हाल ही में अर्न्स्ट एंड यंग की एक महिला कर्मचारी की मौत ने एक बार फिर से वर्कप्लेस तनाव और उसके हानिकारक प्रभावों पर नजर डालने पर मजबूर कर दिया है। देखा जाए तो आज यह मामला केवल एक कंपनी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह कार्यस्थल के दबाव और वर्क-लाइफ बैलेंस की कमी के गंभीर मुद्दे को उजागर करता है। कार्यस्थल पर काम के दबाव और व्यक्तिगत जीवन के संघर्षों के बीच तालमेल बैठाना महिलाओं के लिए हमेशा से एक चुनौती रहा है। अर्न्स्ट एंड यंग की घटना ने कॉर्पोरेट जगत और अन्य क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की स्थितियों पर सवाल खड़े किए हैं। वहीं, आईआईएम अहमदाबाद की हालिया रिपोर्ट इस समस्या को और गहराई से समझने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में सामने आई है। इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में केवल 32.25 फीसद महिलाएं ही वर्कलाइफ बैलन्स कर पाती हैं,जो अवैतनिक घरेलू काम से जुड़ी चुनौतियों को उजागर करता है।
ईवाई कर्मचारी की मौत और आईआईएम अहमदाबाद की रिपोर्ट
अर्न्स्ट एंड यंग (ईवाई) की एक महिला कर्मचारी की मौत ने देशभर को चिंता में डाल दिया है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार ईवाई में चार्टर्ड अकाउंटेंट की फर्म में शामिल होने के चार महीने बाद जुलाई में मृत्यु हो गई। उनके माता-पिता ने आरोप लगाया है कि उनकी नई नौकरी में ‘काम के अत्यधिक दबाव’ ने उनके स्वास्थ्य को प्रभावित किया और उनकी मृत्यु का कारण बना। यह घटना कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे और काम के भारी बोझ के नकारात्मक प्रभाव को उजागर करती है। यह सवाल उठता है कि आखिर क्यों कामकाजी महिलाओं को अपने कार्यस्थल पर इतनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, और क्या उनके लिए कोई समाधान मौजूद है?
वहीं आईआईएम अहमदाबाद के जारी की गई रिपोर्ट में भारत में महिलाओं के वर्कलाइफ बैलन्स पर रोशनी डाली गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में केवल 46.1 फीसद जिलों ने शैक्षिक सशक्तिकरण की सूचना दी। अध्ययन में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (एनएफएचएस-4) और एनएफएचएस-5 से देश भर के कुल 705 जिलों की 15 से 49 वर्ष की महिलाओं के आंकड़ों की तुलना और विश्लेषण किया गया। रिपोर्ट में 67.5 प्रतिशत जिलों में महिलाओं को निर्णय लेने और गतिशीलता में सशक्त बताया गया है। लेकिन महिला साक्षरता दर में वृद्धि के बावजूद, मात्र 46.1 फीसद जिलों में शैक्षिक सशक्तिकरण देखा गया।
रीमोट कामकाज और समस्याएं
आजकल, रिमोट वर्चुअल मीटिंग एक प्रचलित और व्यापक रूप से अपनाई जाने वाली प्रथा बन गई है। हाइब्रिड वर्क के ज़माने में, पेशेवर और व्यक्तिगत जीवन के बीच की सीमाएं धुंधली होती जा रही हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय महिलाएं अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में काफी अधिक तनावग्रस्त होती हैं, जिसका मुख्य कारण ‘वर्क लाइफ बैलन्स की कमी’ है। योरदोस्त के ‘कर्मचारियों की भावनात्मक कल्याण स्थिति’ में ये शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि 21 से 30 वर्ष की आयु के कर्मचारी सबसे अधिक तनावग्रस्त जनसांख्यिकीय थे। कामकाजी जीवन में संतुलन की कमी तनाव का मुख्य कारण समझ आता है, जहां 18 फीसद महिलाओं ने व्यक्तिगत और पेशेवर काम में कठिनाइयों को स्वीकार किया है। महिलाओं ने अन्य प्रमुख तनावों के रूप में रेकॉगणिशन, कम मनोबल और जज किए जाने के डर को भी चिह्नित किया।
