इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत घरेलू हिंसा और बुनियादी सुविधाओं की कमी में ग्रामीण महिला का कैसे बीतता है एक दिन!

घरेलू हिंसा और बुनियादी सुविधाओं की कमी में ग्रामीण महिला का कैसे बीतता है एक दिन!

समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता, लैंगिक असमानता और सामाजिक बंधनों से जुड़ी जड़े बहुत गहरी है। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति और भी अधिक कठिन है क्योंकि गांवों में परंपरागत मान्यताओं के कारण बदलाव की गति धीमी है। वर्तमान समय में भी खासकर ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की हालत जस की तस बनी हुई है।

भारत अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है। अमृतकाल, भारत के विकास और आत्मनिर्भरता की दिशा में एक महत्वपूर्ण समय माना जा रहा है। यह भारत के उज्जवल भविष्य और प्रगति का दौर कहा जा रहा है लेकिन उसमें महिलाओं का वंचित रहना एक गहरी विडंबना है। भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था मैं किसी भी समाज की प्रगति को उसकी महिलाओं की प्रगति से आंकता हूं। समाज की प्रगति के लिए महिलाओं की हर क्षेत्र में प्रगति को अनिवार्य मानते है। भारत में नारीवादी आंदोलन ने एक लंबी यात्रा तय की है और अभी भी इसे एक लंबा सफर तय करना बाकी है। हालांकि आंदोलन ने कई महत्वपूर्ण प्रगति की है, जैसे कि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनों में सुधार, शिक्षा और कार्यस्थल में समान अवसरों की मांग और घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाना।

इसके बावजूद महिलाओं के सामने चुनौतियां पर्याप्त हैं। समाज में  पितृसत्तात्मक मानसिकता, लैंगिक असमानता और सामाजिक बंधनों से जुड़ी जड़े बहुत गहरी है। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति और भी अधिक कठिन है क्योंकि गाँवों में परंपरागत मान्यताओं के कारण बदलाव की गति धीमी है। वर्तमान समय में भी खासकर ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की हालत जस की तस बनी हुई है। भले ही शहरों में में फेमिनिज्म पर मुखर रूप से बातचीत होने लगी है लेकिन गांव में महिलाओं के बीच फेमिनिज्म का ‘फ’ भी नहीं पहुंच पाया है। 

शादी के बाद से ही चूल्हे पर खाना बनाती हूं। मायके में गैस की सुविधा थी लेकिन ससुराल में नहीं है। चूल्हे पर खाना बनाने से मेरी आंखें खराब हो गई है। आंखों में बहुत जलन होता है लेकिन मेरे पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है।

बिहार के सिवान जिले के एक गांव की एक शादीशुदा महिला जिसके पास अमृतकाल में भी न शौचालय की सुविधा है, न पानी की, न गैस की, न ही पैसों की। उसके पास है तो सिर्फ पति और सास की हिंसा, समाज के ताने और परिवार की गुलामी। एक ग्रामीण महिला किन विकट परिस्थितियों में अपना एक दिन व्यतीत करती है, इस विषय पर फेमिनिज्म इन इंडिया ने उसके जीवन को समझने के लिए उसके साथ विस्तार से बातचीत की है। 

कमला देवी (बदला हुआ नाम) की सुबह रोज चार बजे होती है। आंख खुलते ही खेत की तरफ शौचालय के लिए निकल जाती है, ताकि उजाला न हो जाए। वहां से लौटते ही घर की साफ-सफाई में जुट जाती है। उसके बाद खुद को खाना पकाने में झोंक देती है। कमला देवी बताती हैं, “शादी के लगभग 15 साल बीत चुके हैं। शादी के बाद से ही चूल्हे पर खाना बनाती हूं। मायके में गैस की सुविधा थी लेकिन ससुराल में नहीं है। चूल्हे पर खाना बनाने से मेरी आंखें खराब हो गई है। आंखों में बहुत जलन होता है लेकिन मेरे पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। सबसे ज्यादा बरसात के समय दिक्कत होती है क्योंकि चूल्हे के आस-पास पानी भर जाता है, चूल्हा झोंकने वाली लकड़ियां भी गीली हो जाती है जिसे जलाने में कम से कम आधे घंटे से ज्यादा का समय लग जाता है, कई बार तो चूल्हे में मुंह डालकर फूंक मारना पड़ता है। चूल्हे में फूंक मारने की वजह से धुंआ मेरे मुंह के भीतर भर जाता है जिससे सांस लेने में दिक्कत होती है।” 

