद लिखे जो ज़्यादा बजट की न हो। तो जब मैं डॉक्यूमेंट्री बना रहा था तो मुझे डोमिनिक की जेंडर आइडेंडिटी का पूरा ज्ञान नहीं मिल पा रहा था, उसके काम का तो साक्ष्य मिल रहा था मगर बहुत कुछ था जो मौजूद नहीं था। इसलिए मुझे कहानी में बदलाव भी करना था। आज कल लोग पूर्वाग्रहों से खासे प्रभावित हैं तो डोमिनिक गोवा के थे, ईसाई थे, तो ऐसे में लोग अनुमान लगाने लगते है कि गोवा जाना और क्रिश्चियन होना भी एड्स की वजह बन सकता है। ऐसे पूर्वाग्रहों से समाज को बचाने के लिए मैंने कहानी में बदलाव कर के बनाने की सोची। डॉक्यूमेंट्री बनाने के समय मुझे यही ख्याल आया कि मैंने कभी ऐसा कुछ बनाया नहीं, कुछ किया नहीं अब करने का समय है। तो इस पर काम किया जा सकता है। मैंने ये बात अपनी बहन से साझा की इसके बाद उसका सोच कर ही मैंने कहानी का नाम माय ब्रदर निखिल रखा। कई सालों बाद 2022 में मेरी बायोग्राफी ‘आई एम ओनिर एंड आई एम गेकिताब भी आई। इस किताब का मूल भाग मेरी बहन ने ही लिखा है। 

तस्वीर साभारः Vogue

फेमिनिज़म इन इंडियाः आपकी हर फ़िल्म में सोशल मैसेज रहा है। फिल्म ‘आई एम’ के लिए आपको नैशनल अवार्ड भी दिया गया। फिर ‘विडो ऑफ वृंदावन’ में भी आपने विधवा जीवन को दिखाया है। फिल्मों के ज़रिये सामाजिक बदलाव को आप किस तरह से देखते हैं? 

ओनिरः मेरे ख्याल से इस फ़िल्म में एक बहुत ही प्रभावशाली संदेश है। ‘आई एम’ में जीवन के दोनों आयाम देखने को मिलते हैं चाहे वो नकरात्मक हो या सकरात्मक। बॉलीवुड में कई फ़िल्में आती हैं जिनमें हिंसा को काफी प्रोत्साहन दिया जा रहा है। हिंसा को फ़िल्म के लिए मनोरंजक कहा जा रहा है। फ़िल्म में महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा को लोग प्यार का नाम देते हैं, जैसे कोई पति अपनी पत्नी को थप्पड़ मार देता है तो उसको प्यार कहा जा रहा है। नहीं, ये प्यार नहीं है। ये घरेलू हिंसा को बढ़ावा देने जैसा है। बॉलीवुड में अच्छी कहानी को कम और आर्थिक रूप से मज़बूती को अधिक प्राथमिकता दी जाती है। मैं बदलाव चाहता हूं। 

आज कल समाज में काफी हिंसा देखने को मिल रही है। जो बहुत ही तकलीफदेह है। फिलहाल बॉलीवुड में भी एक नया एजेंडा चलाया जाने लगा है। जो समाज में नफरत को और बढ़ावा दे रहा है। मुझे दुख होता है कि समाज को सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाला सिनेमा आज इस ओहदे पर पहुंच गया है जहां उसे केवल पैसे से मतलब है। रही बात क्वीयर कैरेक्टर की तो पहले की मूवी में उनको सिर्फ फनी दिखाया जाता था, या सिर्फ आइटम नंबर के लिए उनको लिया जाता था। अब कहीं न कहीं उनको भी अपनी बात कहने का मौका मिल रहा है। मैं ये भी कहना चाहूंगा कि अभी आगे और भी बदलाव देखने को ज़रूर मिलेंगे क्योंकि हम सब में कुछ न कुछ ज़रूर अच्छा है तो बदलाव ज़रूर आएगा।

फेमिनिज़म इन इंडियाः सिनेमा में एक बड़ा फैक्टर होता है कि सिनेमा जनता को पसंद आए और रेवन्यू भी कमाए। क्या आपको लगता है कि बॉलीवुड में कमर्शियल सिनेमा में होमोसेक्सुअलिटी को दिखाया जा सकता है? क्या जनता इन्हें पसंद करेगी? अगर हाँ, तो इस तरह के सिनेमा को हम कैसे बना सकते हैं?