क्या घरवाले कामकाजी महिलाओं का देते हैं साथ
कामकाजी जीवन में महिलाओं का संतुलन बना रहे इसके लिए जरूरी है कि महिलाओं न सिर्फ दफ्तरों में बल्कि घरों में समर्थन मिले। अमूमन कामकाजी महिला को भी घर की जिम्मेदारी से छुटकारा नहीं मिलती। योरदोस्त के सर्वेक्षण में कई क्षेत्रों के कर्मचारी शामिल थे। इसमें बताया गया कि 21 से 30 वर्ष की आयु के 64.42 फीसद कर्मचारियों ने तनाव के उच्च स्तर की बात कही। इसके बाद 31 से 40 वर्ष की आयु के व्यक्तियों में उच्च तनाव पाया गया। वर्क लाइफ बैलन्स पर बिहार के पूर्णिया विश्वविद्यालय की सहायक प्रोफेसर राधा साह कहती हैं, “मैं कैसे मैनेज करती हूँ, ये मैं ही जानती हूं। काम पर जाने से पहले और घर आकर भी घर के काम और बच्चों की जिम्मेदारी होती हैं। मेरे से उलट मेरे पति को इन कामों में इतना योगदान देने की जरूरत नहीं होती, जितना मुझे करना पड़ता है।”
मैं कैसे मैनेज करती हूँ, ये मैं ही जानती हूं। काम पर जाने से पहले और घर आकर भी घर के काम और बच्चों की जिम्मेदारी होती हैं। मेरे से उलट मेरे पति को इन कामों में इतना योगदान देने की जरूरत नहीं होती, जितना मुझे करना पड़ता है।
माँ बनने के बाद कामकाजी महिलाओं की चुनौतियां
हमारा समाज महिलाओं को आधुनिक महिला और बहुआयामी बनने की छूट तो दे दी। लेकिन, ऐसे में महिलाओं पर से जिम्मेदारी कम होने की जगह और बढ़ते चले गए। आज महिलाएं अलग-अलग भूमिकाएं निभा रही हैं। लेकिन, एक महिला के सामने वर्क लाइफ बैलन्स की सबसे बड़ी चुनौती तब होती है, जब वह माँ बनती है, और उसे परिवार और काम के बीच चुनाव करना पड़ता है। कोलकाता की संगमित्रा सेन (नाम बदला हुआ) कहती हैं, “मैं पहले भी बहुत बड़े पैमाने पर नौकरी नहीं करती थी पर माँ बनने के बाद मैं अबतक काम शुरू नहीं कर पाई हूं। मेरा बेटा लगभग 3.5 साल का है। बहुत मन होता है कि और कुछ नहीं तो अपने मन की लिखना शुरू करूँ। पर हो नहीं पाता।” महिलाओं के लिए वर्क लाइफ बैलन्स की यह समस्या नई नहीं है। भारत में पारिवारिक और सामाजिक ढांचे के कारण महिलाओं पर घरेलू जिम्मेदारियों का बोझ हमेशा अधिक रहा है। कामकाजी महिलाओं को न केवल अपने पेशेवर जीवन में सफल होना होता है, बल्कि उन्हें अपने घर और परिवार की देखभाल भी करनी होती है। नतीजन वे हमेशा दोहरी जिम्मेदारी निभाती हैं, जिससे मानसिक और शारीरिक थकान बढ़ती है।
क्या कामकाजी महिलाओं को मिलता है आराम
शहरीकरण और आधुनिकीकरण के कारण भारतीय परिवारों में तेजी से बदलाव आ रहे हैं। लगभग सभी सामाजिक वर्गों की भारतीय महिलाओं ने अपने घरों में आय की पूर्ति के लिए नौकरियां अपनाईं। भारतीय महिलाएं विशेषकर शहरी क्षेत्रों में पहले से ज्यादा शिक्षित हो रही हैं। इससे न केवल नई संभावनाएं खुली हैं, बल्कि जागरूकता और व्यक्तिगत विकास की आकांक्षाएं भी बढ़ी हैं। इसने, वित्तीय दबाव के साथ मिलकर, हालांकि महिलाओं के श्रम बल में प्रवेश करने के फैसले को प्रभावित किया है। लेकिन भारत में कामकाजी विवाहित महिलाओं के