वो आगे बताती हैं, “सुबह के वक्त ही नाश्ता और दोपहर का खाना इकट्ठा ही बना लेती हूं क्योंकि दोबारा चूल्हा जलाना बहुत मुश्किल होता है। ठंड के वक्त गर्म-गर्म खाना खाने का बहुत मन करता है। लेकिन मन मार कर रहना पड़ता है।” वो थोड़ा खुश होते हुए कहती हैं, “कम से कम एक छोटा सिलेंडर भी होता तो मेरे लिए आसानी रहती। गैस पर खाना नहीं पकाती। लेकिन मेहमान आते तो कम से कम उन्हें चाय बनाकर पिला देती। अगर बच्चों का कुछ खाने का मन किया तो बना देती।”

तस्वीर साभारः श्वेता

चूल्हे से खाना बनाने पर स्वास्थ्य तो लगातार खराब हो ही रहा है लेकिन कमला को आमतौर पर पति की शारीरिक हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। वो बताती हैं, “चूल्हे पर खाना बनाने से पहले चूल्हे को अच्छे से लीपती हूं। चूल्हे के आस-पास की जगह को अच्छे से साफ करती हूं। लेकिन चूल्हे के पास कहीं न कहीं से उड़कर गंदगी आ ही जाती है। रात के समय बिजली नहीं रहने पर चूल्हे पर खाना बनाना और मुश्किल हो जाता है। इन सब स्थिति में खाना बनाना आसान नहीं है। इतनी मुश्किल के बावजूद खाना पकाकर जब मैं अपने पति को खाना देती हूं और खाने में छोटा सा बाल या कुछ भी मिल जाता है, तो खाना फेंक देते हैं और बहुत मारते हैं। इसमें जबकि मेरी कोई गलती नहीं होती है। रसोईघर तो है नहीं कि सारी सुविधा पास में होगी। खाने बनाने के लिए पानी भी ढो कर लाना पड़ता है। मसाला पीसने के लिए भी चूल्हे से हटकर सिलबट्टे के पास जाना पड़ता है।  चूल्हे पर खाना पकाने से पहले सारे बर्तन को लीपना पड़ता है। एक दिन में यह काम दो बार सुबह और शाम के वक्त करना पड़ता है। इन बर्तनों को साफ करने में अधिक मेहनत लगती है और हाथ भी काले पड़ने लगते हैं।” 

रात के समय बिजली नहीं रहने पर चूल्हे पर खाना बनाना और मुश्किल हो जाता है। इन सब स्थिति में खाना बनाना आसान नहीं है। इतनी मुश्किल के बावजूद खाना पकाकर जब मैं अपने पति को खाना देती हूं और खाने में छोटा सा बाल या कुछ भी मिल जाता है, तो खाना फेंक देते हैं और बहुत मारते हैं।

गांव की कुछ अन्य महिलाओं ने बातचीत के दौरान बताया कि उनके घरों में सिलेंडर है, लेकिन वे रोज खाना पकाने में इसका इस्तेमाल नहीं करते हैं। जब कोई मेहमान आ जाए या बहुत जरूरत पड़ने पर ही वे इसका इस्तेमाल करते हैं। रोज गैस न इस्तेमाल करने के सवाल पर वे बताती हैं कि उज्जवला योजना से सिलेंडर तो मिल गया लेकिन गैस का दाम इतना ज्यादा बढ़ गया कि उनके पास उतने पैस नहीं है। यह कहानी सिर्फ कमला देवी या महज एक गांव की नहीं है। यह समस्या बहुत गंभीर है। भारत में लगभग 70 करोड़ लोग खाना पकाने के लिए पारंपरिक ईंधन जैसेकि लकड़ी, कोयला, गोबर के उपले और मिट्टी के तेल आदि का उपयोग करते हैं। इससे उत्पन्न कालिख इन घरों में लोगों के जीवन और स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, खाना पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले प्रदूषणकारी ईंधन के कारण भारत में हर साल 13 लाख लोगों की मौत होती है। 

