भारत में मानसिक स्वास्थ्य एक ऐसा मुद्दा है जिसे लंबे समय तक उपेक्षित रखा गया है। जब इसे जाति और वर्ग के संदर्भ में देखा जाता है, तो समस्या और भी जटिल हो जाती है। जातिगत भेदभाव और वर्ग आधारित असमानताएँ न केवल आर्थिक कठिनाइयाँ उत्पन्न करती हैं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डालती हैं। दलित, आदिवासी, और वंचित समुदायों के लोग इस दोहरी मार का सामना करते हैं। एक ओर उन्हें आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, और दूसरी ओर, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुँच बेहद सीमित होती है। लोग अक्सर अपने मानसिक संघर्षों को लेकर चुप रहते हैं, क्योंकि समाज में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की कमी है। जातिगत भेदभाव का मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर होता है। यह केवल सामाजिक समस्या नहीं है, बल्कि इसका सीधा असर मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के साल 2007-2008 में छह भारतीय राज्यों में किए गए सर्वेक्षण के आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चला कि शिक्षा और संपत्ति के स्वामित्व में अंतर को ध्यान में रखने के बाद भी अनुसूचित जातियों और मुसलमानों का मानसिक स्वास्थ्य (खुद की गई रिपोर्ट) उच्च जाति के हिंदुओं की तुलना में खराब है। सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 46 फीसद एससी और 51 फीसद मुस्लिम अवसाद का सामना कर रहे थे। इसी तरह, 57 फीसद एससी और 60 फीसद मुस्लिम चिंता से जूझ रहे थे। जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव से ग्रस्त लोग न केवल सामाजिक असमानताओं का सामना करते हैं, बल्कि उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका गहरा प्रभाव होता है। दलित और आदिवासी समुदायों के लोग बुनियादी सुविधाएं जैसे शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं में भेदभाव का सामना करते हैं।
जातिगत और धार्मिक भेदभाव से जुड़ी है मानसिक स्वास्थ्य
इसका नतीजा यह होता है कि वे मानसिक तनाव, अवसाद, और आत्म-संदेह जैसी समस्याओं का शिकार हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, दलित समुदाय के कई युवा जब शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में कथित उच्च जाति के लोगों के वर्चस्व के बीच अपनी जगह बनाने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अक्सर अपमान और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। यह कोशिश और उस कोशिश में सामना किया गया अपमान सिर्फ उनके आत्मसम्मान को ठेस नहीं पहुंचता, बल्कि मानसिक रूप से भी उन्हें भी प्रभावित करता है।
आईडीआर में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार 2022 की शुरुआत में, सामाजिक उद्यम बेलोंग ने 111 व्यक्तियों से उनकी सामाजिक पहचान, पहचान-आधारित भेदभाव और पूर्वाग्रह के साथ अनुभव, उनके मानसिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य सेवा जैसेकि किसी भी चिकित्सीय या मनोरोग सेवाओं के साथ अनुभव के बारे में एक अध्ययन किया। अध्ययन में पाया गया कि 59 फीसद से ज्यादा प्रतिभागियों ने अपने जीवन में पहचान-आधारित भेदभाव का सामना किया, और उनमें से एक चौथाई को हर दिन ऐसे अनुभवों का सामना करना पड़ा। उनमें से केवल आधे ही मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग कर रहे थे, और जो नहीं कर रहे थे, उन्होंने सामर्थ्य को प्रमुख बाधा बताया।
क्या मानसिक स्वास्थ्य तक पहुंच विशेषाधिकार है
जातिगत और धार्मिक भेदभाव के चलते मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच भी मुश्किल हो जाती है। समाज के निचले तबकों से आने वाले लोग, जो पहले से ही आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर होते हैं, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ नहीं उठा पाते। यह स्थिति उनके मानसिक स्वास्थ्य को और भी अधिक बिगाड़ देती है। सच्चाई यह है कि मानसिक स्वास्थ्य पर जातिगत भेदभाव का प्रभाव एक अदृश्य जाल की तरह काम करता है, जिसे तोड़ना आसान नहीं है। भारत में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों को समझने के लिए जाति और वर्ग के पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। कमजोर आर्थिक वर्ग के लोगों की मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियां अक्सर अनदेखी रह जाती हैं, क्योंकि उनकी जीवन की प्राथमिकताएं और संघर्ष अन्य समस्याओं के साथ मिलकर जटिल हो जाते हैं।
जब आप आर्थिक तंगी में जी रहे होते हैं, तो मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता या उसकी देखभाल अक्सर दूसरी प्राथमिकताओं के पीछे छिप जाती है। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को रोज़मर्रा की जिंदगी में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ती है। यह संघर्ष उन्हें तनाव, चिंता, और अवसाद जैसी समस्याओं की ओर धकेल देता है। शहरों में दिहाड़ी मजदूर, जो अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं, अक्सर इस बात से जूझते हैं कि अगले दिन का भोजन कहाँ से आएगा। ऐसी स्थितियों में, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच उनके लिए एक विशेषाधिकार हो जाती है।
मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं से दूर है हाशिये के समुदाय
जाति और वर्ग के संदर्भ में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की बात करते हुए यह समझना ज़रूरी है कि समाज के निचले तबकों के लिए ये सेवाएं कितनी कठिनाई से उपलब्ध होती हैं। उच्च जाति और आर्थिक रूप से सक्षम लोग जहां मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग कर सकते हैं, वहीं दलित, आदिवासी और अन्य हाशिये के समुदाय इससे वंचित रह जाते हैं। समाज में व्याप्त भेदभाव और पूर्वाग्रह के कारण इन समुदायों के लोग इन सेवाओं तक पहुंच नहीं बना पाते। सरकारी और निजी दोनों ही क्षेत्रों में, ये सेवाएं सामाजिक भेदभाव की वजह से उन लोगों तक नहीं पहुंच पातीं जिन्हें भी इसकी ज़रूरत होती है।
ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं अक्सर अपर्याप्त होती हैं, और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति और भी खराब होती है। दलित, आदिवासी और हाशिये के समुदाय के लोग तो और भी अधिक प्रभावित होते हैं, क्योंकि उनके साथ अक्सर सामाजिक ही नहीं संस्थागत भेदभाव होती है। सरकारी अस्पतालों में, जहां सस्ती और सुलभ सेवाएं होनी चाहिए, वहां भी इन समुदायों के लोगों के साथ असमान व्यवहार किया जाता है। सांस्कृतिक धारणाएं भी मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। विभिन्न जातियों और वर्गों में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति अलग-अलग सांस्कृतिक मान्यताएं हैं, जो मानसिक स्वास्थ्य को समझने और देखभाल के तरीके पर प्रभाव डालती है।
कैसे आर्थिक और शैक्षिक स्थिति मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है
उच्च जातियों और आर्थिक रूप से सक्षम वर्गों में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता और स्वीकृति अधिक हो सकती है, जबकि दलित, आदिवासी या हाशिये के समुदायों और कमजोर वर्गों में अंधविश्वास, कलंक, या शर्म हो सकता है। शिक्षा और जागरूकता की कमी में सुदूर इलाकों और गांवों में, जहां पारंपरिक मान्यताएं आज भी प्रभावशाली हैं, लोग मानसिक समस्याओं को बुरी आत्मा का प्रभाव मान सकते हैं। ऐसे में वे चिकित्सकीय सहायता लेने के बजाय वे धार्मिक अनुष्ठानों और झाड़फूंक का सहारा लेते हैं। यह दृष्टिकोण मानसिक स्वास्थ्य की गंभीरता को न समझने की स्थिति पैदा करता है, जो व्यक्ति को और भी गहरे संकट में डाल सकता है।
इतिहास में जाएं, तो समाज के कुछ वर्गों और जातियों पर सामाजिक और राजनीतिक दबाव हमेशा से रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से हाशिये के समुदाय सदियों से दमन और उत्पीड़न का सामना करते आए हैं। यह दमन केवल शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी था। जब कोई निश्चित समुदाय पीढ़ी दर पीढ़ी अन्याय और भेदभाव का सामना करती है, तो उसका मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है। भारत में जाति और वर्ग के आधार पर मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियां उन लोगों के व्यक्तिगत अनुभवों में गहराई से झलकती हैं जो इन समस्याओं का सामना करते हैं। यह कहानियां केवल किसी व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे समुदाय की आवाज़ बन जाती हैं।
एक किसान का बेटा, जो दलित समुदाय से आता है, जब शहर के कॉलेज में पढ़ाई करने जाता है, तो अमूमन उसे अपने साथियों की नज़र में हमेशा एक अजनबी की तरह देखा जाता है। अक्सर कैंपस में भ जाति आधारित भेदभाव होता है। यह बदलाव सिर्फ सामाजिक नहीं, मानसिक स्तर पर भी गहरी चोट करती है। इसी तरह, एक आदिवासी महिला, जो शहर में घरेलू कामगार के रूप में काम करती है, वह हर दिन केवल शारीरिक श्रम ही नहीं, बल्कि मानसिक उत्पीड़न भी झेलती है। यह उनके आत्म-सम्मान को आहत करता है और उसे अपने ही अस्तित्व पर सवाल उठाने पर मजबूर कर देता है।
कैसे मिलेगा हाशिये के समुदायों को बेहतर मानसिक स्वास्थ्य
इन कहानियों में दर्द, अकेलापन, और हताशा की भावनाएं स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। समाज के भेदभावपूर्ण ढाँचे ने इन लोगों को इतना तोड़ दिया है कि उनके मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति बेहद खराब हो जाती है। लेकिन यह कहानियां केवल एक निराशा की कहानी नहीं हैं। इनमें संघर्ष की वह भावना भी छिपी है जो इस कठिनाई से उबरने की कोशिश करती है। भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति को सुधारने के लिए न केवल वैज्ञानिक बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण की भी जरूरत है। जाति और वर्ग के भेदभाव को समाप्त करने के लिए हमें समाज के हर स्तर पर सुधार की दिशा में कदम बढ़ाने होंगे। मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सबके लिए सुलभ बनाना, और जातिगत और धार्मिक भेदभाव को खत्म करना होगा। इन अनसुनी आवाज़ों को सुनना और समझना चाहिए, ताकि हम एक ऐसा समाज बना सकें जहां हर व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य का अधिकार मिले और जाति, धर्म या वर्ग के आधार पर भेदभाव का कोई स्थान न हो।