हाल ही में ओडिशा के झारसुगुड़ा जिले में एक महिला का उसके पति से झगड़ा होने के बाद कंगारू कोर्ट के आदेश पर सिर मुंडवा दिया गया और उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया गया। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार उसे सजा के तौर पर गांव के लोगों के लिए दावत का आयोजन भी करना पड़ा। इस घटना के कुछ ही दिन पहले पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के फुलबारी इलाके में 29 जून को एक गृहिणी पर स्थानीय ग्रामीणों द्वारा बुलाई गई कंगारू अदालत में कथित एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर के लिए मुकदमा चलाने के बाद, आत्महत्या से मौत हो गई।
22 जून के बाद जलपाईगुड़ी की घटना के बाद से बंगाल में ये छठी घटना थी, जहां सार्वजनिक सुनवाई के कारण मौतें हुई हैं। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी कंगारू कोर्ट को ‘लोगों के एक समूह द्वारा आयोजित एक अनौपचारिक अदालत के रूप में परिभाषित करती है, जिसका उद्देश्य किसी ऐसे व्यक्ति पर मुकदमा चलाना है, जिसे विशेष रूप से अच्छे सबूतों के बिना, किसी अपराध या दुष्कर्म का दोषी माना जाता है।’ आसान भाषा में इसका उपयोग कार्यवाही या गतिविधियों को बताने के लिए किया जाता है, जहां निर्णय अनुचित, पक्षपातपूर्ण और कानून के तहत न लिया गया हो।
एक तरफ जहां आज हम महिलाओं की सुरक्षा, अधिकार और सम्मान की बात कर रहे हैं, वहीं कंगारू कोर्ट महिलाओं के मानवाधिकारों का सीधे तौर पर हनन है जहां उसे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप में आहत किया जाता है। न सिर्फ ये कोर्ट महिलाओं को बिना किसी छानबीन और सुनवाई के दोषी करार देते हैं, बल्कि ये मूल रूप से पुरुषों के सामाजिक तौर पर वर्चस्व के तहत सत्ता का दुरुपयोग है। महिलाओं के खिलाफ़ सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर कन्वेंशन (CEDAW), जिसे 1979 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपनाया था, को अक्सर महिलाओं के अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय बिल के रूप में बताया जाता है। सम्मेलन में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को ‘लिंग के आधार पर किया गया कोई भी भेद, बहिष्कार या प्रतिबंध, जिसका प्रभाव या उद्देश्य महिलाओं द्वारा, उनकी वैवाहिक स्थिति पर ध्यान दिए बिना, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नागरिक या किसी अन्य क्षेत्र में पुरुषों और महिलाओं की समानता, मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता के आधार पर प्राप्त मान्यता, आनंद या प्रयोग को बाधित या निरस्त करना बताया गया है।’
आखिर क्यों आज भी जारी है कंगारू कोर्ट
कंगारू कोर्ट खाप पंचायतों की तरह ही काम करती हैं, जो ज्यादातर लगभग न्यायिक और राजनीतिक होती हैं, और आम तौर पर क्षेत्र में सत्ता को मजबूत करने के लिए एक टूल के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं। यह इसका प्रयोग करने वाले लोगों के शक्तिशाली राजनीतिक वर्चस्व के कारण है कि वे सज़ा के संवैधानिक तरीकों की परवाह न कर, दमनकारी तरीकों का उपयोग करके, महिलाओं के मानवाधिकारों का हनन करते हैं। अक्सर खाप पंचायतों और कंगारू कोर्ट जैसे दमानकारी उपायों का इस्तेमाल राजनेताओं द्वारा लॉन्चिंग पैड के रूप में किया जाता है।
