समाजकानून और नीति असमान प्रतिनिधित्व और कम वेतन, जानिए क्या कहना है रियल एस्टेट में महिला श्रमिकों का

असमान प्रतिनिधित्व और कम वेतन, जानिए क्या कहना है रियल एस्टेट में महिला श्रमिकों का

रिपोर्ट कहती है घरेलू निर्माण और रीयल एस्टेट में 5.7 करोड़ लोग काम करते हैं। इसमें सिर्फ 70 लाख महिलाएं हैं जो कुल संख्या का 13 फीसदी है। कुल कामगारों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व तो कम है ही साथ ही उनका वेतन भी कम मिलता है। महिला कामगारों को 30 से 40 प्रतिशत तक कम मजदूरी मिलती है।

मध्यप्रदेश की रहनेवाली चंदा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर के शहर के बीचो-बीच बन रही एक ऊंची बहुमंजिला इमारत में मजदूरी का काम करती थीं। लगातार काम कराने के बाद जब ठेकेदार ने चंद्रा के पैसे नहीं दिए तो उन्होंने वहां से काम करना छोड़ शहर के दूसरे हिस्से में जाकर मजूदरी का काम करने लगीं। हमसे फोन पर बात करते हुए वह रोने लगीं। अपने चार हजार पांच सौ रुपये के लिए वह उस जगह के छह-सात चक्कर लगा चुकी है। चंदा कहती हैं,  “मैं जानती हूं कि मेरे पैसे नहीं मिलेंगे, लेकिन पता नहीं क्यों मन में आशा बनी रहती है कि एक बार चली जा शायद ठेकेदार मिल जाएं।”

आपने शहरों में ऊंची बहुमंजिला इमारतों को आकार देने के लिए मजूदर बोझा उठाते, सर्दी में ठिठुरते और धूप में तपते हुए काम करते देखे होंगे। इन्हीं जगह मजूदरी करती कुछ महिलाएं भी दिखती हैं। जो अपने चेहरे को ढके रखती हैं, जिसके बच्चे साइट्स से थोड़ी दूर ही खेलते हैं। काम के साथ-साथ बच्चों पर नज़र उनकी बनी रहती है। निर्माण और रियल एस्टेट में काम करनेवाली चंदा जैसी लाखों महिलाएं हैं। हर दिन ये कई तरह की असमानताओं का सामना करती हैं। ये है भारत में निर्माण और रियल एस्टेट में महिला कामगारों की कहानी। ये केवल शुरुआत है अगर हम महिला कामगारों की स्थिति, प्रतिनिधित्व, मजदूरी की बात करें तो यहां असमानता की चौड़ी खाई देखने को मिलती है।

निर्माण और रियल एस्टेट क्षेत्र में असंगठित कामगारों की स्थिति की बात करें तो उसमें पुरुषों के मुकाबले महिलाओं संख्या में बहुत बड़ा अंतर है। महिला कामगारों को पुरुष श्रमिकों की तुलना में कम वेतन देकर काम लिया जाता है। सलाहकार फर्म प्राइमस पार्टनर्स और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की तरफ से एक रिपोर्ट में कहा गया है कि घरेलू निर्माण और रियल एस्टेट क्षेत्र में काम करनेवाली कुल कर्मचारियों में केवल 12 प्रतिशत महिलाएं हैं। यह रिपोर्ट ‘पिंक कॉलर स्किलिंगः अनलीज़िंग द वीमन्स पावर इन द रियल एस्टेट सेक्टर’ के नाम से जारी की गई है। 

महिला और पुरुष के वेतन में 34.5 प्रतिशत का अंतर है। महिला कामगारों का प्रति घंटा वेतन 26.15 रुपये है। पुरुषों को प्रति घंटे 39.95 रुपये मिलते हैं। इस तरह के अंतर से महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कम वेतन मिलता है। रिपोर्ट के अनुसार इस क्षेत्र में महिलाएं कम वेतन पाती है और बेहद खतरनाक कामों में तैनात है। महिलाएं ईट-भट्ठा, पत्थर की घिसाई, ढुलाई और सहयोगी कार्यों में अधिक शामिल हैं।

न्यूज़ क्लिक में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक रिपोर्ट कहती है कि घरेलू निर्माण और रीयल एस्टेट में 5.7 करोड़ लोग काम करते हैं। इसमें सिर्फ 70 लाख महिलाएं हैं जो कुल संख्या की 13 फीसदी हैं। कुल कामगारों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व तो कम है ही साथ ही उनको वेतन भी कम मिलता है। महिला कामगारों को 30 से 40 प्रतिशत तक कम मजदूरी मिलती है। रिपोर्ट कहती है, यह आंकड़ा निर्माण एवं रियल एस्टेट क्षेत्र में मौजूद लैंगिक असमानता को दर्शाता है।    

