भारत में ईंट बनाना एक असंगठित क्षेत्र के महत्वपूर्ण उद्योगों में से एक है जो मुख्य रूप से ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों तक सीमित है। यह उद्योग पूरे भारत में फैला हुआ है। ईंट उद्योग में बड़ी संख्या में महिला मजदूरों को अकुशल काम के लिए नियुक्त किया जाता है। सेमी-स्किल और कुशलतापूर्वक कामों के लिए पुरुषों पर ज़्यादा भरोसा जताया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाएं मुख्य रूप से खेत से भट्टे तक बिना जली हुई ईंटें ले जाने का काम करती हैं और मोल्डिंग की प्रक्रिया में पुरुषों की मदद करती हैं।
ईंट उद्योग में भारत, चीन के बाद दुनिया में दूसरे सबसे बड़े उत्पादन वाले देश के रूप में माना जाता हैं। यहां कम से कम रोज लगभग 100 बिलियन इकाइयों का उत्पादन होता है। इन भट्टों में काम करने वाले मजदूर बेहद गरीबी में रहते हुए और बिना किसी नौकरी की सुरक्षा या सामाजिक लाभ के कम पैसों में काम करते हैं। इनकी काम करने की स्थिति बेहद दयनीय है। ये लंबे समय तक काम करने वाली और सरकार द्वारा अधिनियमित श्रम कानूनों से किसी भी प्रकार सुरक्षा के बिना मजदूरी करते हैं। इन श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, कर्मचारी बीमा अधिनियम, मातृत्व लाभ अधिनियम के तहत किसी भी तरह का कोई लाभ नहीं मिलता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ईंट निर्माण उद्योग को एक असंगठित क्षेत्र के रूप में देखा जाता है।
मालोंचो में रहने वाली 22 वर्षीय ममता बीबी का कहना है, “वैसे देखा जाए तो ये परेशानी हमेशा की है और लगता है ये कभी खत्म भी नहीं होगी। यह भी सच है कि कोई हमें सिर्फ़ 4-5 महीने के लिए काम पर क्यों रखे? ऑफ-सीजन में लोकल जगहों पर काम ढूंढना बहुत मुश्किल है क्योंकि वे जानते है हम इधर ईंट भट्टियों में काम करते हैं इसलिए वे हमें काम पर नहीं रखते।”
यह उद्योग पारंपरिक और मुख्य रूप से अप्रवासी मजदूरों पर निर्भर है। बात जब महिला मजदूरों की आती है तो स्थिति और भी खराब हो जाती है। महिला मजदूरों के साथ होने वाला भेदभाव और उनकी बदतर स्थिति केवल भारत के विभिन्न ईंट-भट्टों तक ही सीमित नहीं है; यह एक व्यापक समस्या है जो पूरे देश में फैली हुई है। महिलाओं को अक्सर शारीरिक रूप से अधिक श्रमसाध्य कार्यों में लगाया जाता है। उन्हें कुशल और सेमी-स्किल कार्यों से दूर रखा जाता है। यह भेदभाव न केवल उनके कार्य के स्वभाव में, बल्कि उनके वेतन में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
ऐसे ही हालात पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के बसीरहाट निर्वाचन क्षेत्र में स्थित मालोंचो गांव में भी देखने को मिलते हैं। मालोंचो की ईंट भट्टियों में काम करने वाली महिलाएं भी इन्हीं समस्याओं का सामना करती हैं। वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं लेकिन इसके बावजूद उन्हें समान वेतन और सम्मान नहीं मिलता है। महिलाएं अपने परिवार की आर्थिक सुरक्षा के लिए दिन-रात मेहनत करती हैं लेकिन उनका संघर्ष अक्सर अनसुना रह जाता है। अक्टूबर से जून के महीने तक काम चालू रहता है लेकिन बारिश के महीनों में ईंट सुखाना मुश्किल हो जाता है तो काम बंद हो जाता है। इस अवधि में ईंट उद्योग का काम सब बंद हो जाते हैं तो महिलाओं को नए संघर्षों का सामना करना पड़ता है। इस दौरान उनके पास कोई स्थायी आय नहीं होती होती है।
ईंट भट्टों में काम करने वाली महिलाओं की भूमिका
