समाजख़बर बर्बरता में यौन-सुख का आनंद ढूंढता समाज और सह नागरिकों की चुप्पी

बर्बरता में यौन-सुख का आनंद ढूंढता समाज और सह नागरिकों की चुप्पी

एक महिला का दिनदहाडे बलात्कार होता है और कोई भी व्यक्ति इस अपराध को रोकता-टोकता नहीं है। क्या किसी भी घटना का वीडियो बनाना इस देश के नागरिकों का सबसे जरूरी कर्तव्य बन गया है। बलात्कार जैसी यौन हिंसा की घटना का वीडियो बनाना, उसे इंजॉय करना ये एक समाज की संकीर्ण मनोवृत्ति की तरफ बढ़ने का संकेत है। 

उज्जैन में चार सितंबर को सड़क के फुटपाथ पर एक महिला का बलात्कार होता है। एक बलात्कार कर रहा है दूसरा बलात्कार का वीडियो बना रहा है। सोशल मीडिया पर उसे सर्च किया जा रहा है आखिर कैसे महिला अपराध की हिंसा की घटनाएं इस समाज के लिए आंनद की चीज बनती जा रही हैं। एक महिला का दिनदहाडे बलात्कार होता है और कोई भी व्यक्ति इस अपराध को रोकता-टोकता नहीं है। क्या किसी भी घटना का वीडियो बनाना इस देश के नागरिकों का सबसे जरूरी कर्तव्य बन गया है। बलात्कार जैसी यौन हिंसा की घटना का वीडियो बनाना, उसे इंजॉय करना ये एक समाज की संकीर्ण मनोवृत्ति की तरफ बढ़ने का संकेत है। 

ठीक इसी तरह कोलकाता के मेडिकल कॉलेज में हुई बलात्कार और हत्या की घटना के मामले में सर्वाइवर की वीडियो पोर्न साइट्स पर सर्च की जा रही थी। नाम और तस्वीरें सर्च की जा रही थी। इसी तरह पिछले दिनों उत्तराखंड में हुई बलात्कार की घटना में वीडियो, सर्वाइवर की तस्वीरें और नाम सर्च किया जा रहा था। ये बलात्कार जैसी हिंसा का यौनिकरण है। किसी समाज में ऐसी चीजें बताती हैं कि समाज में यौन-कुंठा किस हद तक व्याप्त है। इन दिनों जितनी तेजी से इंटरनेट पर रेप को सर्च किया जा रहा है और उसे प्लेजर की तरह लिया जा रहा है। इसका सम्बन्ध पितृसत्तात्मक सोच और पूंजीवाद की उपभोक्तावादी प्रकृति से है। 

स्त्री हो या समाज का कोई भी कमजोर वर्ग हो उनके ख़िलाफ़ अपराध करके जिस तरह समाज निर्भय होने की गवाही वीडियो बनाकर सोशल साइट्स पर डालकर सेलिब्रेट कर रहा है ये वर्तमान सत्ता व्यवस्था पर सवाल है।

नागरिक समाज में सामूहिक निष्क्रियता

हमारे समाज में एक सामूहिक उदासीनता और व्यक्तिवाद का चलन बढ़ता जा रहा है। आज देश में महानगर, नगर, कस्बों क्या गाँव में ऐसे हालत हो गये हैं कोई किसी भी अपराध के लिए कोई कुछ नहीं बोलता। कोई हस्तक्षेप नहीं करता है। शहरों में तो पहले से ही इस तरह के व्यवहार को शहरी जीवन का चलन बताया जाता था लेकिन गाँव में ये बात दो दशकों से दिख रही है। इसी मानसिकता के चलते आज देश के शहरों में खुलेआम होते महिला अपराध के मामले में हस्तक्षेप नहीं करते हैं। सार्वजनिक जगहों पर महिला अपराध में हस्तक्षेप न करने का जो मसला है ये सीधे नागरिक कर्तव्यों में सामूहिक निष्क्रियता के मसले से जुड़ता है। महिलाओं के साथ हो रहे अपराध या हाशिये के मनुष्य के साथ हो रहे अपराध में समाज का जो हस्तक्षेप न करने का चलन बढ़ता जा रहा है वो कहीं न कही इसी प्रभाव से जुड़ रहा है। 

