यह कहा जाता है कि न्याय में देरी करना न्याय न देना है और जल्दबाजी में किया गया न्याय दफन कर देना है। ऐसे में बिना देरी और जल्दबाजी के न्याय के लक्ष्य को पूरा करने के लिए न्याय व्यवस्था को सही ढंग से और सुचारु रूप से कार्य करना आवश्यक है। एक व्यक्ति जिसके साथ कुछ अन्याय हुआ है और वह उस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने की कोशिश करता है, उसके लिए न्याय में देरी होना अन्याय के ऊपर अन्याय है। यह अन्याय और भयंकर तब हो जाता है जबकि शिकायतकर्ता कोई यौन शोषण सर्वाइवर हो या अन्य किसी प्रकार की हिंसा से पीड़ित हो। हाल ही में जारी रिपोर्ट अनुसार सुप्रीम कोर्ट में 2023 के अंत तक, 80,439 मामले लंबित थे। 2023 में जनवरी के अंत तक सुप्रीम कोर्ट में यह आंकड़ा 78,400 लंबित मामलों का था। वहीं 2022 में 70,101 मामले लंबित थे।
हालांकि इस वर्ष लंबित मामलों में पिछले वर्षों की तुलना में कम वृद्धि हुई है। जनवरी 2022 से 2023 तक लंबित मामलों में लगभग 8,000 से अधिक की वृद्धि हुई थी। इसका एक मुख्य कारण यह भी है कि न्यायालय कोविड-19 महामारी के नतीजों से जूझ रहा था, जिसने न्यायालय के कामकाज को काफी हद तक प्रभावित किया था। जनवरी 2023 से 2024 तक लंबित मामलों में पिछले पांच वर्षों में न्यायालय द्वारा सबसे कम वृद्धि देखी गई है। सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई में शीर्ष अदालत ने 20 से अधिक संविधान पीठ मामलों की सुनवाई की और कम से कम 18 मामलों में फैसले सुनाए। ऊपर दिए गए आंकड़ें केवल उच्चतम न्यायालय के हैं। वहीं देश की विभिन्न अदालतों में लंबित मामले 2024 में पांच करोड़ का आंकड़ा पार कर चुके हैं।
पेंडिंग मामलों से भरे कोर्ट्स
एक व्यक्ति की न्याय पाने की सीढ़ी के सभी पायदान लंबित मामलों से घिरे हुए हैं। देश की सबसे निचली अदालत से लेकर सबसे ऊपरी अदालत तक कोई भी संस्थान ऐसा नहीं है, जहां लाखों मामलें पेंडिंग में न पड़े हों। स्थिति तब और बदल जाती है जब न्याय मांगने वाला व्यक्ति महिला हो। एक महिला जिसके साथ पहले ही कुछ अपराध हुआ हो, वह समाज की पितृसत्तात्मक बेड़ियों को तोड़कर और सारी मुश्किलों को झेलकर न्यायालय में न्याय पाने की गुहार लगाती है। जब यह न्याय समय पर न मिलकर पेंडिंग में चला जाता है तो इससे अटरथिक बोझ, तनाव और निराशा बढ़ती है। स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर महिलाओं के खिलाफ अपराध लगातार बढ़ रहे हैं।
महिला अपराध एक विश्वव्यापी समस्या है। तमाम प्रगति के बावजूद, दुनिया भर में महिलाएं भयानक अत्याचारों का शिकार हो रही हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) डेटा के अनुसार 2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के चौंका देने वाले 4,45,256 मामले भारत में दर्ज किये गए, यानी प्रति घंटे लगभग 51 एफआईआर पुलिस थानों में दर्ज की गयीं। महिलाओं के खिलाफ अपराध ने 2021 से उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की, जिसमें 4,28,278 मामले दर्ज किए गए थे, और 2020 में, जिसमें 3,71,503 मामले दर्ज किए गए थे।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा में बढ़ोतरी और अनोखी चुनौतियां
राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) ने पिछले साल महिलाओं के खिलाफ अपराध की 28,811 शिकायतें दर्ज कीं। इनमें से लगभग 55फीसद उत्तर प्रदेश से थीं। एनसीडब्ल्यू के आंकड़ों के मुताबिक, सबसे ज्यादा शिकायतें (8,540) गरिमा का अधिकार (राइट टू डिग्निटी) श्रेणी में प्राप्त हुईं, जिसमें घरेलू हिंसा के अलावा अन्य उत्पीड़न शामिल हैं। इसके बाद घरेलू हिंसा की 6,274 शिकायतें आईं। आंकड़ों के अनुसार दहेज उत्पीड़न की 4,797 शिकायतें, छेड़छाड़ की 2,349 शिकायतें, महिलाओं के प्रति पुलिस की उदासीनता की 1,618 शिकायतें और बलात्कार तथा बलात्कार के प्रयास की 1,537 शिकायतें रहीं।
जो महिलाएं किसी अपराध का सामना करती हैं, उन्हें अनूठी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसमें कलंक या प्रतिशोध के डर के कारण अपराधों की रिपोर्ट करने में कठिनाई और कानून प्रवर्तन और आपराधिक न्याय के अन्य सहायकों की ओर से संवेदनशीलता और समझ की कमी शामिल है। इसके अतिरिक्त, इन महिलाओं में लगातार यह डर बना रहता है कि सिस्टम घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न जैसे उनके द्वारा अनुभव किए गए विशिष्ट प्रकार के अपराधों को पहचानने और उनका समाधान करने में विफल हो सकता है, और नतीजन उन्हें दोषी ठहराया जा सकता है।
धीमी न्यायप्रणाली क्यों महिलाओं के लिए ज्यादा मुश्किल है
यह सच्चाई है कि भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली अक्सर धीमी, अप्रभावी और भ्रष्टाचार से ग्रस्त है, जिससे महिलाओं के लिए न्याय पाना और सुरक्षा प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा, जो महिलाएं आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रतिवादी हैं, उन्हें अक्सर भेदभाव का सामना करना पड़ता है और या तो पैसे की कमी या पारिवारिक समर्थन की कमी के कारण पर्याप्त कानूनी प्रतिनिधित्व तक पहुंच की कमी होती है, ये सभी उनके सामने आने वाली कठिनाइयों को और बढ़ा देते हैं। परिणामस्वरूप न्यायालय में उनके मामले लंबे खिंच जाते हैं। हालांकि भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा कई सालों से महत्वपूर्ण चिंता का विषय रहे हैं। हाल के वर्षों में प्रगति के बावजूद, भारत में महिलाओं को न्याय तक पहुँचने में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिसमें लिंग आधारित हिंसा, कानून के तहत असमान व्यवहार और भेदभाव शामिल हैं।
कई कानूनी प्रणालियों में न्याय करने में देरी बहुत आम है। अदालती मामले महीनों या वर्षों और दशकों तक खिंचते हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिवादियों और पीड़ितों को समान रूप से पीड़ा होती है। अपराधों के पीड़ितों के लिए, न्याय के लिए लंबा इंतजार विशेष रूप से दर्दनाक हो सकता है। उन्हें लग सकता है कि सिस्टम उनकी पीड़ा को गंभीरता से नहीं ले रहा है या आरोपी बहुत हल्के में छूट रहा है। लंबी कानूनी कार्यवाही के दौरान प्रतिवादियों को भी कष्ट झेलना पड़ता है, कई बार उनका जीवन खतरे में पड़ जाता है और उनकी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है, भले ही वे अंततः निर्दोष पाए जाएं।
क्या न्यायायिक प्रक्रिया सभी जेंडर के लिए समान है