मालोंचों में स्थिति ईंट भट्टों पर काम करने वाली महिला श्रमिक मूल रूप से मट्टी को ढालना और बनी हुई ईंटों की ढुलाई में शामिल होती हैं। हालांकि ध्यान देने वाली बात यह भी है इतने काम के बावजूद इन महिलाओं को अच्छे ईंट बाछने की ज़िम्मेदारी भी दी जाती हैं, जिसमें बेहद ध्यान और कौशल की ज़रूरत होती है। ऐसे कामों में महिलाओं की सुरक्षा भी एक अहम मुद्दा हैं। गर्मियों के मौसम में अधिक तापमान में भी ये महिलाएं बिना किसी समय-सीमा और ब्रेक के निरंतर काम करती पायीं जाती है। वे रोजगार के लिए अनेक चुनौतियों से घिरी होती है। इतना ही नहीं उन्हें कई बार अपमान और अपशब्दों का भी सामना करना पड़ता है जो उनके अतमाविश्वास को गहरे तरीके से आहत करता है। इस तरह के व्यवहार का उनके मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है।
ऑफ-सीजन काम के संघर्ष
ईंट बनाने का मौसम खत्म होने पर चुनौतियां खत्म नहीं होती बल्कि ऑफ-सीजन के दौरान मुश्किले और बढ़ जाती है। ईंट भट्टे बंद हो जाने के बाद मजदूरों को बिना मजदूरी के दिए ही छोड़ दिया जाता हैं। महिला श्रमिकों के लिए यह समय विशेष रूप से काफ़ी मुश्किल भरा होता है। ऑफ-सीजन में काम न मिलने के कारण, वे अक्सर अस्थायी रूप से वैकल्पिक उपचारों के तरफ़ जाती है। इस दौरान वे मछली साफ़ करने जैसे कामों में हिस्सा लेती है। कुछ महिलाएं स्कूलों में झाड़ू देने का काम भी करती हैं और इसके इलावा अन्य मजदूर, मालिकों के ईंट भट्टों के ऊपर खेती का काम करती है। वे अपनी उगाई हुई कुछ फसल घर के लिए बचाती है। जिसमें पोई साग, खीरे और कुछ अन्य फसल शामिल है। ऑफ सीजन में काम ढूंढना न केवल मुश्किल है बल्कि अनिश्चित भी हैं।
“कम पैसों में घर चलाना मुश्किल होता है”
मालोंचो में रहने वाली 22 वर्षीय ममता बीबी का कहना है, “वैसे देखा जाए तो ये परेशानी हमेशा की है और लगता है ये कभी खत्म भी नहीं होगी। यह भी सच है कि कोई हमें सिर्फ़ 4-5 महीने के लिए काम पर क्यों रखे? ऑफ-सीजन में लोकल जगहों पर काम ढूंढना बहुत मुश्किल है क्योंकि वे जानते है हम इधर ईंट भट्टियों में काम करते हैं इसलिए वे हमें काम पर नहीं रखते।” ईंट भट्टों में काम करने के अनुभव पर आगे वह सिसकते हुए कहती है, “हम लोगों के पास कोई चारा नहीं है। जब भट्टे बंद हो जाते हैं तो हम जो भी काम पा सकते हैं वह करते हैं। मुझे साड़ी का कोई काम मिल जाता है तो वो करती हूं नहीं तो बच्चा संभालती हूं।”
ऑफ-सीजन में बिना काम के घर चलाने के सवाल पर ममता बताती हैं, “ मेरे पति यही सामने घोटोकपुकुर में बैग सिलाई का काम करते हैं, पहले मिनाखां में करते थे, उससे जो भी थोड़ा बहुत होता है घर चल जाता हैं। लेकिन उस में इतना बड़ा परिवार चलाना मुश्किल है। मेरे ससुर बीमार पड़े है उनके इलाज के लिए बहुत पैसे लगते है। महीने में करीब 8-10 हज़ार उनके इलाज और शहर आने जाने में खर्च हो जाते है फिर हमारे हाथ में कुछ भी नहीं बचता।” ममता का जीवन एक तरफ जहां उनके संघर्ष और धैर्य का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर यह दिखाता है कि उनके जैसी महिलाओं के पास कितने कम अवसर हैं। शारीरिक थकान और आर्थिक अनिश्चितता के बावजूद, ममता अपने छोटे बच्चें के बेहतर भविष्य की उम्मीद में लगातार काम करती रहती हैं। वह कहती हैं, “मैं चाहती हूं कि ये पढ़ाई करें और कोई अच्छा रास्ता चुनें, हमारी तरह अपने जीवन को ईंट भट्टियों में न झोंके”।
38 वर्षीय सकीना बीबी पिछले दस वर्षों से मालोंचो में स्थिति ईंट भट्टों में काम कर रही हैं। वह कहती हैं, “दिन में 10-12 घंटे काम करने के बाद शरीर थक जाता है तब हिम्मत नहीं होती कि कोई और काम करें लेकिन फिर भी औरत हूं तो खाना बनाने की ज़िम्मेदारी मुझ पर ही आती है। घर में बच्चें है तो उनको खिलाने के लिए खाना बनाना ही पड़ता है।” वह आगे कहती हैं, “यहां दिन में जो जितना काम करता है उन्हें उतने पैसे मिलते हैं। दिन भर में 300-400 का काम कर लेते हैं जिससे हफ़्ते में 2500 तक की कमाई कर पाते हैं लेकिन इतने पैसे में घर चलाना मुश्किल हो जाता है।”
ईंट भट्टों पर काम करने वाले मजदूरों में अधिकतर लोग दलित समुदाय के है। 2021 के सी-प्रिंटिया मूल्यांकन के अनुसार, भारत में ईंट भट्टों में काम करने वाले प्रवासियों में से 47% अनुसूचित जाति (एससी) हैं, 16% अनुसूचित जनजाति (एसटी) हैं और 32% अन्य पिछड़े वर्ग से हैं। इसकी तुलना में, भारत में कुल प्रवासी कार्यबल का 18.8% एससी है और 7.7% एसटी शामिल है। इससे आगे ऑफ-सीजन की कठिनाइयों के बारे में बात करते हुए सकीना साझा करती हैं, “काम तो काम है इसलिए मिलना थोड़ा मुश्किल हो जाता है, क्योंकि हम कम पढ़े-लिखे है इसलिए बेहतर रोजगार की पहुंच हम तक बहुत कम ही आती है। लेकिन मुझे जो भी काम मिलता है मैं कर लेती हूं। अभी इधर ईंट भट्टे के मालिक के लिए पोई साग और खीरे चाष (खेती के लिए बांग्ला का एक शब्द) करती हूं, उसका थोड़ा हिस्सा घर के लिए रख लेती हूं तो खाने के समस्या का कुछ हद तक समाधान हो जाता है। बचे हुए खर्चे के लिए जो भी थोड़ा बहुत काम मिल जाता है कर लेती हूं।”
“ईंट भट्टे में काम करना आसान नहीं है”
मालोंचो में रहने वाली तीस वर्षीय हसीना बीबी बीते चार सालों से अपनी बुजुर्ग माँ और बच्चों के साथ एक छोटे से घर पर रहती है। हसीना का एक पैर पूरे तरीके से काम नहीं कर पाता है। वह अपने पति से चार सालों से अलग है। अपने जीवन की कठिनाइयों के बारे में साझा करते हुए बताती है, “मेरी माँ अभी 61 बरस की हैं। मेरे पिताजी का निधन मेरी शादी से पहले ही हो गया था। उस समय माँ बाज़ार में सब्ज़ी बेचकर गुज़ारा करती थीं। अब मैं अपने तीन बच्चों और माँ के साथ इसी छोटे से घर में रहती हूं। चूंकि मैं शारीरिक रूप से विकलांग हूं और अपने पति को सुख नहीं दे सकी इसलिए उन्होंने दूसरी शादी कर ली और मुझसे किनारा कर लिया। तब से ही मैं ईंट भट्टी में काम करना शुरू कर दिया था।”
हसीना बीबी की ज़िंदगी की मुश्किलों के बारे में बताते हुए कहती है, “ईंट भट्टी में काम करना आसान नहीं है, खासकर मेरे जैसे हालात में लेकिन कोई दूसरा रास्ता नहीं था। रोज़ सुबह उठकर भारी ईंटें उठाना और दिनभर तपती धूप में काम करना मेरे लिए ज़रूरी हो गया था और न जाने कहां से ताकत मिल जाती थी काम करने के लिए, सो मैं करती रहती थी।” वे आगे कहती हैं, “मेरे बच्चें छोटे-छोटे है इसलिए थोड़े ज़िद्दी भी है, मैं उनको वो सब नहीं दे सकती जो बाकी माता-पिता अपने बच्चों के दे सकते है लेकिन मैं हमेशा कोशिश करती हूं उन्हें कमी न महसूस होने दूं। हालांकि ऑफ-सीजन में सबसे ज़्यादा परेशानी मुझे ही होती है लेकिन क्योंकि मैं विकलांग हूं इसलिए लोग मुझ पर तरस खा कर मुझे कोई-सी भी नौकरी दे देते है। लेकिन काम करते करते कभी कभार दर्द उठता है तो बहुत मुश्किल हो जाती है। तब मैं कईं हफ़्ते तक काम करने की स्थिति में नहीं रहती हूं। ऐसे समय में मेरे पड़ोसी मेरी मदद करते है, मेरे बच्चों को अपने घर में खाना खिलाते है।”
इन महिला मजदूरों के जीवन में बहुत सारी चुनौतियां है जिसमें अनिश्चितता और आर्थिक कठिनाई एक आम बात हैं। श्रम की इस अनियमित प्रकृति के कारण ये महिलाएं अन्य विकल्पों की तलाश करने के लिए मजबूर हैं वहां भी रास्ता बहुत आसान नहीं है। इस दौरान वे निश्चित रूप से निर्वाह खेती या शिल्प निर्माण या आस-पास के शहरों में अस्थायी रूप से नौकरियों जैसे विभिन्न साधनों के माध्यम से जीने की कोशिश करती हैं। गरीबी के खिलाफ यह निरंतर लड़ाई न केवल इन महिलाओं के शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, बल्कि उनके मानसिक स्वास्थ पर भी नकारात्मक प्रभाव डालती है। इन महिलाओं के लिए ऐसे सहयोग की तत्काल आवश्यकता है जो उन्हें बेहतर जीवन जीने में मदद कर सके।