इंटरसेक्शनलजेंडर लैंगिक हिंसा को रोकने में काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन की भूमिका

लैंगिक हिंसा को रोकने में काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन की भूमिका

अक्सर, प्यार की दलीलें सिनेमा और मनोरंजन की दुनिया से दी जाती है, जहां लड़की के ‘न में हाँ है’ और ‘हंसी तो फंसी’ जैसी थ्योरी को बढ़ावा दिया गया है। शायद ही कोई स्कूल, फिल्म या परिवार हमें काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन, प्यार में नारीवादी नजरिए की ज़रूरत, हिंसा, या हिंसा और प्लेज़र के बीच अंतर को पहचानना सिखाती है।

महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा का विषय एक जटिल और व्यापक मुद्दा है। इसे समझने के लिए केवल शारीरिक हमलों या उत्पीड़न तक सीमित रखना काफी नहीं, बल्कि इसे व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत संदर्भ में देखे जाने की ज़रूरत है। हालांकि लैंगिक हिंसा या जेंडर बेस्ड वाइअलन्स सभी जेंडर के लोगों को प्रभावित करता है, लेकिन ये महिलाओं और हाशिये के समुदायों को असमान रूप से प्रभावित करता है। लैंगिक हिंसा एक बहुआयामी मुद्दा है। इसलिए, जेंडर बेस्ड वाइअलन्स में काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन (सीएसई) एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। वैश्विक स्तर पर व्यापक तौर पर सीएसई को लागू करने में सफल न होने के कारण यह लोगों को हिंसा के बढ़ते जोखिम में डालती है। सेक्स, सहमति और हिंसा का संबंध एक संवेदनशील विषय है, जो व्यक्तिगत अधिकार, सामाजिक संरचनाओं और कानूनी प्रणालियों की विश्लेषण की मांग करता है।

भारत में अक्सर काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन का मतलब महज ‘सेक्स’ समझा जाता है जिसपर बातचीत करना टैबू है। लेकिन, असल में सीएसई स्वस्थ संबंध विकसित करने और हिंसा को रोकने और न करने के लिए मददगार है। सीएसई में मानव विकास, लैंगिक पहचान, सेक्शुअल व्यवहार, संचार कौशल, सहानुभूति, कॉन्सेंट और उसका महत्व और आपसी सम्मान सहित कई विषयों पर प्रासंगिक, विज्ञान-आधारित, चिकित्सकीय रूप से सटीक जानकारी शामिल है। साल 2021 में, स्कूल-आधारित काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन पर 80 लेखों की एक व्यवस्थित साहित्य समीक्षा में पाया गया कि यह जेंडर और लैंगिक मानदंडों की बढ़ती समझ से जुड़ा है। साथ ही, इससे स्वस्थ संबंधों का समर्थन करने वाले ज्ञान और कौशल में सुधार पाया गया और डेटिंग और अंतरंग साथी के साथ की जाने वाली हिंसा में कमी भी दर्ज हुई।

साल 2021 में, स्कूल-आधारित काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन पर 80 लेखों की एक व्यवस्थित साहित्य समीक्षा में पाया गया कि यह जेंडर और लैंगिक मानदंडों की बढ़ती समझ से जुड़ा है।

देश में काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन की ज़रूरत

देश में युवाओं में ही नहीं, बल्कि सभी लोगों में सटीक और समावेशी काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन और यौन स्वास्थ्य जानकारी की ज़रूरत को नकारा नहीं जा सकता है। अक्सर, लोग अपनी यौन ज़रूरतों और जिज्ञासा के लिए दोस्तों या इंटरनेट पर निर्भर करते हैं, जहां आम तौर पर उम्र के हिसाब से उन्हें सही जानकारी नहीं मिलती। साल 2019 के एक अध्ययन में तमिलनाडु में कॉलेज के विद्यार्थियों के बीच सेक्स के संबंध में जानकारी के लिए, अपने साथियों पर निर्भरता देखी गई। जब हम बातचीत में काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन की पहलुओं को शामिल करते हैं, तो समझ आता है कि महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा किस प्रकार पितृसत्तातमक सामाजिक संरचनाओं और सांस्कृतिक मानदंडों से गहराई से जुड़ी हुई है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इसलिए, काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन और भी ज़रूरी बन जाता है। ये भी देखने की ज़रूरत है कि , काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन पर सूचना की कमी और उसतक पहुंच महिलाओं और लड़कियों पर विशेष प्रभाव डालती है। जहां काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन की कमी पुरुषों को कॉन्सेंट का मतलब सिखाने की कमी में भागीदारी निभा सकती है, वहीं महिलाओं को हिंसा के विभिन्न रूपों को पहचानने और मानवाधिकारों से दूर करती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार, सिर्फ 21.6 प्रतिशत महिलाओं को एचआईवी-एड्स के बारे में व्यापक जानकारी है, जबकि पुरुषों में यह आंकड़ा 30.7 प्रतिशत है। सीएसई सेक्स, लिंग, यौनिकता, प्लेज़र, अंतरंगता और प्रजनन जैसे विषयों पर महत्वपूर्ण जानकारी देती है।