पानी के लिए भी करना पड़ता है संघर्ष

भारत में प्रति व्यक्ति पानी की खपत 140 लीटर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक एक आम व्यक्ति को प्रतिदिन 100 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। हमारे देश में एक तबका ऐसा है जो रोजाना स्विमिंग पूल में डुबकी लगाता है, वहीं दूसरी तरफ एक तबका ऐसा है जो आम जरूरत के लिए भी पानी को तरसता है। कमला देवी बताती हैं, “घर का सारा काम पानी से ही होता है, खाना पकाना, नहाना, कपड़े धोना, घर साफ करना इत्यादि के लिए पानी बहुत जरूरी है। पानी के लिए मुझे खुद को थकाना पड़ता है। एक दिन में हैंडपंप से कम 50 से ज्यादा बाल्टी पानी चलाना पड़ता है, जिसकी वजह से हमेशा पेट में दर्द रहता है।”

तस्वीर साभारः श्वेता

वो आगे बताती हैं, “मेरे पति खुद से पानी चलाकर नहाते नहीं हैं। उनके नहाने के लिए भी मुझे ही पानी का इंतजाम करना पड़ता है। नहाने के बाद उनके कपड़े भी मुझे ही धोने पड़ते हैं।” नल-जल योजना को लेकर कमला कहती हैं, “2019 में सरकार की तरफ से गांव में जगह-जगह नल लगा था, एक तय समय के मुताबिक सुबह और शाम के वक्त पानी आता था जिससे काफी मदद मिलती थी। लेकिन पिछले साल से नल में पानी आना बंद हो गया है। हैन्डपंप से निकलने वाला पानी भी बहुत गंदा होता है, थोड़ी देर बाद ही पानी पिला पड़ जाता है। मजबूरी में वह पानी ही पीना पड़ता है जिसकी वजह से दांत लगातार पीले पड़ रहे है।”

2019 में सरकार की तरफ से गांव में जगह-जगह नल लगा था, एक तय समय के मुताबिक सुबह और शाम के वक्त पानी आता था जिससे काफी मदद मिलती थी। लेकिन पिछले साल से नल में पानी आना बंद हो गया है। हैन्डपंप से निकलने वाला पानी भी बहुत गंदा होता है, थोड़ी देर बाद ही पानी पिला पड़ जाता है। मजबूरी में वह पानी ही पीना पड़ता है जिसकी वजह से दांत लगातार पीले पड़ रहे है।

घरेलू हिंसा का करना पड़ता है सामना

द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में लगभग एक तिहाई महिलाओं ने शारीरिक या यौन हिंसा का सामना किया है। रिपोर्ट में पाया गया कि 32 फीसद विवाहित महिलाओं (18-49 वर्ष) ने शारीरिक और मानसिक रूप से हिंसा का अनुभव किया है। घरेलू हिंसा में सबसे सामान्य शारीरिक हिंसा (28 फीसद) है उसके बाद भावनात्मक और यौन हिंसा है। शहरी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं (24 फीसद) की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं (32 फीसद) में शारीरिक हिंसा का अनुभव अधिक सामान्य है। कमला देवी बताती हैं, “जब से शादी हुई है तब से पति की मार खा रही हूं। जब मैं पहली बार गर्भवती हुई थी, डिलीवरी के दो दिन पहले ही मेरे पति ने मारपीट की थी। पेट पर बहुत तेज लात मारा था। डिलीवरी तो हुई लेकिन बच्चा बच नहीं सका। मैं बहुत रोई। उसके बाद मेरी सिर्फ लड़कियां हुई, जिसकी वजह से आज भी मेरे ससुराल वाले ताने मारते हैं। लेकिन अपने बेटे को कुछ नहीं कहतीं।”

वह आगे कहती हैं, “मेरे पति मुझे हर छोटी-छोटी बात पर भयानक तरीके से पीटते हैं। खाने में बाल निकल गया तो मारते हैं। अगर उनके लिए हैन्डपंप से पानी न चलाऊं तो मारते हैं, खाना खाकर उनका प्लेट न उठाऊ तो मारते हैं। सोने के लिए उनका बिस्तर न करूं तो मारते हैं। यह सब काम मैं उनके बोलने से पहले कर देती हूं लेकिन कभी-कभार मेरी तबीयत खराब हो जाती है या मैं इतना थक जाती हूं कि मेरा कुछ करने का मन नहीं करता है, तब मुझे उनकी मार खानी पड़ती है। परिवार के किसी सदस्य द्वारा उन्हें कुछ नहीं कहा जाता है।”

