भारत में आपराधिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी एक महत्वपूर्ण और जटिल विषय है। महिला आपराधिकता का विश्लेषण करते समय कई सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारकों को ध्यान में रखना जरूरी है। समाज में महिलाओं की भूमिका पारंपरिक रूप से सीमित रही है, और इसके चलते उनके आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने को लेकर एक विशेष नजरिया विकसित हुआ है। पुरुषों के बराबर कानूनी दर्जा साझा करने वाली महिलाएं किसी भी तरह से शैक्षिक, विशेषकर सामाजिक और आर्थिक रूप से पुरुषों के समान नहीं हैं। न ही वे पुरुषों के मुकाबले कहीं भी आधिकारिक और खुद रिपोर्ट की गई अपराध दर प्रदर्शित करती हैं। दुनिया भर में आम तौर पर गिरफ़्तारियों में लैंगिक अंतर पाया जाता है। भारत में गिरफ़्तारियों में कुल पुरुष और महिलाओं में अनुपात लगभग 20:1 है।
अपराध को मुख्य रूप से पुरुषों का किया जाने वाला माना जाता है। एक महिला को आम तौर पर सांस्कृतिक और परिवरिक परंपराओं, रूढ़ियों, नैतिकता के अधीन रहना होता है और उसे पारिवार में सामंजस्य बनाने वाली और सामाजिक मानदंडों की संरक्षक के रूप में देखा जाता है। महिलाओं की स्थिति अपने परिवारों की देखभाल करने से लेकर अपनी खुद की पहचान स्थापित करने तक विकसित हुई है। समय बीतने के साथ महिलाओं के अपराध बढ़े हैं, लेकिन महिलाओं के प्रति कानून के नजरिए की बात करें, तो इसमें बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के कारण महिलाओं की आपराधिक प्रवृत्ति को लंबे समय से खारिज किया जाता रहा है। सामाजिकता की बात करें, तो रूढ़ियों, सुरक्षा और एक्सपोज़र की कमी के कारण महिलाओं को उन लोगों के साथ मेलजोल करने के अवसर कम मिलते हैं जो परिवार के सदस्य नहीं हैं।
महिलाओं की आपराधिकता पर बात की ज़रूरत
हालांकि अपराध करने वाली महिलाओं का अनुपात बढ़ा है। लेकिन, अपराध में महिलाओं की भागीदारी के बावजूद, सामाजिक शोधकर्ताओं और नीति निर्माण करने वालों ने महिलाओं के किए गए अपराधों के पैटर्न को समझने पर बहुत कम ध्यान दिया है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2014 की रिपोर्ट अनुसार, हालांकि महिलाएं कम अपराध करती हैं, पर उन्हें केवल आईपीसी के तहत अपराधों के लिए गिरफ्तार किया जाता है। महिलाओं के अपराध की तरह ही, महिलाओं की जेल में जाने और महिला कैदियों के अधिकारों को भी नीति निर्माताओं और अधिकारियों द्वारा पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है। हालांकि कानूनी रूप से महिलाओं की सुरक्षा की बात व्यापक स्तर पर हो रही है, पर महिला कैदियों के खिलाफ़ हिरासत में अपराध भी हमेशा से होते आए हैं और बढ़े हैं, जिसपर बातचीत और अध्ययन करना जरूरी है।
महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और अपराध पर चर्चा
अपराध और आपराधिक कानून और इनसे जुड़ी समझ कई बातों पर निर्भर करती है जिनमें व्यक्ति का शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और जातिगत अवस्था महत्वपूर्ण रूप से जुड़े हैं। शिक्षा व्यक्ति को सही और गलत में अंतर करने का अवसर देती है। साथ ही अपराध से बचने की क्षमता भी देती है। शिक्षा सही आजीविका कमाने के लिए कौशल भी प्रदान करती है। इसलिए, इसका प्रयोग अपराध की रोकथाम के साधन के रूप में किया जाता है। निरक्षरता अपराधों के पीछे छिपी समस्या है और देश में उच्च शिक्षा में महिलाओं के प्रतिशत में कमी इस दृष्टिकोण का समर्थन करती है।