ओनिरः अभी जो क्वीयर समुदाय की फ़िल्म बन रही हैं उनमें ज़्यादातर यही दिखाया जा रहा है कि हेट्रोसेक्सुअल समाज हमको किस तरह से खुद को जोड़ेगा, हमारी समस्याओं से अवगत होगा। ऐसे ही जब पहले महिला केंद्रित फिल्में बनती थी तो वो कम बजट में बनती थी क्योंकि इसके लिए ऑडिएंस कम थे, महिलाएं घर में रहती थीं, मगर अब महिलाओं का दायरा बढ़ रहा है। ऐसी फिल्में आने लगी हैं जो महिलाओं के विकास की बात कर रही हैं। हाल ही में आई ‘लापता लेडीज़’ भी बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रही है। अब बात करें ओटीटी की यो यहां लोग काफी फिल्में देखना पसंद करते हैं क्योंकि यहां उनको प्राइवेसी भी मिल जाती है जो वो देखना चाहते हैं तो देख सकते हैं। उनको डर नहीं कि कौन देख रहा है। अब अगर क्वीयर समुदाय के लिए फ़िल्में बनती हैं और ओटीटी पर रिलीज़ होंगी तो वो ऐसी फिल्में देख सकते हैं जिनको बाहर देखने से उनको डर लगता है कि ये ऐसी फ़िल्म देखने जा रहा है शायद ये भी इसी समुदाय का है। अब अगर मैं ‘दिलवाले’ फ़िल्म देखने जाऊंगा तो लोग ये तो नहीं कहेंगे कि ओनिर अब स्ट्रेट हो गया, मगर ये लोग इतना डरते हैं ऐसी फिल्मों से की अगर ये कोई गे फिल्में देखने जाएंगे तो लोग बोलेंगे को ये गे बन गया। तो लोगों में इस बात को लेकर काफी डर है। 

तस्वीर साभारः Onir’s Instagram

फेमिनिज़म इन इंडियाः इंटरनैशलन सिनेमा में होमोसेक्सुलिटी को काफी संवेदनशील तरीके से दिखा जा रहा है। इसके लिए हिंदी सिनेमा को किस तरह के कदम उठाने होंगे?

ओनिरः हर साल जब आप ऑस्कर देखेंगे तो कोई न कोई क्वीयर समुदाय का हिस्सा लेते हुए ज़रूर नज़र आएगा। ऐसे ही नैशनल फ़िल्म फेस्टिवल में भी देखा जाता रहा है। मेरी फिल्म ‘माय ब्रदर निखिल’ को 20वें मिलन इंटरनैशनल लेस्बियन एंड गे फ़िल्म फेस्टिवल में बेस्ट फ़िल्म का अवार्ड दिया गया। इस फ़िल्म को रिवर टू रिवर संस्था से भी अवार्ड मिल चुका है जो एक इटली की संस्था है। तो ये बात सच है कि अंतरराष्ट्रीय सिनेमा स्तर पर भी समाज क्वीयर समुदाय को कहीं न कहीं स्पोर्ट कर रहा है। अंतराष्ट्रीय स्तर मेरी हर फ़िल्म को सराहा गया मगर बॉलीवुड में न तो मुझे पहचान मिली और न मेरे काम को। वर्ष 2018 में जब क्वीयर समुदाय के पक्ष में फैसला आया तो भारत की दर्जनों संस्थाओं ने इस विषय पर बढ़ चढ़ कर लिखा, इसको सभी जगह मशहूर किया गया, मगर जो लोगों तक सबसे जल्दी और प्रभावशाली माध्यम सिनेमा मौजूद है तो उसका इस्तेमाल क्यों नहीं हुआ। बाहर के देश में जब भी कभी ऐसे फैसले आते हैं तो उसमें फ़िल्मों का सहारा लिया जाता है ताकि बाकी के लोग भी खुद को इससे जोड़ पाएं। 20 सालों से मैं सिनेमा से जुड़ा हुआ हूं मगर मुझे वो पहचान नहीं मिली, मुझे आज भी लोगों को बताना पड़ता है जद्दोजहद करनी पड़ती है कि मुझे ये फ़िल्म बनानी है। किसी के प्यार को पर्दे पर उतारना है, उनकी समानता की बात करनी है, यहां मुझे काफी मेहनत करनी पड़ती है मगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस विषय के लिए अधिक प्रोत्साहन की ज़रूरत नहीं पड़ती है। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः कौन-कौन से या किस तरह के उपाए हैं, जो बॉलीवुड को तत्काल लेंगे होंगे जिससे LGBTQIA+ समुदाय का प्रतिनिधत्व बेहतर और संवेदनशील तरीके से हो।

ओनिरः क्वीयर समुदाय के लिए बॉलीवुड में कई ऐसे आयाम हैं जिन पर खुल कर बात करनी चाहिए। जैसे डारेक्टर 100 करोड़ की फ़िल्म बनाते हैं, आप इतने बड़े बजट की फ़िल्म न बना कर 5 करोड़ की बना लो जो पैसे के लिए नहीं बल्कि इंसानियत के लिए, अच्छे कर्म के लिए है। समाज में स्टेचू बनाए जा रहे हैं तो इस चीज़ के लिए भी काम करिए जो समानता की बात करते हों। फ़िलहाल बॉलीवुड में 300 करोड़ की फ़िल्म आई ‘बड़े मियां छोटे मियां’ जिसने केवल 50 करोड़ कमाए, ऐसे ही ‘मैदान’ 150 करोड़ में बनी जिसने 50 करोड़ कमाए। वहीं मैं अगर 3 करोड़ बजट की फ़िल्म लेकर लोगों के पास जाऊं तो लोग चिंता में पड़ जाते हैं। बोलते हैं इसका रेकवरिंग कैसे होगा, क्या कहानी है, लोग देखेंगे या नहीं। जब वो 300 करोड़ की फ़िल्म बनाते हैं तब क्यों नहीं पूछते ये सब। मेरी फ़िल्म इंसान के लिए होती हैं जो सच्ची कहानी पर आधारित होती हैं आप उसके लिए तीन करोड़ नहीं दे पाते, कमी तो आप में है। आप समाज में बदलाव ही नहीं चाहते। 