इससे एक सक्रिय सदस्य होने से तौर पर, मुख्यधारा की राजनीति में आने के लिए आवश्यक व्यापक स्वीकार्यता और प्रदर्शन मिलता है। ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था और पितृसत्ता जीवन जीने और विश्वास करने के तरीकों को प्रभावित करती है, जिससे कंगारू कोर्ट जैसी इकाइयों को शक्ति और स्वीकृति मिलती है। भारतीय समाज जो अधिकतर पितृसत्तात्मक है, एक ऐसे जीवन जीने के तरीके में विश्वास करता है जो कुछ मानदंडों पर आधारित है, खासकर तब जब महिलाओं की बात हो। इन मानदंडों में जातिवाद शामिल है जो पूरे देश में प्रचलित है।
न्याय की अवधारणा को चुनौती देती कंगारू कोर्ट
न्यायालय एक ऐसी जगह है जहां किसी के भी वर्चस्व और उत्पीड़न को चुनौती दी जाती है और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की सुविधा प्रदान की जाती है। इसलिए न्यायालय का मूल कर्तव्य संविधान की भावना, लोगों के अधिकारों और कानून को बनाए रखना है। असल में, लोकतांत्रिक समाज न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बहुत महत्व देता है। हालांकि, अक्सर पितृसत्तात्मक समाज के ताने-बाने में जकड़े हुए न्यायालय पुरुषवादी मूल्यों और पितृसत्तातमक नैतिकता को दोहराते और मजबूत करते हैं। न्यायालयों में हर दिन विभिन्न रूपों में पितृसत्ता दिखाई पड़ती है।
यह भेदभाव सिर्फ न्यायपालिका के न्यायाधीशों में ही नहीं, बल्कि न्यायालयों में रोजमर्रा के व्यवहार में भी पूर्वाग्रह के रूप में मौजूद है। अक्सर पितृसत्तात्मक और पुरुष-प्रधान न्यायालय महिलाओं की समस्याओं उसी पुरुषवादी नजरिए से देखती है, जिसके वे आदि हैं। पुलिस रिपोर्ट करने से लेकर न्यायालयों में कार्रवाई तक, महिला विरोधी व्यवहार और लैंगिक भेदभाव दिखाई पड़ते हैं। इन सबके बावजूद, आम जनता न्यायायिक व्यवस्था पर विश्वास कर सकती है क्योंकि ये संविधान और कानून के अनुसार चलती है जहां हर धर्म, जाति और वर्ग एक समान हैं।
ऐसे में जब कंगारू कोर्ट में आम जनता कानून को दरकिनार कर महिलाओं के खिलाफ़ न्याय करने के मद्देनजर ‘अन्याय’ करते हैं, तो न्यायायिक व्यवस्था पर भरोसा और इसकी जरूरत दोनों प्रभावित होते हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) ने शालिशी अदालत (कंगारू कोर्ट) और खाप पंचायत के मद्देनजर हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और राजस्थान में हुई घटनाओं पर एक शोध किया गया। शोध बताती है कि पश्चिम बंगाल के बीरभूम में सामुदायिक शालिशी सभा के आदेश पर एक बीस वर्षीय आदिवासी महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया।
उसे ‘अनुचित रोमांटिक संबंध’ के लिए दोषी करार दिया गया था जहां उसका संबंध किसी दूसरे समुदाय के व्यक्ति के साथ था। जिस गांव में यह घटना हुई, वहां के निवासी डरे हुए थे और अधिकांश ग्रामीणों ने घटना के बारे में एनसीडब्ल्यू से बात करने से इनकार कर दिया। कुछ ने कहा कि उन्हें सामूहिक बलात्कार के बारे में पता नहीं था। उन्होंने बस इतना बताया कि उन्हें सिर्फ इतना पता है कि लड़का और लड़की ‘आपत्तिजनक स्थिति’ में पाए गए थे और गांव के नियमों के अनुसार उन्हें पूरी रात एक पेड़ से बांधा गया और शालिशी सभा (कंगारू कोर्ट) में मुकदमा चलाया गया।
पितृसत्ता, धर्म, जाति, वर्ग, समुदाय और गरीबी से जुड़ी है कंगारू कोर्ट