एक हालिया अध्ययन ‘डज़ विक्टिम जेंडर मैटर फॉर जस्टिस डिलीवरी‘ में हरियाणा में महिलाओं के मामलों पर पुलिस और अदालत की प्रतिक्रियाओं पर रिसर्च की गयी। इसमें पाया गया कि न्याय प्रणाली में हर स्तर पर महिलाओं के साथ पुरुषों से अलग व्यवहार किया जाता है। निर्विकार जस्सल ने भारतीय संदर्भ में इन सवालों की पड़ताल की और यह नयी स्टडी द्वारा लोगों के सामने कुछ खुलासे किए। स्टडी में 400,000 से अधिक पुलिस फाइलों के व्यक्तिगत स्तर के आधिकारिक रिकॉर्ड के आधार पर अपना लेख लिखा है। वह आपराधिक न्याय प्रणाली के चार चरणों का अध्ययन करते हैं, पुलिस पंजीकरण, पुलिस जांच, अदालती मुकदमे से लेकर अदालत के फैसले तक फाइलों की यात्रा का पता लगाते हैं।
इस अध्ययन में पाया गया कि महिलाओं की न्याय प्रणाली तक पहुंच कठिन है। पुलिस स्टेशन व्यस्त हैं और अदालतों में काफी देरी हो रही है। परिणामस्वरूप, 60 फीसद से भी कम मामलों में दोष सिद्ध हो पाता है। इसमें महिलाओं का हाल तो और भी बुरा है। पुलिस स्टेशनों पर महिलाओं को शिकायत दर्ज कराने के लिए पुरुषों की तुलना में ज्यादा इंतजार करना पड़ता है। यदि कोई महिला किसी पुरुष के साथ है, तो प्रक्रिया तेज़ होती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति पुलिस स्टेशन जाता है, तो उसकी शिकायत 30 मिनट में दर्ज हो सकती है। लेकिन अकेली महिला को इसी प्रक्रिया के लिए 1-2 घंटे तक इंतजार करना पड़ सकता है। जिन अपराधों में महिलाएं शिकायत दर्ज कराती हैं, पुलिस को जांच में अधिक समय लगता है। महिलाओं द्वारा दायर कम मामले पुलिस द्वारा सुनवाई के लिए अदालतों में भेजे जाते हैं।
उदाहरण के लिए, महिलाओं द्वारा दायर हत्या के 100 मामलों में से शायद केवल 50 ही अदालत तक पहुंच पाते हैं। लेकिन पुरुषों द्वारा हत्या के 100 मामलों में से 80 मामले अदालत तक पहुंच सकते हैं। महिला शिकायतकर्ताओं के अदालती मामलों में अधिक देरी, अधिक बरी होने और सजा की दर कम होती है। इसका मतलब यह है कि महिलाओं द्वारा दायर मामलों की तुलना में दोषी पाए गए और दंडित किए गए पुरुषों की संख्या अधिक है। पुरुषों द्वारा चोरी के 100 मामलों में से 50 पुरुषों को दोषी ठहराया जा सकता है। लेकिन चोरी के 100 मामलों में केवल 30 महिलाओं को ही सजा हो सकी।
अध्ययन के अनुसार, महिलाओं को वकील नियुक्त करना या अदालत में अपने मामलों की नियमित पैरवी करना कठिन लगता है। उन्हें घर की ज़िम्मेदारियों और लंबी दूरी की यात्रा से संबंधित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जब कोई कानूनी प्रणाली समय पर न्याय प्रदान करने में विफल हो जाती है, तो इससे निराशा, व्यवस्था में विश्वास की हानि और यहां तक कि शिकायतकर्ता के साथ और भी अधिक अन्याय होता है। हालांकि निर्णय लेने में जल्दबाजी से गलत और अन्यायपूर्ण परिणाम भी हो सकते हैं। न्याय प्रणाली में सुधार और महिलाओं के लिए न्याय तक पहुंच को सरल और सुगम बनाना समय की मांग है। न्याय में देरी को समाप्त करने के लिए न्याय प्रणाली को सही ढंग से और सुचारु रूप से कार्य करना आवश्यक है। यह न केवल न्याय के लक्ष्य को पूरा करेगा बल्कि समाज में विश्वास और समता को भी बढ़ावा देगा।