कला कभी मरती नहीं है। यह नया निर्माण करती है, नई सोच को आकार देती है। कला किसी की कल्पना, किसी की अल्पना, किसी का भ्रम या किसी का साक्षात्कार हो सकती है। एक कलाकार इसे आकार देकर रंग भरता है। जरूरी नहीं कि सभी महिलाएं अपने हक के लिए सड़कों पर आंदोलन करें। कुछ अपनी चित्रकारी से क्रांति की मिसाल पेश करती हैं। आज हम एक ऐसी कलाकार की चर्चा करेंगे जिनकी रगों में खून नहीं, बल्कि कला बहती थी। यह कला की धारा इतनी दूर तक बही कि वह इतिहास और प्रेरणा बन गईं।
जन्म और शिक्षा
जिस दौर में पढ़ी-लिखी महिलाओं की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती थी, उस समय अंबिका धुरंधर ने ललित कला यानी फाइन आर्ट्स में स्नातक की डिग्री प्राप्त कर इतिहास रचा। वह इस क्षेत्र में स्नातक करने वाली पहली भारतीय महिला थीं। यह वह समय था जब महिलाएं औपचारिक रूप से शिक्षित होना चाहती थीं, लेकिन उन्हें स्कूल या कॉलेज भेजने के बजाय घर पर ही पढ़ाया जाता था। अंबिका धुरंधर का जन्म 4 जनवरी 1912 को मुंबई में हुआ था। उनके पिता, एम.वी. धुरंधर, एक प्रसिद्ध चित्रकार और जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स के पहले भारतीय निदेशक थे। उनकी माता एक गृहणी थीं, लेकिन वे भी काफी पढ़ी-लिखी थीं। अंबिका का बचपन जेजे स्कूल द्वारा दिए गए बंगले में बीता। उनके ऊपर उनके पिता की कलाकारी और स्कूल ऑफ आर्ट्स के वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ा, जिसकी वजह से उन्होंने बचपन से ही चित्रकला में रुचि दिखानी शुरू कर दी।
अंबिका ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा नौरोजी स्ट्रीट स्थित कार्गे विश्वविद्यालय के गर्ल्स हाई स्कूल से प्राप्त की। इंटरमीडिएट की पढ़ाई उन्होंने घर से ही पूरी की। कला में अत्यधिक रुचि होने के कारण उनके पिता ने 1929 में उन्हें सर जे.जे स्कूल ऑफ आर्ट्स में दाखिला दिलाया। उस समय कला का क्षेत्र भी पुरुष प्रधान था, लेकिन अंबिका ने सभी बाधाओं को पार करते हुए 1931 में अच्छे अंकों के साथ दूसरे स्थान पर स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने एक वर्ष का सरकारी डिप्लोमा भी किया।
विदेश यात्राएँ और कला के प्रति प्रेम
अंबिका के पिता एम.वी. धुरंधर को विभिन्न शाही घरानों से पेंटिंग बनाने के निमंत्रण मिलते थे। इस दौरान उन्हें ग्वालियर, इंदौर, कोल्हापुर जैसे स्थानों की यात्रा और शाही आवासों में रहने का अवसर मिला। अंबिका ने अपनी पुस्तक “मेरी स्मृति चित्र” में यूरोप की अपनी यात्रा का उल्लेख किया है। इस दौरान उन्होंने लंदन में मैडम तुसाद संग्रहालय का दौरा किया, जहां उन्होंने महात्मा गांधी, हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन, नेपोलियन, हैली सेलासी और ब्रिटिश शाही परिवार जैसी विश्व प्रसिद्ध हस्तियों की मूर्तियाँ देखीं। 1939 में, अंबिका ने लंदन के रॉयल कॉलेज ऑफ आर्ट्स में एक सम्माननीय कार्यकाल भी दिया।
अंबिका की कला शैली
अंबिका धुरंधर ने पौराणिक और ऐतिहासिक विषयों को अपनी पेंटिंग्स के लिए चुना। उन्होंने अपने पिता की तरह मानव आकृतियों का उपयोग कर ‘आकृति रचनाएँ’ बनाने में महारत हासिल की। उनकी पेंटिंग्स में महिलाओं को मुख्य पात्र के रूप में दर्शाया गया, जिसमें उनके अनुभवों, संघर्षों और उपलब्धियों को उकेरा गया था। अंबिका ने महिलाओं को माताओं, बेटियों, बहनों और मित्रों के रूप में चित्रित किया, उनकी ताकत, लचीलापन और सौंदर्य को उजागर किया। शिमला, दिल्ली, बेंगलुरु, मैसूर और कोल्हापुर जैसे शहरों में उनकी चित्रों की प्रदर्शनियाँ बेहद लोकप्रिय रहीं।