उनमें से प्रत्येक को 25,000 रुपये का जुर्माना भरने के लिए कहा गया था। कंगारू कोर्ट ने लड़के को उसके परिवार द्वारा जुर्माना अदा करने के बाद रिहा कर दिया। वहीं जब गांव वालों का समूह लड़की के घर जुर्माना वसूलने गया, तो उसके परिवार ने जुर्माना देने में असमर्थता जताई। इसके बाद, लड़की को उठा लिया गया और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। एनसीडब्ल्यू ने मामले की जांच के लिए घटना का स्वतः संज्ञान लिया था। इस घटना से पूरे देश में आक्रोश के बाद, सभी 13 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें तुरंत न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। रिपोर्ट के अनुसार आरोपियों में आदिवासी गांव का मुखिया भी शामिल था, जिसने इस घटना में अगुवाई की।
रिपोर्ट बताती है कि इस मामले में पुलिस की भूमिका भी सवालों के घेरे में आ गई थी, क्योंकि वह इतनी बड़ी योजना के तहत आरोपियों की हिरासत लेने में विफल रही। सरकारी वकील भी अदालत में पेश नहीं हुए। गौरतलब हो कि यौन हिंसा और उत्पीड़न के खिलाफ दंडात्मक कानूनों को काफी मजबूत किए जाने के बावजूद, महिलाओं सहित पूरे गांव ने कंगारू कोर्ट का समर्थन किया और अपराधी जुर्माना भरकर बच निकले। लेकिन लड़की के साथ बलात्कार इसलिए हुआ कि उसके पास जुर्माना भरने के लिए पैसे नहीं थे। यह घटना साबित करती है कि कड़े कानून, प्रक्रिया और सुरक्षा उपाय काफी नहीं हैं। सामाजिक तौर पर धर्म, जाति, वर्ग और समुदाय के साथ गरीबी और पितृसत्ता जकड़े हुए हैं। लोगों का सामाजिक दृष्टिकोण लैंगिक समानता और महिलाओं की सुरक्षा के लिए बदलने की जरूरत है।
विभिन्न रिपोर्ट और शोध बताते हैं कि अलग-अलग राज्यों में कंगारू कोर्ट का मूल अलग है और मूल रूप से ग्रामीण इलाकों में जारी हैं। कंगारू अदालत अवैध है। इसमें न्याय या न्यायिक प्रक्रिया के कोई मानदंड नहीं हैं जिनका पालन किया जाता हो। इसमें एक नियम के रूप में, अभियोक्ता, न्यायाधीश और कथित ‘न्याय’ को देने वाला एक ही व्यक्ति होते हैं। गांवों में कमज़ोर पंचायती राज संस्थान एक प्रमुख कारण है कि कंगारू कोर्ट और खाप पंचायतें ग्रामीण क्षेत्रों में शक्तिशाली इकाइयों के रूप में जारी हैं। समाज में पितृसत्तात्मक मानदंड बनाए रखने के अलावा खाप या कंगारू कोर्ट क्या उद्देश्य पूरा करती हैं, यह सवाल हम सभी को पूछना चाहिए। सामान्य अदालतों में न्याय देने में देरी के कारण भी ग्रामीण और स्थानीय लोग इन खाप पंचायतों, शालिशी अदालतों का समर्थन करते हैं, क्योंकि वे एक ही बैठक में फैसला सुना देते हैं, जबकि अदालती मामले सालों तक चलते रहते हैं। महिलाएं भी अपने आर्थिक सामाजिक अवस्था और सोशल कन्डिशनिंग के कारण इनका समर्थन करती हैं।
सम्मान एक ऐसा कारक है जो परिवार के पुरुष सदस्य महिलाओं की सेक्शूऐलिटी से लेकर उनके आने-जाने की स्वतंत्रता को नियंत्रित और सीमित कर इज़ाफ़ा करते हैं। जो महिलाएं प्यार करती हैं, अपने जीवन साथी को खुद चुनती हैं, बेमेल शादी से बाहर निकलती हैं, शादी के बाहर प्रेम संबंध में शामिल होती हैं, या तलाक लेने का साहस दिखाती हैं, उन्हें समाज के तय किए गए व्यवहार की सीमाओं को तोड़ने वाला माना जाता है। कंगारू कोर्ट का होना एक गंभीर समस्या है, जो न केवल न्यायिक व्यवस्था को कमजोर करती है बल्कि समाज में लैंगिक असमानता और अत्याचार को भी बढ़ावा देती है। इसे रोकने के लिए न्यायिक प्रक्रिया को सुगम और सुलभ बनाना, कानूनी जागरूकता बढ़ाना और कमजोर वर्गों की सुरक्षा सुनिश्चित करना जरूरी है।