इंटरसेक्शनलहिंसा यौन हिंसा के मामले में महिलाओं के लिए ‘भारत की बेटी, निर्भया या अभया’ जैसे नाम समस्या क्यों है?

यौन हिंसा के मामले में महिलाओं के लिए ‘भारत की बेटी, निर्भया या अभया’ जैसे नाम समस्या क्यों है?

कोई भी महिला नहीं चाहती कि उनके साथ यौन हिंसा की कोई घटना भी हो और फिर उसे बहादुरी का प्रतीक बना दिया जाए। न तो हम महिलाएं खुद को देवी का प्रतीक बनाना चाहते हैं न ही बहादुरी या हिम्मत का।

क्या आपको 16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में चलती बस में एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना याद है? अगर इस सवाल को कुछ इस तरह पूछूँ तो शायद आप सोच में पड़ जाएं कि कौन सी घटना की बात हो रही है। लेकिन जैसे ही ‘निर्भया केस’ कहा जाता है तो आप तुरंत समझ जाएंगे कि यहां किस घटना का ज़िक्र हो रहा है। कुछ इसी तरह कोलकाता के आर जी कर कॉलेज में जूनियर डॉक्टर के साथ हुई बलात्कार की घटना को ‘अभया केस’ का नाम दे दिया गया है। 

रेप सर्वाइवरों या रेप के बाद हत्या जैसे गंभीर अपराध के लिए ‘भारत की बेटी’, ‘निर्भया’, ‘दामिनी’ या ‘अभया’ जैसे नामों का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। जब भी इस क़िस्म की कोई चिंताजनक और गंभीर घटना होती है, तो अमूमन मेनस्ट्रीम मीडिया रेप सर्वाइवर या मृत महिला को कोई न कोई नया नाम दे देते हैं। सुनने में और हेडलाइन के तौर पर ये शब्द बड़े ही आकर्षक लगते हैं और न सिर्फ मीडिया वाले बल्कि आम लोगों के बीच भी ये घटनाएं इन्हीं नामों से प्रचलित हो जाती हैं। लेकिन बलात्कार जैसे संवेदनशील मामलों में ऐसे शब्दों के इस्तेमाल से कुछ समस्याएं भी जुड़ी हैं।

2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले के सन्दर्भ में और कोलकाता के आर जी कर कॉलेज में हुए बलात्कार के संदर्भ में ‘निर्भया’ और ‘अभया’ शब्द का इस्तेमाल समस्याजनक है। इन दोनों ही शब्दों का अर्थ निडर होने से जुड़ा है। लेकिन इनका इस्तेमाल एक क़िस्म का अमानवीयकरण है। यह शब्द सर्वाइवर की पहचान को ‘बहादुरी’ तक सीमित कर देते हैं।

नामकरण क्यों है समस्या

बलात्कार पूरी दुनिया में व्याप्त एक व्यापक समस्या है। इसलिए सर्वाइवर महिलाओं के बारे में हम किस तरह से बात करते हैं और उनके लिए हम किन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं यह बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। ये शब्द सर्वाइवर को देखने के, घटना की गम्भीरता को समझने के हमारे नज़रिए पर गंभीर प्रभाव डालते हैं। यह समझना जरूरी है कि इन नामों के इस्तेमाल का मुद्दा अहम क्यों है और इस ओर ध्यान देना ज़रूरी क्यों है।  

बलात्कार की घटनाओं के विमर्श में ‘व्यंजना’ का मतलब है महिलाओं के साथ हुई हिंसक घटना की कठोर वास्तविकताओं का वर्णन करने के लिए बेसिरपैर टैग देना या अप्रत्यक्ष भाषा का इस्तेमाल करना। हालांकि ये शब्द करुणामय होने का लक्ष्य रखते हैं, लेकिन वे अक्सर स्थिति की गंभीरता को अस्पष्ट कर देते हैं। ये सर्वाइवर की पहचान और मामले की गंभीरता को सीमित कर देते हैं।