महिलाओं को मिलता है कम वेतन

रिपोर्ट के मुताबिक महिला और पुरुष के वेतन में 34.5 प्रतिशत का अंतर है। महिला कामगारों का प्रति घंटा वेतन 26.15 रुपये है। पुरुषों को प्रति घंटे 39.95 रुपये मिलते हैं। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि महिला श्रमिकों की पुरुषों के मुकाबले स्थिति खराब है। उन्हें कम वेतन दिया जाता है। कई स्तिथि में वेतन में अंतर 40-50 प्रतिशत का भी होता है। महिलाओं को केवल आधे महीने ही काम करने की अनुमति होती है। महिलाएं ईट-भट्ठा, पत्थर की घिसाई, ढुलाई और सहयोगी कार्यों में अधिक शामिल हैं। इतना ही नहीं रियल एस्टेट और घरेलू निर्माण में मिड लेवल और सेमी-स्किल्ड रोल्स जैसे साइट सुपरवाइजर, कॉन्ट्रैक्टर, सर्वे, बढ़ई, प्लम्बर, पेंटर और मिस्त्री के तौर पर महिलाएं की भागीदारी बहुत कम होती है। 

अर्चना कहती है, “ तन्ख्वाह तो बहुत कम है। महीने में जितने दिन काम करने है उतना मिल जाता है। अपनी तरफ से तो कोशिश रहती है कि ज्यादा से ज्यादा काम करें तो कुछ शौक पूरे करते है। इसके अलावा कुछ नहीं है। यही मजदूरी का आदमियों को 400 मिलता है।”

रिपोर्ट के अनुसार तकनीकी और प्रबंधन भूमिकाओं (आर्किटेक्चर, सिविल इंजीनियर, सुपरवाइजर) में महिलाओं की संख्या केवल 1.4 फीसदी है। इसमें से 2 प्रतिशत से कम ही शीर्ष पद पर पहुंच पाती है। यह रिपोर्ट घरेलू निर्माण और रियल स्टेट क्षेत्र में काम करनेवाली महिलाओं की मौजूदा असमानता वाली स्थिति को स्पष्ट करती है। महिलाओं कामगारों की स्थिति को जानने के लिए फेमिनिज़म इन इंडिया ने कुछ महिला कामगारों के साथ बातचीत कर उनके काम की स्थिति और उनके अनुभवों को जानने की कोशिश की।

जितना काम उनकी तनख्वाह

तस्वीर में अपने काम की जगह संगीता।

संगीता पिछले दस सालों से मजदूरी का काम कर रही हैं। वह फिलहाल एक कंपनी के साथ महीने की सैलरी के साथ काम करती हैं। उन्हें एक दिन के 300 रुपये मिलते हैं। संगीता अपने लंच ब्रेक में बात करते हुए हमें बताती हैं, “पिछले दस साल से मैं मजदूरी कर रही हूं। 250 रुपये से शुरूआत की थी और आज एक दिन का 300 मिलता है। सुबह दस बजे से शाम पांच बजे तक काम करते हैं। हम साइट पर ईंट ढोने, सीमेंट का मसाला पकड़ाने का काम करते हैं। आज के ज़माने में बात करे तो इतनी कम कमाई में क्या बनता है कुछ भी तो नहीं। बस अपना खर्चा चला रहे हैं।” 

सर्दी में अलाव के सामने बैठकर खाना खाती संगीता और अर्चना।

काम की जगह की चुनौतियों को लेकर सवाल पर संगीता कहती हैं, हम उजाड़ जगह पर काम शुरू करते हैं और पूरी इमारत तैयार हो जाती है। सर्दी हो या गर्मी हमें काम करना है वरना खर्चे कैसे चलेंगे। उजाड़ जगह पर काम करने की परेशानियां तो बहुत है लेकिन कहे किससे और कौन सुनेगा। टॉयलेट जाने के लिए हम औरतों को ऐसी साइट्स पर बहुत परेशानी होती है। कहने को ऑफिस है इस कॉलोनी का लेकिन उसे हम इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। वह तो साहब लोगों के लिए है। हमें तो दूर कहीं झाड़ियों में जाकर ही टॉयलेट करना होता है। पीरियड्स के दिन भी ऐसे ही करते हैं। उन दिनों परेशानी ज्यादा होती है। लेकिन हम ऑफिस टॉयलेट इस्तेमाल नहीं कर सकते। गरीब औरतों के लिए कहा कोई इतना सोचता है कि उन्हें परेशानी होती होगी। हमारा काम लोगों के घर बनाना है। मजदूरी करो और अपनी गुजर-बसर चलाते रहो।”  

“आदमी भारी काम करता है इसलिए उसे ज्यादा रुपया मिलता है”