समाज में महिला अपराध को लेकर एक सहजता का बनना समाज के असंवेदनशील अवस्था में जाने का संकेत है। इसी उज्जैन में पिछले सितम्बर में ही एक 12 साल की नाबालिग के बलात्कार का घटना सामने आई। नाबालिग आठ किलोमीटर पैदल चलती रही लोगों से मदद माँगती रही लेकिन लोगों ने अपने घरों का दरवाजा बंद कर लिया, किसी ने कोई मदद नहीं की। बच्ची जब बेहोश होकर सड़क पर गिर गयी तब लोगों ने पुलिस को फोन किया। यह समाज का बेहद अमानवीय व्यवहार था। एक नाबालिग जिसके साथ बलात्कार हुआ है और जब वह मदद मांगती है तो कोई कोई सामने नहीं आता है। इसी तरह एक और घटना का वीडियो वायरल हुआ था सड़क पर भीड़ के बीच एक युवक, लड़की को चाकुओं से मार रहा है और किसी ने उसमें हस्तक्षेप नहीं किया था।

In West Bangal Aparajita Bill ups punishment for rape; probe in 21 days, trial in 30 days
तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

आज समाज में महिला अपराध करना और वीडियो बनाना जैसे एक प्रत्याशित क्रिया बन गयी है। कुछ दिन पहले उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के एक गाँव में प्रेम-प्रसंग के मामले में गाँव वालों ने महिला के परिजनों ने (पति और बेटा) महिला को खुलेआम सजा दी। महिला का सिर मुड़ा दिया गया, मुँह पर कालिख़ पोत कर चप्पल जूतों की माला पहनाकर पेड़ से बांधकर पीटा गया और इस अपराध का वीडियो बनाया गया बाकायदा सोशल मीडिया पर डाला गया। हैरान करने वाली बात है कि महिलाओं से अपराध करने वालों को पुलिस या व्यवस्था का कोई खौफ नहीं रहा। वे अपराध कर रहे हैं और वीडियो भी बनाकर डाल रहे हैं।

इसी तरह पिछले साल बनारस के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के परिसर में ही रात को एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार होता है और उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाला जाता है। अपराध करने वाले युवा सत्तापक्ष से संबंध रखते थे ।छात्राओं के घोर प्रतिरोध के कारण पकड़े भी गये तो जमानत पर छूट गए। महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध करके वीडियो बनाकर सोशल साइट्स पर डालना एकदम से पितृसत्तात्मक नीतियों की ही एक क्रिया है। राजस्थान में पिछले साल एक लडक़ी को निर्वस्त्र करके पूरे गाँव में उसके पति ने घुमाया। वहीं लोग वीडियो बनाकर तमाशबीन बने रहे। राजस्थान में ही पिछले महीने की एक और ख़बर है पति ने पत्नी को मोटरसकिल में रस्सी से बांधकर सड़क पर घसीटा और लोग इस बर्बर घटना का भी वीडियो बनाकर तमाशा देखते रहे।

पूंजीवादी ढाँचे में स्त्री का वस्तुकरण

आज जिस तरह से बाजार स्त्री को आंनद लेने की वस्तु की तरह प्रस्तुत कर रहा है उपभोक्तावादी ढाँचे में उसकी नियति यही थी। सामन्ती और बाजारी मानकों में सजी-धजी कमजोर सी दुबली-पतली स्त्रियां बाजार के सौंदर्य खाँचे में रखी गयी हैं उनकी देह का आखिरी कपड़ा भी बाजार खींच ले रहा है, अपने उपभोक्ता के सामने रोमांच से भर देने वाले एक प्रोडक्ट की तरह प्रजेंट कर रहा है। वहाँ स्त्री को मनुष्य की तरह बरता ही नहीं जा रहा है। 

आज नागरिक या तो अपराधी हैं या तमाशबीन हैं। महिलाओं, बच्चों, हाशिये का वर्ग या अल्पसंख्यक समुदाय के मनुष्यों ख़िलाफ़ अपराध होते देखता और चुप रहता है या तो वीडियो बनाकर लाइक्स और कमेंट्स गिनता है।

सामंतियों की आपराधिक प्रवित्तियां

बिहार के जमुई में एक महिला जिस व्यक्ति ले प्रेम करती थी उसके साथ रहने का फैसला करती है। उसका पति पुलिस में शिकायत करता है। महिला को पकड़कर पुलिस थाने लाती है जहाँ से उसका पति उसे अपने घर वापस ले जाता है। वापस लाने वाले मामले में गाँव के लोग नाराज़ हो जाते हैं। पति, पत्नी दोनों को कपड़े उतार कर जूते चप्पल की माला पहनाकर रात को गाँव भर घुमाते हैं। हैरान करने वाली बात है कि जिस मामले में पुलिस शामिल थी उसमें इस तरह की तालिबानी सजा दी गयी।अब सवाल उठता है कि क्या गाँव का कोई ताकतवर आदमी ये कार्य करता तो गाँव वाले इस तरह की सजा देने की हिम्मत करते। यहाँ मसला कमजोर होने, गरीब होने, स्त्री होने और अल्पसंख्यक होने का है। अगर कोई मनुष्य इस दायरे में है तो उसे कुचलने के लिए यहाँ सब ताकतवर बन जाते हैं।