उपलब्धियाँ और सम्मान
- 1935 में, बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ की हीरक जयंती के अवसर पर एक सोने-चांदी के बॉक्स को डिजाइन करने की प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। अंबिका धुरंधर ने इसमें हिस्सा लिया और उनके दो डिजाइनों में से एक को चुना गया। उन्हें 500 रुपये का पुरस्कार मिला और उन्हें महाराजा से मिलने का अवसर भी मिला।
- 1980 में रायगढ़ में शिव छत्रपति की 300वीं जयंती पर आयोजित प्रदर्शनी में सभी पेंटिंग्स अंबिका द्वारा बनाई गई थीं। इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था।
- 2005-06 में उनकी तैलचित्र ‘शिवराज्याभिषेक’ मुंबई के मेयर बंगले में आयोजित एक प्रदर्शनी में भारी कीमत पर बिकी।
- उनकी जलरंग पेंटिंग ‘चांदबीबी’ कोल्हापुर के दलविज आर्ट इंस्टीट्यूट में संरक्षित है।
- अंबिका ने ‘स्त्री’ मैगजीन के लिए भी काम किया।
- वह बॉम्बे आर्ट सोसाइटी की संस्थापक सदस्यों में से एक थीं और राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भाग लेती थीं।
- बॉम्बे आर्ट सोसाइटी की प्रदर्शनी में प्रदर्शित उनकी पेंटिंग “देवी अंबिका अपनी योगिनियों के साथ” को सोसाइटी द्वारा सिल्वर मेडल से सम्मानित किया गया।
पिता की मृत्यु के बाद का जीवन
अंबिका ने कभी विवाह नहीं किया और स्वतंत्र रूप से अपना जीवन व्यतीत किया। 1944 में उनके पिता की मृत्यु हो गई, लेकिन उन्होंने उनके द्वारा बनाई गई पेंटिंग्स का रखरखाव जारी रखा और उनकी प्रदर्शनियों का आयोजन भी किया। 1949 में उन्होंने अपने पिता के नाम पर खार में ‘धुरंधर कलामंदिर’ की स्थापना की, जहां उन्होंने कई छात्रों को कला की शिक्षा दी। पिता की मृत्यु के बाद भी अंबिका ने स्वतंत्र रूप से विदेश यात्राएं कीं और पूरा यूरोप घूमीं। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई और आंदोलन के लिए कई चित्र बनाए। अंबिका का घर, “धुरंधर निवास” जिसे “अंबा सदन” भी कहा जाता था, खार में स्थित था, जहां वह अकेली रहती थीं। वृद्धावस्था और बीमारी के चलते 3 जनवरी 2009 को उनका निधन हो गया।
अंबिका धुरंधर ने कला के क्षेत्र में पांच दशकों तक काम किया। उनकी कलाकृतियाँ आज भी देश-विदेश के विभिन्न संग्रहालयों और प्रदर्शनियों में प्रदर्शित होती हैं। अंबिका धुरंधर का जीवन केवल एक कलाकार के रूप में सीमित नहीं था, बल्कि वह उस दौर की महिला थीं, जिन्होंने अपनी कला के माध्यम से क्रांति की आवाज उठाई। उन्होंने न केवल भारतीय कला में अमूल्य योगदान दिया, बल्कि उन्होंने समाज में महिलाओं की स्थिति को भी अपनी चित्रकला के माध्यम से बदलने की कोशिश की। उनका जीवन और उनका काम न केवल भारतीय कला के इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी हैं। कला के प्रति उनका समर्पण और उनकी जिजीविषा आज भी हमारे सामने एक मिसाल पेश करती है। उन्होंने साबित किया कि कला केवल एक माध्यम नहीं है, यह एक क्रांति है जो समाज को बदल सकती है।
Source: