“इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया ?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी
मेरी चिन्ता ये है कि भविष्य में वो आखिरी स्त्री कौन होगी जिसे सबसे अंत में जलाया जायेगा?
मैं नहीं जानता लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं होने नहीं दूँगा।”
कवि रमाशंकर विद्रोही की यह कविता उस समाज के त्रासद सच से फूटी है जहां इतना अंधेरा है कि अन्याय की परंपरा यहां के लोगों को दिखती नहीं या देखने की दृष्टि ही नहीं है उनके पास। जहां पितृसत्ता ऐसे काबिज़ है कि पुरुष क्या स्त्रियां तक स्त्रीद्वेषी हैं जो स्त्री के साथ होती हिंसाओं को जायज़ ठहराती हैं। न्याय व्यवस्था राजसत्ता की है और राजसत्ता धर्म सत्ता और पितृसत्ता से मिलकर बनी है, तो इससे न्याय व्यवहार संरचना में कम और मिथक में ज्यादा है।
मेरे गाँव की ही घटना है। एक लड़की का विवाह होता है, ससुराल में सब ठीक रहता है। पति गोवा में कहीं नौकरी करता था। एक दिन ख़बर आती है कि लड़की को अधमरा करके घर से बाहर फेंक दिया है। लड़की का अपराध यह था जैसा कि वह फोन पर अपने किसी रिश्तेदार से बात करती थी। लड़के को इस हिंसा के व्यवहार लिए कोई पश्चाताप नहीं था बल्कि इस बात को वह शान से स्वीकार करता था। लड़की मैट्रिक तक पढ़ी थी। गाँव में ही सिलाई-कढ़ाई का काम करती है, वह ससुराल फिर से नहीं गई। अब उसकी दूसरी शादी की बात चल रही है।
अब यहां मैं इस स्त्री हिंसा के स्वरूप के संबंध में एक ज़रूरी बात दर्ज करना चाहूंगी कि वह लड़की ऐसे समुदाय से थी, जहां विवाह को लेकर बहुत कट्टरता नहीं है जैसा कि भारतीय सवर्ण परिवारों में देखा जाता है। अगर यही लड़की किसी सवर्ण समुदाय से होती तो घरवाले उसी हिंसक पति के पास लड़की को वापस भेज देते और झूठी शान और मर्यादा के नाम पर वह लड़की आजीवन ऐसी क्रूरता को सहकर जीती। लेकिन अभी दो दशकों से जो एक सामाजिक संस्कृतिकरण हुआ है उसमें धार्मिक और जातीय गर्वबोध का ज़हर अन्य जातियों में खूब आया और इन दशकों में मैं देख रही हूं कि स्त्रियों के साथ इस तरह की क्रूरता लगातार हो रही है।
अब देखना ये है कि फासिज़्म की प्रवृत्ति पुरुषों में आती कहां से है? कौन ट्रेनिंग देता है? इसका जबाब वहीं है समाज और परिवार। आखिर स्त्री के लिए ही ये आपराधिक प्रवित्त क्यों जागृत हो जाती है तो यह मनोविज्ञान समझ में आता है कि कमज़ोर के लिए ये समाज जल्दी से आक्रामक हो जाता है, वहीं जहां सत्ता है ताकत है वहां इस तरह हिंसा नहीं कर पाता।
मेरे गांव की ही एक और घटना है जहां एक औरत की हत्या होने पर फोन करने पर पुलिस भी आई, पोस्टमार्टम आदि हुआ कुछ संदिग्ध लोगों को पकड़कर ले गई जो कि एक पारिवारिक झगड़े से जुड़े लोग थे। घरवालों ने उनका ही नाम लिया था हत्या के बाद, लेकिन जल्दी ही पुलिस को पता चल गया कि हत्या आशनाई में हुई। खुलासा होने पर उस व्यक्ति को पकड़कर ले गई। थाने में कुछ दिन रखा, कुछ कार्रवाई भी हुई होगी लेकिन सामाजिक कंडीशनिंग यह है कि जिस व्यक्ति ने हत्या की उसके ख़िलाफ़ परिवार ने एफआईआर तक दर्ज नहीं करवाई। इसकी वजह यह थी कि स्त्री का उस व्यक्ति के साथ संबंध था, स्त्री ‘चरित्रहीन’ थी।