यौन क्रिया का हिंसात्मक रूप उसी सामंती प्रवित्ति का अवशेष होता है। कर्नाटक के प्रज्ज्वल रेवन्ना केस में भी कुछ यही हिंसा में यौन सुख की आपराधिक मनोवृत्ति कार्य करती दिखी। महिला अपराध के लिए समाज की गम्भीरता का आलम ये है कि लखनऊ से सिद्धार्थ नगर जाती एक महिला का एम्बुलेंस में यौन उत्पीड़न होता है। महिला केस को दर्ज कराने के लिए जिस तरह से भटकती रही ये समाज और व्यवस्था का बेहद गैर जिम्मेदाराना रवैया था। आज समाज से पुरातनपंथी विचारों के प्रति अग्रसर हो रहा है कही न कहीं ये उसका भी प्रभाव है। स्त्री हो या समाज का कोई भी कमजोर वर्ग हो उनके ख़िलाफ़ अपराध करके जिस तरह समाज निर्भय होने की गवाही वीडियो बनाकर सोशल साइट्स पर डालकर सेलिब्रेट कर रहा है ये वर्तमान सत्ता व्यवस्था पर सवाल है। आखिर क्या वो अदृश्य रूप से महिलाओं के प्रति अपराध करने के लिए लोगों को निशंक बना रही है।

उन्माद और उदासीनता की बीमारी की तरफ बढ़ता समाज   

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

इन दिनों समाज में मनुष्य की दो प्रवित्तियां संक्रामक बीमारी की तरह उभरी हैं उन्माद और उदासीनता। ये सारे अपराध लोगों के सामने सरेआम हुए हैं लेकिन लोग मात्र दर्शक बने रहें। समाज नागरिकों से बनता है। कुछ नागरिक प्रवित्तियां होती हैं जो उसे नागरिक बनाती हैं जिनमें कर्त्तव्य और अधिकार प्रमुख होते हैं लेकिन ये सारे अपराध लोगों के सामने खुले आम हुए हैं लेकिन लोग मात्र दर्शक बने रहे। बिलकिस बानो के अपराधियों का बच जाना समाज में महिला अपराध के इतिहास में एक बेहद क्रूर अध्याय का जुड़ना है। अपराधियों का फूल माला, आरती से स्वागत हुआ समाज में कोई हलचल नहीं हुई और लोग मूक दर्शक बनकर सबकुछ देखते रहे।  

समाज की पितृसत्तात्मक सोच और सामंती प्रवित्ति पहले से ही भीतर तक धसीं हुई है। जिसमें कमजोरों के साथ अपराध को अपराध की तरह न लेने की सोच होती है। वे स्त्रियों, गरीब तबकों और अल्पसंख्यकों के साथ होते अपराध को लेकर काफी हद तक असंवेदनशील होता है। ये हमेशा से ही दिखा है कि कमज़ोरों और स्त्रियों को सामने देखकर समाज में लोगों की अपराध करने की प्रवित्ति बढ़ जाती है। लेकिन आज के समय में जितनी तेजी से इन अपराधों की संख्या में इजाफा हुआ है वो समय की राजनीतिक सत्ता पर सवाल है।

आज जब अपराध का इस तरह ग्लोरिफिकेशन समाज कर रहा है इस समय साफ झलकता है कि अपराध के कारण राजनीतिक अर्थशास्त्र में कहीं न कहीं छिपे हुए हैं। जो समाज हमारे सामने उभर कर आया है वो एक संवेदनशील नागरिक समाज नहीं है। आज नागरिक या तो अपराधी हैं या तमाशबीन हैं। महिलाओं, बच्चों, हाशिये का वर्ग या अल्पसंख्यक समुदाय के मनुष्यों ख़िलाफ़ अपराध होते देखता और चुप रहता है या तो वीडियो बनाकर लाइक्स और कमेंट्स गिनता है। इस प्रक्रिया से हम आज एक अजीब किस्म के बीमार समाज में बदल रहे हैं। समाज आज जिस तरह से दोषियों को जाति वर्ग, सम्प्रदाय में चिन्हित कर रहा है इस तरह समाज खुद अपराधी के रूप में चिन्हित हो रहा है।


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