कैसे ये नाम यौन हिंसा की गंभीरता को कम करते हैं

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए सुश्रिता

उदाहरण के लिए 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले के सन्दर्भ में और कोलकाता के आर जी कर कॉलेज में हुए बलात्कार के संदर्भ में ‘निर्भया’ और ‘अभया’ शब्द का इस्तेमाल समस्याजनक है। इन दोनों ही शब्दों का अर्थ निडर होने से जुड़ा है। लेकिन इनका इस्तेमाल एक क़िस्म का अमानवीयकरण है। यह शब्द सर्वाइवर की पहचान को ‘बहादुरी’ तक सीमित कर देते हैं। यह घटना के दौरान या उसके बाद वह महिला कैसी यंत्रणा, बेबसी या कठिनाई से गुज़री होगी उसपर पर्दा डाल देते हैं। ऐसे में समाज बलात्कार की सर्वाइवर को सिर्फ एक नजरिए से देखते हैं कि वे बेहद बहादुर हैं जो यौन हिंसा के मामले के बाद जी रही हैं। ये शब्द कायदे से यौन हिंसा को ग्लोरफाइ करते हैं। साथ ही, ये शब्द बलात्कार के बाद हत्या जैसे घटना की गंभीरता को कम कर देते हैं। 

भले ही इन शब्दों का इस्तेमाल सर्वाइवर को सम्मान देने के लिए किया जाता हो, लेकिन ये अखिरकार उनके अनुभवों की जटिलता को कम कर देते हैं। यौन हिंसा के मामले में हरेक महिला का अनुभव और गंभीरता अलग-अलग होती है। इसलिए, एक जैसे नाम देकर उन सभी घटनाओं का सामान्यीकरण कर दिया जाता है। इसके साथ ही ये कहीं न कहीं व्यवस्थागत खामियों और पितृसत्तात्मक समाज की खामियों पर पर्दा डालने का काम भी करते हैं और पूरी घटना को सनसनी के रूप में प्रस्तुत करने का और घटना का महिमामंडन करने का काम करते हैं। 

बलात्कार की घटनाओं के विमर्श में ‘व्यंजना’ का मतलब है महिलाओं के साथ हुई हिंसक घटना की कठोर वास्तविकताओं का वर्णन करने के लिए बेसिरपैर टैग देना या अप्रत्यक्ष भाषा का इस्तेमाल करना। हालांकि ये शब्द करुणामय होने का लक्ष्य रखते हैं, लेकिन वे अक्सर स्थिति की गंभीरता को अस्पष्ट कर देते हैं।

समाज का दोहरा रवैया

फेमिनिज़म इन इंडिया

अफसोस की बात है कि एक ऐसा समाज जिसका ढांचा ऐसा हो जहां किसी महिला के लिए बहादुर होना मुश्किल हो, जहां महिलाएं हर पल इस डर के साए में जी रही हों कि वे कभी भी, कहीं भी यौन हिंसा का सामना कर सकती हैं। एक ऐसा समाज जो बचपन से महिलाओं को अजनबियों से डरने, हिंसा का सामना होने से बचने के लिए डरकर रहने की सलाह देता है, किसी महिला के साथ इस तरह की घटना होने पर उसे निडर साबित करने पर तुल जाता है। जहां ‘भारत की बेटी’ जैसे शब्द लैंगिक हिंसा का सामना कर चुकी महिला की पहचान को किसी की बेटी होने तक सीमित कर देती है। वहीं ‘हाथरस पीड़िता’ जैसे शब्द के माध्यम से उसकी पहचान को एक जगह तक सीमित कर दिया जाता है।

जहां ‘भारत की बेटी’ जैसे शब्द लैंगिक हिंसा का सामना कर चुकी महिला की पहचान को किसी की बेटी होने तक सीमित कर देती है। वहीं ‘हाथरस पीड़िता’ जैसे शब्द के माध्यम से उसकी पहचान को एक जगह तक सीमित कर दिया जाता है।