अध्ययनों के अनुसार, भारत में अधिकांश महिला कैदियों की शैक्षिक स्थिति कम है। फिरोजपुर, जयपुर और वाराणसी की जेलों में महिला कैदियों पर एक शोध के मुताबिक इन जेलों में अधिकांश महिलाएं निरक्षर और आर्थिक रूप से पिछड़ी थीं। शोध के मुताबिक फिरोजपुर में 67.7 प्रतिशत निरक्षर महिलाएं थीं, वाराणसी जेल में 71 प्रतिशत और जयपुर में 61.3 प्रतिशत निरक्षर महिलाएं थीं। किसी व्यक्ति की नौकरी समाज में उसकी स्थिति को दिखाती है।
हमारे पितृसत्तात्मक समाज में आज भी पुरुष को ही कमाने वाला माना जाता है और महिलाओं के पास करियर की कमी होती है जिसे सिर्फ लोगों का पालन-पोषण करना है। शोध के मुताबिक फिरोजपुर जेल में 54.7 प्रतिशत उत्तरदाता मजदूर या घरेलू कामगार थीं। वहीं वाराणसी में 7.14 प्रतिशत और जयपुर में 24.6 प्रतिशत यही काम कर रहे थे। वाराणसी जेल में 78.57 प्रतिशत महिला अपराधी हाउसवाइफ थीं और जयपुर में 38 प्रतिशत और फिरोजपुर में 19.3 प्रतिशत हाउसवाइफ थीं। गरीबी अलग-अलग हिंसा का कारण बनती है और कई बार हिंसा को बढ़ावा देती है।
चूंकि हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं सबसे नीचे हैं, इसलिए पुरुषों की तुलना में महिलाओं के शोषित होने का खतरा कहीं अधिक होता है। ‘महिलाओं के लिए हिरासत प्रावधान’- कर्नाटक केंद्रीय जेल के एक अध्ययन के अनुसार कुल महिला अपराधियों में से 95 प्रतिशत अपराधी शादीशुदा थीं और सिर्फ 5 फीसद अविवाहित थीं। इसमें से 3 फीसद पहली बार अपराध करने वाली थीं और केवल 7 फीसद ने एक से अधिक बार अपराध किया था। शोध के पता चलता है कि महिलाओं के अपराध की प्रकृति के मुताबिक 50 फीसद महिला कैदियों को आर्थिक और 31 फीसद को सामाजिक कारणों से जेल में डाला गया था।
महिलाओं के अपराध में पितृसत्ता की भूमिका
वाराणसी, जयपुर और फिरोजपुर के जेलों पर किए गए शोध में पाया गया कि महिला अपराधियों ने एक साथी के साथ मिलकर हत्या का अपराध किया था, जिसमें दहेज हत्या के मामले सबसे ज्यादा थे। हालांकि, इनमें से अधिकांश पहली बार अपराध करने वाले हैं। वाराणसी जेल में हत्या के मामलों में दोषी ठहराई गई महिलाओं में 92 फीसद महिलाएं थीं, जिनमें से 78.57 फीसद दहेज-संबंधी दुल्हन की हत्या के लिए दोषी पाई गईं, 14.28 फीसद अपने देवर की हत्या के लिए दोषी पाई गईं, और सिर्फ 7.14 फीसद को अन्य अपराधों के लिए दोषी पाया गया। ये मामले देखने पर जरूर लगता है कि महिलाएं पैसे के लिए दूसरी महिलाओं की हत्या कर रही हैं। लेकिन, दहेज लेन-देन अपनेआप में एक बहुत ही पितृसत्तात्मक समस्या है, जिसमें महिलाएं मोहरे के रूप में इस्तेमाल हो रही हैं।