तस्वीर में अर्चना।

अर्चना एक कामगार हैं। वह रोज के 300 रुपये पर ईट ढोने, सीमेंट मसाला देने जैसे काम करती हैं। वह महीने के लगभग सारे दिन ही काम करती हैं। जब ज़रूरी काम होता है या कभी मन नहीं करता है तो काम पर जाना टाल देती हैं। हमसे बात करते हुए अर्चना कहती है, “हम पढ़े-लिखे तो हैं नहीं तो मजदूरी कर सकते हैं तो इसी काम में लग गए। सुबह आते हैं शाम को चले जाते हैं। पूरा दिन एक घंटे का ब्रेक मिलता है। उसमें खाना खाकर सुस्ताते हैं, अब सर्दी हो रही है तो आग जलाकर उसमें हाथ तापते हैं। गर्मी में बहुत परेशानी होती है। दूर-दूर तक छांव के लिए तरस जाते हैं। सामने पार्क में बैठ जाते हैं पेड़ के नीचे लेकिन गर्मी तो गर्मी है। तन्ख्वाह तो बहुत कम है। महीने में जितने दिन काम करते हैं उतना मिल जाता है। अपनी तरफ से तो कोशिश रहती है कि ज्यादा से ज्यादा काम करें तो कुछ शौक पूरे करते हैं। इसके अलावा कुछ नहीं है। इसी मजदूरी का आदमियों को 400 मिलता है। ठेकेदार कहता है कि तुम सीमेंट का कट्टा नहीं चढ़ा पाओगी, यह वजन का काम है। सिर पर बोझ तो हम भी लादते हैं। बस ऊपर से तय करा हुआ है कि हमें ये काम करना है और इतना रुपया दिया जाएगा। बाकी कर तो हम भी सकते हैं लेकिन ये कहना कि वह भारी काम है तो बुरा लगता है। चलो सीमेंट का कट्टा नहीं उठा पाऊंगी मैं लेकिन हम जो करते हैं वही क्या हल्का है? सिर पर वजन लादकर सीढ़ी चढ़नी क्या आसान होती है।”    

“हम मेहनत से कमाते हैं”

तस्वीर में अंजू।

अंजू एक कंपनी के माध्यम से कंस्ट्रक्शन साइट पर मजूदरी का काम करती हैं। वह सामान ढुलाई, ईंट चढ़ाना और माली का काम भी करती हैं। उन्हें पूरे महीने की एक तारीख को तन्ख्वाह के तौर पर पैसा मिलता है जो एक दिन का 210 रुपया बैठता है। वह पास के ही गांव से अपने काम की जगह पर लगभग दो किलोमीटर का रास्ता पैदल चलकर आती हैं। वह पिछले तीन साल से कंस्ट्रक्शन साइट पर काम कर रही हैं। अंजू का कहना है, “मैं ज्यादातर यहां माली का काम करती हूं। कभी-कभी ठेकदार जी कहते हैं कि आज ईंटें चढ़ानी है तो वह भी कर देते हैं। हमें महीने में चार छुट्टी मिलती है। अक्सर मैं तो रविवार को छुट्टी लेती हूं। उस दिन लगता है कि हां छुट्टी है बच्चे भी घर में होते हैं।” 

कम वेतन के सवाल पर अंजू का कहना है, “अगर आज का माहौल देखें तो हम क्या ही कमा लेते हैं। पूरे महीने कड़ी मेहनत के बाद कट-फिटकर छह हजार रुपये हाथ में आते हैं। बढ़ाने के लिए कुछ कहे तो कोई नहीं सुनता है। कह दिया जाता है जितना मिल रहा हैं उसमें सब्र करना सीख लें। इसके बाद हम क्या ही कहें। फिर ऐसा भी लगता है कि कहीं काम पर से न निकाल दें। काम की जगह और माहौल के बारे में बात करते हुए वे कहती हैं कि हम तो सारा दिन अपने काम काम में लगे रहते हैं जो बता दिया जाता है वो करते हैं। माहौल यहां का ठीक है कोई किसी को परेशान नहीं करता है। साइट्स पर ज्यादा आदमी ही होते हैं लेकिन कभी यहां कोई शिकायत नहीं आई है। हम भी किसी से मतलब नहीं रखते हैं। अपना काम किया और घर चले जाते हैं।”

ये भारत की कुछ महिलाएं हैं जो ऊंची-ऊंची मंजिलों और आलिशान घरों को बनाने में मजदूरी का काम करती है। अपनी कमाई से भारतीय अर्थव्यवस्था को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन इनका काम को लेकर चुनौतियां और वेतन को लेकर जो असमानताएं है वे केवल इन्हीं तक सीमित है। उनको दर्ज करने में ज्यादा दिलचस्पी किसी की नहीं है। यहीं वजह है कि वे खुद जो चल रहा उसके बेहतर मानकर कम शिकायतों के साथ काम कर रही है। क्योंकि वे जानती हैं महिला होने के नाते हम इतना कर रहे हैं वो बहुत बड़ी बात है क्योंकि रूढ़िवादी पितृसत्ता के चलते हर महिला को ये भी नहीं मिलता है।


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