“देश के क्वीयर युवा को यही बताना चाहूंगा कि आत्मनिर्भर बनें और अपने करियर पर फोकस करें। जब आप अपने पैरों पर खड़े हो जाएं उसके बाद अपने माता-पिता के पास जाएं जहां अब आपको किसी भी चीज़ को खोने का डर नहीं होगा। परिवार केवल वो नहीं जहां आपका खूनी रिश्ता हो, परिवार आपके दोस्त भी हो सकते हैं और आपके समुदाय के समर्थन भी।”

फेमिनिज़म इन इंडियाः आप पब्लिक डोमेन में और खुल कर अपनी कम्युनिटी को रिप्रेंजेट करते हैं। आप कम्युनिटी के यंग लोगों को क्या कहना चाहेंगे जिससे उन्हें मदद मिले या जीवन में अपने जीवन को बेहतर बना सकें। साथ ही मेंटल प्रेशर और सोशल प्रेशर से किस तरह हैंडल करें?

ओनिरः सबसे पहले तो अपनी लैंगिकता की पहचान करनी ज़रूरी है और हमको लोगों को ये बताने की भी ज़रूरत नहीं कि हम इस समुदाय से हैं। हाँ, मगर जब ज़रूरत पड़े तो वहां अपनी पहचान से पीछे नहीं हटना, मगर बाकी लोग क्यों हमको बताए कि आप इस समुदाय से हैं या उस समुदाय से हैं। ये हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है कि हम क्या हैं? सबसे पहले कोशिश करनी चाहिए कि हम आत्मनिर्भर बनें। ये जो फैमिली का डर है इसको अपने अंदर से निकालना ज़रूरी है। क्वीयर समुदाय में ये बहुत बार देखा गया है कि अगर मेरे से मेरा परिवार दूर होगा तो मुझे पैसे मिलने बंद हो जाएंगे, घर चला जाएगा, प्रॉपर्टी में कुछ नहीं मिलेगा। तो ये घर और परिवार का मोह छोड़ना पड़ेगा, चूंकि ज़्यादातर मामलों में परिवार क्वीयर बच्चों को माता-पिता अपनाते नहीं हैं। यदि वो आपसे सच में प्यार करते हैं तो आपको आपकी सेक्सुअलिटी के साथ ही अपनाने को तैयार हो जाएंगे। 

सबसे पहले देश के क्वीयर युवा को यही बताना चाहूंगा कि आत्मनिर्भर बनें और अपने करियर पर फोकस करें। जब आप अपने पैरों पर खड़े हो जाएं उसके बाद अपने माता-पिता के पास जाएं जहां अब आपको किसी भी चीज़ को खोने का डर नहीं होगा। परिवार केवल वो नहीं जहां आपका खूनी रिश्ता हो, परिवार आपके दोस्त भी हो सकते हैं और आपके समुदाय के समर्थन भी। वहीं क्वीयर लोग परिवार के दबाव में आकर हेट्रोसेक्शुअल लोगों से शादी कर लेते हैं। ऐसा करना उनके लिए भी घातक साबित होता है और जिसके साथ उन्होंने शादी की उसके लिए भी। अपने मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा रखने के लिए आत्मनिर्भर बनना सबसे ज़रूरी है। युवा के लिए ये भी संदेश देना चाहता हूं कि आप केवल इवेंट्स और प्राइड परेड में नाचने गाने तक सीमित न रहें बल्कि ज़मीनी स्तर पर भी काम करें, वोटिंग करें ऐसा प्रतिनिधि चुनें जो आपके समुदाय के विकास के लिए काम करे।

तस्वीर साभारः India Today

फेमिनिज़म इन इंडियाः आखिर में वाले दिनों में आप किन प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं? आप कुछ साझा करना चाहेंगे।

ओनिरः आने वाले में मैं ‘वी आर’ नाम की मूवी बनाने जा रहा हूं जो ‘आई एम’ की सीक्वल होगी। फंड के लिए इंतज़ाम कर रहा हूं। मैं चाहता हूं देश के जितने भी क्वीयर समुदाय की संस्था हैं वो भी सिनेमा के साथ समुदाय की बात को आगे लाने में मदद करें। सिनेमा की सहायता से समुदाय के लोगों को बताना है कि हम भी खुल कर जीना चाहते हैं, आज़ादी के साथ। कभी भी खुद को छुपा कर रखने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। खुल कर सामने आईये। लोग अक्सर बोलते हैं कि क्वीयर समुदाय के लोगों की ये खुद चॉइस होती है कि वो खुद को कैद में रखें, मगर असलियत ये नहीं है। वो उनकी चॉइस नहीं मजबूरी है। 


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