यहां सास पारिवारिक सत्ता और शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है और अनजाने में वह खुद पितृसत्ता का हिस्सा है, जिसके कारण वो महिलाओं के खिलाफ़ अपराध और महिलाओं द्वारा किए जाने वाले अपराध दोनों के लिए जिम्मेदार है। भारत में महिलाओं की गिरफ्तारी का दूसरा सबसे बड़ा कारण बाल विवाह निरोधक अधिनियम पाया गया, जिसके तहत साल 1996 में 32 प्रतिशत महिलाओं को गिरफ्तार किया गया था। साल 2000 में भी यह महिलाओं की गिरफ्तारी का एक महत्वपूर्ण कारण रहा। ये गौर करने वाली बात है कि परिवार में ऐसे नियम हालांकि पुरुष स्थापित करते हैं जो आमतौर परिवार के मुखिया होते हैं, पर इसे लागू महिलाओं द्वारा की जाती है।
परिवार, समाज से अंतर्संबंध और महिलाओं के अपराध
फिरोजपुर जेल में जब दोषी महिलाओं से अपराध करने का कारण पूछा गया तो 48.3 प्रतिशत ने परिवार, 19.3 प्रतिशत ने दोस्त और 22.5 प्रतिशत ने गरीबी का हवाला दिया। करीब 10 प्रतिशत ने सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया। जयपुर जेल में दोषी महिलाओं ने शराबी और बेरोजगार पति, गरीबी, पति का दूसरी महिला से संबंध, ससुराल वालों की प्रताड़ना और चरित्रहीन बहू जैसे कारण बताए। हमारे देश में अंग्रेजों के बनाए गए ब्राह्मणवादी आपराधिक न्याय प्रणाली अबतक चल रही है जिसमें मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी हाशिए के समुदायों को पुलिस से भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ईपीडब्ल्यू के एक रिपोर्ट अनुसार कई ऐसे मामले पाए गए जिनमें एक ही व्यक्ति पर साल में कई बार इक्साइज़ अपराधों के तहत मामला दर्ज किया गया। पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर यह संख्या ज़्यादा थी।
हाशिये के समुदाय क्या सचमुच आदतन अपराधी हैं
ईपीडब्ल्यू के अनुसार कुछ महिलाओं को साल 2018-20 के बीच 23-28 बार गिरफ़्तार किया और उन्हें आदतन अपराधी के रूप में लेबल किया गया था। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के साल 2018 और 2020 के बीच घुमंतू जनजाति समुदाय कुचबंधिया की महिलाओं से जुड़े मामलों में दिए गए जमानत आदेशों के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि हर तीन में से दो मामलों में जमानत अस्वीकार कर दी गई थी, जहां महिला एक ‘आदतन अपराधी’ बताया गया। जमानत के एक मामले में, ‘आदतन अपराधी’ की स्थिति के कारण महिला को कठोर जमानत शर्तों का सामना करना पड़ा, जबकि महिला पहले ही 193 दिन हिरासत में बिता चुकी थी। ‘आदतन अपराधी’ का रिकॉर्ड बनाना हाशिए के समुदायों के खिलाफ़ संस्थागत और प्रक्रियात्मक हिंसा का एक उदाहरण है जहां अपराधी महिला को हिंसा का सामना करना पड़ता है। एनसीआरबी के 2020 के आंकड़ों के अनुसार सभी कैदियों में से 66 फीसद अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणियों से हैं।
नारीवादियों का मानना है कि सभी पारंपरिक सिद्धांत पुरुषों के अनुभव पर आधारित हैं क्योंकि अपराध विज्ञान पर पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है। पितृसत्ता में महिलाओं को उनके जेंडर के आधार पर अधीन रहने का अनुभव होता है और यह अधीनता अपराध को जन्म देती है। पितृसत्ता के कारण पुरुषों और महिलाओं के लिए दोहरे मानदंड अपनाए जाते हैं और अक्सर महिला अपराधी खुद भी दुर्व्यवहार और हिंसा का सामना करती हैं। इसलिए पितृसत्ता महिलाओं के खिलाफ़ और महिलाओं द्वारा किए जाने वाले अपराध दोनों के लिए जिम्मेदार है जिसके लिए सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और संस्थागत रूप में बदलाव की जरूरत है।