साल 2019 के एक अध्ययन में तमिलनाडु में कॉलेज के विद्यार्थियों के बीच सेक्स के संबंध में जानकारी के लिए, अपने साथियों पर निर्भरता देखी गई। जब हम बातचीत में काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन की पहलुओं को शामिल करते हैं, तो समझ आता है कि महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा किस प्रकार पितृसत्तातमक सामाजिक संरचनाओं और सांस्कृतिक मानदंडों से गहराई से जुड़ी हुई है।

प्यार, प्लेज़र और हिंसा को समझने की जरूरत

प्यार में हिंसा और प्लेज़र के बीच के अंतर को समझना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि ये दोनों अनुभव गहराई से जुड़े हो सकते हैं, लेकिन पूरी तरह अलग होते हैं। कई बार व्यक्तिगत और सांस्कृतिक अपेक्षाओं, यौन अभिव्यक्ति, और रिश्तों में पावर डाइनैमिक्स को सही से न समझने की वजह से, इन दोनों के बीच की सीमाएं धुंधली हो जाती हैं। अक्सर, प्यार की दलीलें सिनेमा और मनोरंजन की दुनिया से दी जाती है, जहां लड़की के ‘न में हाँ है’ और ‘हंसी तो फंसी’ जैसी थ्योरी को बढ़ावा दिया गया है। शायद ही कोई स्कूल, फिल्म या परिवार हमें काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन, प्यार में नारीवादी नजरिए की ज़रूरत, हिंसा, या हिंसा और प्लेज़र के बीच अंतर को पहचानना सिखाती है। उदाहरण के लिए, प्यार के शुरुआती दौर में मुझे प्यार में नारीवादी नजरिए की ज़रूरत की समझ नहीं थी और शायद इसलिए इसे मैंने महसूस भी नहीं किया।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

लेकिन, जब घर और घर के आस-पास जान-पहचान के लोगों ने यौन शोषण किया, तो कहीं न कहीं सुरक्षा, प्यार और विश्वास के बजाय खतरे का एहसास हुआ। साल 2015 में जब नेपाल में भूकंप हुआ, तो उसके एक महीने बाद तक बिहार में मेरे इलाके में भी उसका प्रभाव रहा। उस एक महीने में हर रात और दिन मैं अपने परिवार के साथ पारी-पारी सोती और ज़ेहन में एक डर सा लगा रहता। बहुत आश्चर्य था कि ऐसा डर, खतरा और अनिश्चितता मैंने बचपन के दिनों में उन जाने-पहचाने चेहरों के बीच एहसास किया था। घर और आस-पास में यौन हिंसा से बचने की कोशिश एक अलग किस्म की लड़ाई थी। परिवार और स्कूल में काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन की कमी ने मुझे हमेशा एक कमजोर स्थिति में रखा, जहां मुझे यौन हिंसा को पहचानना और उसका उचित समय पर प्रतिवाद करने की समझ उम्रदराज होने के बाद अपनी शिक्षा और काम के बदौलत ही आया।

घर और आस-पास में यौन हिंसा से बचने की कोशिश एक अलग किस्म की लड़ाई थी। परिवार और स्कूल में काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन की कमी ने मुझे हमेशा एक कमजोर स्थिति में रखा, जहां मुझे यौन हिंसा को पहचानना और उसका उचित समय पर प्रतिवाद करने की समझ उम्रदराज होने के बाद अपनी शिक्षा और काम के बदौलत ही आया।

भारत में स्कूल-आधारित यौन शिक्षा नीति और कार्यक्रम

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

सीएसई को लैंगिक समानता को बढ़ावा देने, इंटीमेट पार्टनर वाइअलन्स सहित लैंगिक हिंसा को कम करने के प्रयासों में भी एक महत्वपूर्ण टूल माना जाता है। हालांकि सरकार ने इस दिशा में पहल किए हैं, लेकिन जहां ऐसी बातचीत ही टैबू हो, वहां सामाजिक रूढ़िवाद और पितृसत्ता के लिए नीतिनिर्माण करने की ज़रूरत है। स्कूल एड्स शिक्षा कार्यक्रम (SAEP) 2002 में शुरू किया गया था, जिसका उद्देश्य यौन स्वास्थ्य, गर्भनिरोधक और एसटीआई की रोकथाम पर जानकारी और परामर्श सेवाएं प्रदान करना था। साल 2006 में किशोर प्रजनन और यौन स्वास्थ्य (ARSH) को महत्व देते हुए किशोर शिक्षा कार्यक्रम (एईपी ) लॉन्च किया गया ताकि किशोरों को एचआईवी और यौन स्वास्थ्य के बारे में जागरूक किया जा सके। साल 2010 के बाद एईपी का कोई स्वतंत्र मूल्यांकन नहीं हुआ है। 2014 में राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम (RKSK) शुरू किया गया, जिसने स्वास्थ्य से जुड़े कई मुद्दों को कवर किया, लेकिन सेक्शूऐलिटी के बारे में चर्चा नहीं की।