घटना को एक साल बीत गए वो व्यक्ति कब का छूट गया। घरवाले नाम नहीं लेते कभी इस हत्या की और गाँव के स्त्री-पुरुष सब इस हत्या को जायज़ कहते हैं कि ‘चरित्रहीन स्त्री’ का यही हश्र होता है। जैसा कि बताया जाता कि दोषी ने सिर्फ इसलिए उस स्त्री की हत्या कर दी कि क्योंकि वह उसकी नाबालिग बेटी से विवाह करना चाहता था और स्त्री ने उसका विवाह कहीं और तय कर दिया था, तो सजा में उसने स्त्री की बेहद निर्ममता से हत्या कर दी। जिन अपराधों को समाज जायज़ कहता है तो यहां पुलिस क्या करेगी क्योंकि समाज से ही जाकर लोग वहां भी बैठे हैं। स्त्री के प्रति होती क्रूरताओं को पलटकर सोचते हुए तकलीफ़ होती है क्योंकि तब सब दृश्य आंखों में आ जाते हैं।
समाज में विवाहेतर संबंध अपराध है तो सजा स्त्री को ही क्यों
पहले यहां स्त्री के प्रति ऐसे अपराध ज़्यादातर सवर्ण परिवारों में होते थे जहां की व्यवस्था मुख्य रूप से देह घृणा से भरी थी। अन्य जातियों में देह घृणा इस तरह नहीं थी। अगर संबंध बन जाते तो सब मिल बैठकर राह निकालते। ये राह हमेशा स्त्री के लिए न्यायपूर्ण नहीं होती लेकिन घृणा और हिंसा के व्यवहार इसके लिए नहीं था। लेकिन इन दो दशकों में इस तरह के अपराधों को शह मिल रही है।
अब जब बहुत तेजी से समाज का संस्कृतिकरण हुआ है तो उदारीकरण की तरह उसकी मार भी स्त्रियों के हिस्से आई है। जातीय गौरव से भरे इस समाज में स्त्री मात्र वस्तु है जिसका मालिक पुरुष है। वह पुरुष कोई भी हो सकता है पिता, पति, प्रेमी, भाई, बेटा सब उसके मालिक हैं और महिला को सज़ा देने के हकदार हैं। एक हिंसा की घटना के बारे में सोचने पर और सौ घटनाएं आँखों में आकर खड़ी हो जाती हैं।
सुल्तानपुर ज़िले की बात है, वहां के एक गाँव के बाग में एक स्त्री का नंगा शव लटका दिया गया था। पुलिस आई जो कुछ हुआ वो तो यहां स्त्री अपराधों में होने की परंपरा है लेकिन मैंने जो गाँव के पढ़े-लिखे वर्गों में इस घटना की प्रतिक्रिया देखी मन विक्षोभ से भर गया। मैं घटना के काफ़ी दिन बाद उस गाँव में गई थी। कुछ लड़कियों और स्त्रियों के साथ बैठी थी तो बातचीत में रेप और हत्या की एक तत्कालीन घटना को बताने लगी तो लड़कियों ने गाँव की इस घटना का ज़िक्र लगभग हास्य और रोमांच की तरह किया, मुझे उन लड़कियों पर आश्चर्य हुआ जिनमें से एक स्नातक कर रही थी दूसरी परास्नातक। मैंने थोड़ा सा उन्हें डांट दिया कि इस घटना पर हंसी कैसे आ सकती है, तो पास में बैठी एक 60 साल की औरत जो कि शहर में रहती हैं वह बताती हैं कि मृतक स्त्री किसी से ‘फंसी’ थी इसलिए मार दी गयी। आखिर ऐसी स्त्रियों की ये दुर्दशा न की जाए तो क्या किया जाये। पास बैठी एक-दो स्त्रियां भी उनकी बात का समर्थन कर रही थीं।