बहुत बार शिकायत दर्ज करवा चुकी हूं लेकिन पुलिस नहीं सुनती है। किसी से उधार लेकर पुलिस थाने जाती हूं, पुलिस वाले शिकायत लिख लेते है फिर पैसों की मांग करते हैं। जब मैं बोलती हूं मेरे पास पैसे नहीं है तो बोलते हैं तुम चलो हम आते हैं। लेकिन वो कभी नहीं आते हैं।

वह बताती हैं, “मैं अपनी बेटियों की वजह से कहीं नहीं जा पाती। मेरी तीन बेटियां हैं। मुझे डर लगता है कि अगर मैं कहीं चली गई तो मेरा पति बेटियों को चोट पहुंचाएगा। मेरे पति अपने मन के अनुसार काम करते हैं। जिस दिन काम करते हैं उस दिन का दिहाड़ी उन्हें मिलता है। हम बस दाल-चावल ही खा पाते हैं। इसके अलावा फल, दूध या बाहर का कुछ नहीं खाते हैं। वो कमा कर मुझे एक रूपये नहीं देते हैं। मुझे अपना एक छोटा मोबाइल रिचार्ज भी अपने मायके वालों से करवाना पड़ता है। कई बार शर्म के बारे में नहीं बोलती हूं, जब मेरे नंबर पर कॉल नहीं लगता तो भाई खुद रिचार्ज कर देते हैं।”

वह बताती हैं कि अब कुछ महीने पहले उन्होंने खुद के लिए नौकरी ढूंढी। एक प्राइवेट स्कूल में खाना बनाने की नौकरी मिली थी, जिसमें रहने की भी व्यवस्था थी। वह अपने बच्चों को और थोड़ा बहुत सामान लेकर वहां काम पर चली गई थी। वहीं रह रही थी। लेकिन चौथे ही दिन पति और सास उसे लेने आ गए। वह कहती है कि उसे वे लोग जबरदस्ती घर ले गए और बहुत शारीरिक हिंसा की। वह बताती हैं, “मेरी सास का कहना था कि घर की इज्जत खराब कर रही हूँ। औरत होकर बाहर जाऊँगी कमाने तो गांव वाले क्या कहेंगे।” 

पुलिस मांगती है पैसे

तस्वीर साभारः श्वेता

कमला कहती हैं, “पुलिस थाने में कई बार पति के खिलाफ शिकायत दर्ज करवा कर थक चुकी हूं। थाना जाकर शिकायत करवाती हूं तो पुलिस वाले पैसे मांगते हैं। बहुत बार शिकायत दर्ज करवा चुकी हूं लेकिन पुलिस नहीं सुनती है। किसी से उधार लेकर पुलिस थाने जाती हूं, पुलिस वाले शिकायत लिख लेते है फिर पैसों की मांग करते हैं। जब मैं बोलती हूं मेरे पास पैसे नहीं है तो बोलते हैं तुम चलो हम आते हैं। लेकिन वो कभी नहीं आते है। अभी कुछ महीने की बात है किसी ने मुझे बताया था कि महिला हेल्पलाइन नंबर पर कॉल किया जा सकता है। पुलिस खुद आएगी। मैंने कॉल करके सारी बात बताई। पुलिस घर भी आई। पुलिस के आते ही मेरी सास मुझे गाली देते हुए धमकी देने लगी कि बेटे को पुलिस लेकर गई तो वह मुझे घर में नहीं घुसने देंगी। रिश्तेदार भी मेरा साथ नहीं दिया। गांववाले कहते हैं किसी के घर पुलिस का आना मतलब घर की इज्जत खराब होना।”

कमला देवी जैसी महिलाओं की स्थिति हमें सोचने पर मजबूर करती है कि देश की प्रगति में महिलाओं की हिस्सेदारी कितनी अधूरी है। ग्रामीण महिलाओं का संघर्ष केवल घर की चारदीवारी तक सीमित नहीं है, बल्कि उनके जीवन के हर पहलू में मौजूद है। इन महिलाओं की कहानियां केवल सामाजिक अन्याय की ओर संकेत नहीं करती, बल्कि हमारी विकास नीतियों में सुधार की आवश्यकता की भी ओर इशारा करती हैं। इसलिए, यह समाज और सरकार दोनों की जिम्मेदारी है कि वे इन महिलाओं के संघर्ष को समझें और उन्हें सशक्त बनाने के लिए प्रभावी कदम उठाएं।


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