हमें सीएसई की ज़रूरत है। लेकिन हमें सेक्स को सिर्फ ऐसा मुद्दा बनाकर नहीं रखना चाहिए कि इसे सिर्फ प्रेग्नन्सी, एसटीआई और एचआईवी से जोड़कर देखें। हमें कॉन्सेंट और प्लेज़र के बारे में भी बात करनी चाहिए।

ये समझना ज़रूरी है कि सीएसई का मतलब महज यौन और प्रजनन स्वास्थ्य नहीं है। यूनिसेफ़ के हालिया रिपोर्ट अनुसार दुनिया भर में 370 मिलियन से अधिक लड़कियां और महिलाएं बचपन में बलात्कार या यौन उत्पीड़न का सामना करती हैं। भारत में की गई एक समीक्षा में पाया गया कि युवाओं में उच्च जोखिम वाले यौन व्यवहारों का प्रचलन बहुत अधिक है, जिसमें कंडोम का कम उपयोग, कई यौन साथी और एसटीआई और एचआईवी के बारे में कम जागरूकता शामिल है। देश में बाल विवाह और किशोरावस्था में गर्भधारण अभी भी एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय है, जिसमें लगभग 45 फीसद 24 वर्ष से पहले शादीशुदा हो जाते हैं और 11.9 फीसद 15 से 19 वर्ष के बीच शादी करते हैं। इस जोखिम के अलावा, इनमें से लगभग एक तिहाई लड़कियां 19 साल से पहले कम से कम एक बच्चे को जन्म दे देती हैं। भारत में आजीवन शारीरिक और इंटीमेट पार्टनर वाइअलन्स का प्रतिशत 28.8 फीसद है, वहीं एक साल की व्यापकता 22 फीसद है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

प्यार में हिंसा का अर्थ है किसी एक व्यक्ति द्वारा दूसरे पर मानसिक, भावनात्मक, या शारीरिक रूप से बल प्रयोग करना। यह एक गैर-सहमति वाली स्थिति होती है, जिसमें दूसरा व्यक्ति खुद को असुरक्षित या दबाव में महसूस करता है। हिंसा न सिर्फ शारीरिक चोट पहुंचाने से जुड़ी होती है, बल्कि किसी को मनोवैज्ञानिक या भावनात्मक रूप से भी आहत करती है। अक्सर यह शक्ति और नियंत्रण की असंतुलन से जुड़ा होता है। सीएसई को सामाजिक ढांचे में प्रभावी ढंग से लागू करना एक चुनौती है क्योंकि आज भी सेक्स या सेक्शूऐलिटी के बारे में खुली चर्चा पर मनाही है।

ये जरूरी है कि जब हम प्लेज़र की बात करें, तो शर्म से जोड़कर बात न करें। हमारे समाज में इतना इंटर्नलाइस्ड अज्ञात शेम है, जिसके कारण हाइपरमैस्क्यूलिनटी का विकास होता है, जोकि खतरनाक है।

लैंगिक हिंसा और सीएसई के जुड़ाव को लेकर कोलकाता की साइकोथेरपिस्ट कोमल भट्टाचार्जी कहती हैं, “हमें सीएसई की ज़रूरत है। लेकिन हमें सेक्स को सिर्फ ऐसा मुद्दा बनाकर नहीं रखना चाहिए कि इसे सिर्फ प्रेग्नन्सी, एसटीआई और एचआईवी से जोड़कर देखें। हमें कॉन्सेंट और प्लेज़र के बारे में भी बात करनी चाहिए। ये जरूरी है कि जब हम प्लेज़र की बात करें, तो शर्म से जोड़कर बात न करें। हमारे समाज में इतना इंटर्नलाइस्ड अज्ञात शेम है, जिसके कारण हाइपरमैस्क्यूलिनटी का विकास होता है, जोकि खतरनाक है।”

काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन की आवश्यकता केवल यौन और प्रजनन स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोगों को स्वस्थ, सुरक्षित और सम्मानजनक संबंध बनाने के लिए शिक्षित करने का एक महत्वपूर्ण साधन है। सीएसई का प्रभाव केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं बल्कि सामूहिक रूप से महिलाओं और हाशिये के समुदायों के खिलाफ़ हिंसा को रोकने में भी होता है। इसके जरिए लोग सहमति, आपसी सम्मान और हिंसा के विभिन्न रूपों को समझ पाते हैं। इसलिए, सीएसई को व्यापक स्तर पर लागू करने की तत्काल आवश्यकता है ताकि हमारे समाज में लैंगिक हिंसा की जड़ें खत्म हो सकें और स्वस्थ संबंधों को प्रोत्साहित किया जा सके।

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