अधिकांश अध्ययनों ने वित्तीय जरूरतों को काम करने को नौकरी करने का प्राथमिक कारण बताया है। देश में खासकर महिला कर्मचारियों के बीच वर्क लाइफ बैलन्स संतुलन चर्चा का विषय बनता जा रहा है। हमारे पितृसत्तातमक समाज में महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे परिवार की जरूरतों को सबसे ज्यादा प्राथमिकता दें, भले ही वे घर से बाहर काम करती हों या नहीं। उनकी प्राथमिक भूमिका घर और बच्चों की देखभाल करना माना जाता है, और घर से बाहर उनके रोजगार को अभी भी कमतर आँका जाता है।
मैं पहले भी बहुत बड़े पैमाने पर नौकरी नहीं करती थी पर माँ बनने के बाद मैं अबतक काम शुरू नहीं कर पाई हूं। मेरा बेटा लगभग 3.5 साल का है। बहुत मन होता है कि और कुछ नहीं तो अपने मन की लिखना शुरू करूँ। पर हो नहीं पाता।
मानसिक स्वास्थ्य और काम का दबाव
ईवाई कर्मचारी की मौत के बाद यह चर्चा और भी बढ़ गई है कि कॉर्पोरेट जगत में काम का अत्यधिक दबाव महिलाओं पर किस तरह के मानसिक स्वास्थ्य प्रभाव डालता है। मानसिक तनाव के कारण महिलाओं में अवसाद, चिंता, और आत्महत्या से मौत की प्रवृत्ति जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं। जब तक कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए बेहतर समर्थन प्रणाली और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील माहौल नहीं बनाया जाएगा, तब तक ऐसी घटनाएं होती रहेंगी। कामकाजी महिलाओं के सामने आने वाली एक अन्य प्रमुख समस्या कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव भी है। यह भेदभाव उनके पेशेवर जीवन को और कठिन बना देता है। कई बार महिलाएं अपनी काबिलियत के बावजूद उन्नति और प्रमोशन से वंचित रह जाती हैं, जो उन्हें मानसिक रूप से हताश कर देता है।
क्या हो सकता है समाधान की दिशा में कदम
महिलाओं के लिए वर्क लाइफ बैलन्स के लिए जरूरी है कि समाज और कार्यस्थल दोनों में बदलाव आए। कार्यस्थलों पर महिलाओं के लिए लचीले काम के घंटे, मातृत्व अवकाश, और मानसिक स्वास्थ्य के लिए समर्थन जैसी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए। इसके अलावा, घरेलू जिम्मेदारियों को भी परिवार के अन्य सदस्यों के साथ साझा किया जाना चाहिए ताकि महिलाओं को राहत मिल सके। आईआईएम अहमदाबाद की रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई है कि कंपनियों को महिलाओं के कार्य-जीवन संतुलन को ध्यान में रखते हुए नीतियों का पुनर्विचार करना चाहिए।
इनमें काम के घंटे, कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा, और मानसिक स्वास्थ्य सहायता जैसे पहलू शामिल हैं। कंपनियों को यह समझने की आवश्यकता है कि संतुलित और खुशहाल कर्मचारी ही बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर खुलकर बात करने और समय पर सहायता प्राप्त करने से महिलाओं को तनाव से बचने में मदद मिल सकती है। इसके अलावा, कार्यस्थल पर लैंगिक समानता को बढ़ावा देकर महिलाओं को मानसिक तनाव से बचाया जा सकता है। सरकार और कंपनियों दोनों को मिलकर महिलाओं के लिए बेहतर कार्यस्थल नीतियां बनाने की दिशा में कदम उठाने चाहिए। साथ ही, समाज में महिलाओं के प्रति धारणाओं में बदलाव लाने की जरूरत है ताकि उन्हें घरेलू कामों और पेशेवर जीवन के बीच फंसा महसूस न हो और चुनने की जरूरत न हो।