मीडिया की भूमिका

इस तरह के शब्दों के प्रचार में मीडिया एक बहुत अहम भूमिका निभाती है। मीडिया के लिए इस तरह की खबरें ब्रेकिंग न्यूज़ होती हैं। मीडिया चैनलों पर और प्रिन्ट मीडिया में बलात्कार सर्वाइवर के लिए इस्तेमाल किया गया कोई विशेष शब्द हम इतनी बार सुनते हैं या पढ़ते हैं कि वही शब्द हमारे ज़हन में बैठ जाता है। इस सबसे बीच हम ये भूल जाते हैं कि किसी भी यौन हिंसा या दुर्घटना के लिए व्यक्ति डर सकता है, घबरा सकता है या उसके उस घटना में किसी का व्यक्त करने का तरीका अलग-अलग ही सकता है। बलात्कार या यौन हिंसा के खिलाफ़ हम कितने डटकर खड़े रहे, इससे हमारी बहादुरी या व्यक्तित्व तय नहीं होना चाहिए।

सर्वाइवर की सामाजिक पहचान

फेमिनिज़म इन इंडिया

सर्वाइवर की सामाजिक पहचान सिर्फ कमज़ोर या बहादुर नहीं हो सकता। ऐसे नामों से उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि कहीं पूरी तरह गुम हो जाती है। उदाहरण के लिए अगर यहां ‘हाथरस केस’ का हवाला दूं तो इस केस में 19 साल की दलित लड़की के साथ कथित उच्च जाति के लोगों ने बलात्कार किया था। यहां अगर हम इस केस को केवल ‘हाथरस केस’ कहेंगे या इसी नाम से याद रखेंगे तो इस केस से जुड़ी बहुत सी ज़रूरी जानकारियों की ओर हमारा ध्यान नहीं जाएगा। हम यह भूल जाएंगे कि किस तरह से किसी महिला की सामाजिक पृष्ठभूमि की वजह से उसके साथ यौन हिंसा की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। ऐसा करने  से महिलाओं की न्याय की लड़ाई एक अन्तहीन लड़ाई बन जाती है, जैसाकि हाथरस में हुई बलात्कार की घटना के चार साल बीत जाने के बाद भी सर्वाइवर को न्याय नहीं मिला है। 

किसी भी यौन हिंसा या दुर्घटना के लिए व्यक्ति डर सकता है, घबरा सकता है या उसके उस घटना में किसी का व्यक्त करने का तरीका अलग-अलग ही सकता है। बलात्कार या यौन हिंसा के खिलाफ़ हम कितने डटकर खड़े रहे, इससे हमारी बहादुरी या व्यक्तित्व तय नहीं होना चाहिए।

इसी तरह अभया और निर्भया जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने से हमारा ध्यान अपराध करनेवालों के बजाए सर्वाइवर को हीरो की तरह प्रस्तुत करने की ओर चला जाता है। लैंगिक हिंसा के कवरेज के लिए जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाता है, उससे सामाजिक धारणाओं और लोगों की प्रतिक्रियाओं पर गहरा असर पड़ता है। ऐसी घटनाएं होने के बाद सर्वाइवर के नाम पर स्लोगन बनते हैं, कविताएं तो लिखी जाती हैं जैसाकि निर्भया केस में ‘निर्भया अमर रहे’ और कोलकाता मामले में ‘वी आर अभया’ जैसे स्लोगनों का इस्तेमाल किया गया, लेकिन क्या हम अन्दाजा भी लगा सकते हैं कि वह किसी भी महिला के लिए हमारे देश में न्यायायिक व्यवस्था तक सिर्फ पहुंचना ही कितना मुश्किल होता है।

यौन हिंसा के मामले में बहादुरी का पैमाना

कोई भी महिला नहीं चाहती कि उनके साथ यौन हिंसा की कोई घटना भी हो और फिर उसे बहादुरी का प्रतीक बना दिया जाए। न तो हम महिलाएं खुद को देवी का प्रतीक बनाना चाहते हैं न ही बहादुरी या हिम्मत का। महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा में विशेषकर उनके मृत्यु के बाद उन्हें अमर बनाने की समाज की कोशिश और किसी अखबार या मीडिया चैनल की सनसनीखेज खबर मात्र बना देना समस्याजनक है। महिलाएं एक सुरक्षित समाज चाहतीं हैं, जहां वे बिना डर के जी सकें और अपने सपनों को पूरा कर सकें। एक ऐसा समाज जहां एक व्यक्ति के तौर पर आज़ाद होकर जीने में हमें अनेक मुश्किलों का सामना न करना पड़े और उन्हें उनके अधिकारों से वंचित न किया जाए।

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