मैं हैरान रह गई स्त्री के प्रति स्त्री के इस नज़रिये को देखकर जो उनके साथ हुई इस वीभत्स घटना को जायज़ कह रही थीं, कंडीशनिंग कहां तक हमें अंधेरे में रख सकती है इसका उदाहरण हैं ये औरतें। उनको थोड़ा सा समझाने की कोशिश करो तो वे नये-नये धार्मिक बाबाओं के प्रवचनों उनके वीडियो आदि का ज़िक्र करके ऐसे अपराधों का महिमामंडन करने लगती हैं।इससे ये समझ में आता है कि प्रतिबंधन न्याय और करुणा के अर्थ को कैसे अपनी गिरफ्त में रखता है वो समाज में व्याप्त विकृतियों, कुंठाओं, अंध मान्यताओं को भी सत्य की तरह बरतता है।
सदियों से चली आ रही घोर मर्दवादी सोच की व्यवस्था में हर दिन नयी कड़ी जुड़ जाती है, स्त्री अपराध की कड़ी में ये एक और विचलित करने वाली घटना है। यह घटना हमारे यहां पूर्वांचल की ही शाखा की है। लड़की स्नातक के दूसरे साल में स्थानीय डिग्री कॉलेज में पढ़ती थी। गाँवों में शादी जल्दी हो जाती है तो उस लड़की की भी शादी तय थी। एक दिन कहीं से उस लड़के को पता चल जाता है कि लड़की किसी और लड़के से फोन पर बात करती है। महज़ इतनी सी बात के लिए वह लड़की के घर जाकर अभिवावकों के सामने ही लड़की को सिर में गोली मार देता है और लड़की की घटनास्थल पर ही मौत हो गयी थी।अख़बार में भी ये घटना छपी थी। बाद में इसमें क्या हुआ, लड़के को सजा मिली कि नहीं गाँव कुछ दूर होने पर मुझे ख़बर नहीं है।
अब देखना ये है कि फासिज़्म की प्रवृत्ति पुरुषों में आती कहाँ से है? कौन ट्रेनिंग देता है? इसका जबाब वहीं है समाज और परिवार। आखिर स्त्री के लिए ही ये आपराधिक प्रवित्त क्यों जागृत हो जाती है तो ये मनोविज्ञान समझ में आता है कि कमजोर के लिए ये समाज जल्दी से आक्रामक हो जाता है, वहीं जहां सत्ता है ताकत है वहां इस तरह हिंसा नहीं कर पाता। इस तरह कुंठाओं और पूर्वाग्रहों से इस हिंसात्मक समाज की निर्मिति होती है। ऐसी कितनी घटनाएं यहां लगातार हो रही हैं जो कहीं दर्ज तो क्या, चर्चा का विषय भी नहीं बन पाती है। मैं अपनी बात कहते हुए उन्हीं घटनाओं का जिक्र कर देती हूं जिनको मैं निजी तौर पर कही से जानती हूं बाकी तो अब यहां महज़ लड़कियों, स्त्रियों के फोन पर बात करने को लेकर आए दिन हिंसात्मक घटनाएं हो रही हैं।
एक दशक पहले तक यहां लड़कियों के जींस पहनने को लेकर समाज में रोष था जो कि अब कम दिखता है ये बाजार का लाया हुआ बदलाव है जिससे बहुत जमीनी बदलाव की उम्मीद नहीं होती। जिन अपराधों का मैंने इस लेख में ज़िक्र किया है उसमें सारे अपराध उस वर्ग में हुए जहाँ पहले देहघृणा का ये रूप नहीं था। धार्मिकता का ऐसा महिमामंडन और नैतिकता आदि का मानदंड स्त्री हिंसा पर नहीं चलता था। ये पुराने और नित नये गढ़े जा रहे पाखंड से बनती मान्यताओं का चलन, नयी सामाजिक संस्कृतिकरण के बनाये भ्रम और जातीय गौरव में बौराये समाज का विषमाधा रूप है।