स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य जेंडर और सेक्सुअलिटी को समझने में कॉम्प्रेहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन की भूमिका

जेंडर और सेक्सुअलिटी को समझने में कॉम्प्रेहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन की भूमिका

जेंडर का दायरा बहुत बड़ा है। लोग खुद को ट्रांस, इंटरसेक्स, नॉन-बाइनरी, जेंडर फ्लूइड आदि पहचानों से आइडेंटिफाई करते हैं। लेकिन जेंडर और सेक्सुअलिटी की परिभाषा, इसके मायने मेल-फीमेल, पिंक-ब्लू से कहीं अधिक है।

अगर हम आपको दो शब्द दें- जेंडर और सेक्सुअलिटी तो आपके दिमाग में पहला ख्याल तो यही आएगा। जेंडर मतलब लड़का-लड़की, मेल-फीमेलऔर सेक्सुअलिटी होगा कुछ सेक्स (इंटरकोर्स) से जुड़ा शब्द। इसके बाद हमारे लिए जेंडर और सेक्सुअलिटी की परिभाषा खत्म हो जाती है। हो भी क्यों न हमें कंडीशन ही कुछ इन दायरों में किया जाता है. सबसे पहली बात- सेक्स और जेंडर एक नहीं हैं।

अरे लड़का हुआ या लड़की..!!

घर के काम लड़कियों की ज़िम्मेदारी, बाहर के काम लड़कों की

लड़की है तो फ्रॉक, सूट, स्कर्ट पहनेगी, लड़का है तो पैंट-शर्ट

कुछ इस तरह ही हमारे पितृसत्तात्मक समाज में जेंडर को परिभाषित किया जाता है। इसी तरह लड़के और लड़की के नाम पर जेंडर को परिभाषित करते हुए हुए अलग-अलग ज़िम्मेदारियां इस तय ढांचे के तहत बांट दी जाती हैं। जबकि ऐसा बिल्कुल ज़रूरी नहीं है कि जो जेंडर और सेक्स लोगों को ये पितृसत्तात्मक समाज उनके जन्म के समय देता है, वे उससे खुद को आइडेंटिफाई करें। 

ग्लोबल वर्ल्ड वैल्यू सर्वे के मुताबिक साल 1990 से 2014 के बीच जो लोग ये मानते थे कि होमोसेक्सुअलिटी सही नहीं है, उनकी संख्या 89 फीसदी से 24 फीसदी तक आ गई आज पूरी दुनिया में धीरे-धीरे ही सही लेकिन क्वीयर रिश्तों और पहचानों को स्वीकार किया जा रहा है। हाल ही में सिंगापुर ने होमोसेक्सुअलिटी को एक अपराध के दायरे से बाहर कर दिया।

जेंडर और सेक्सुअलिटी क्या है?

सबसे पहली बात-जेंडर का मतलब सिर्फ मेल-फीमेल तो बिल्कुल भी नहीं है. न ही जेंडर का मतलब सिर्फ पितृसत्तात्मक समाज के उन खांचों से है, जेंडर रोल्स से हैजैसे खाना बनाना सिर्फ औरतों का काम है और पैसे कमाना मर्दों का। जेंडर को समझने के लिए सबसे पहले हमें जेंडर आइडेंटिटी को समझना होगा। जेंडर आइडेंटिटी का मतलब मनोवैज्ञानिक या अंदरूनी तौर पर खुद को लेकर जेंडर बोध होने से है। कई लोग उनके जन्म के समय दिए गए जेंडर से खुद को नहीं आइडेंटिफाई करते हैं। वे समाज के बनाए मेल-फीमेल की बाइनरी से खुद को आइडेंटिफाई नहीं करते। जेंडर का दायरा बहुत बड़ा है। लोग खुद को ट्रांस, इंटरसेक्स, नॉन-बाइनरी, जेंडर फ्लूइड आदि पहचानों से आइडेंटिफाई करते हैं। लेकिन जेंडर और सेक्सुअलिटी की परिभाषा, इसके मायने मेल-फीमेल, पिंक-ब्लू से कहीं अधिक है।

अब आते हैं सेक्सुअलिटी परसेक्सुअलिटी यानी यौनिकता। इस हेट्रोसेक्सुअल समाज की मानें तो सेक्सुअलिटी सिर्फ दो तरह की ही होती है जहां एक मर्द औरत की तरफ आकर्षित होता है और एक औरत मर्द की तरफ लेकिन सेक्सुअलिटी का यह दायरा भी जेंडर की तरह बहुत संकीर्ण हैसेक्सुअलिटी के स्पेक्ट्रम के तहत लोग खुद को गे, लेस्बियन, बाइसेक्सुअल, पैनसेक्सुअल, एसेक्सुअल, क्वीयर, जैसे कई पहचानों से आइडेंटिफाई करते हैं।

जेंडर और सेक्सुअलिटी के आधार पर हिंसा और भेदभाव

एक सर्वे के मुताबिक हमारे देश के 52 फीसद गे मर्द हिंसा का सामना करते हैं। ख़ासकर वे जो अपने परिवार के साथ रहते हैं। न जाने हमारे सामने कितनी ऐसी खबरें आती हैं जहां क्वीयर कपल्स को अपने ही परिवार से सुरक्षा के लिए कोर्ट में अपील करनी पड़ती है।

हमारे देश में आज भी ट्रांस समुदाय को रेप के कानून से बाहर रखा गया है। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों से इन्हें दूर रखा जाता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि हर चार में से तीन ट्रांस समुदाय के लोग या तो कभी स्कूल नहीं गए या दसवीं से पहले ड्रॉपआउट हो गए। UNESCO की रिपोर्ट कहती है कि भारत में LGBT+ समुदाय को ज्यादातर मौकों से दूर रखा जाता है। रिपोर्ट ये भी बताती है कि हमारे स्कूलों में क्वीयर बच्चों के साथ हिंसा सबसे ज्यादा देखने को मिलती है

ये तो बस कुछ उदाहरण हैं ये समझने के लिए कि किस तरह से जेंडर और सेक्सुअलिटी के आधार पर लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि मौकों से दूर किया जाता है। ये जो जेंडर और सेक्सुअलिटी की रूढ़िवादी घिसी-पिटी परिभाषा हमारे अंदर फिट कर जाती है, इस चुनौती दी जा सकती है CSE यानी कॉम्प्रेहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन के ज़रिये..ऐसा तो बिल्कुल नहीं है कि हमें बचपन से पता था कि जेंडर और सेक्स दो अलग-अलग चीज़ें हैजेंडर का दायरा मेल-फीमेल से बहुत बड़ा है। 

हमारा समाज न एक होमोफोबिक समाज है, ऐसे में जो लोग, ख़ासकर किशोर उम्र के बच्चे इस जेंडर सेक्सुअलिटी की बाइनरी में खुद को फिट नहीं पाते उन्हें अक्सर भेदभाव, शारीरिक, मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है. हेट्रोसेक्शुअल कंडीशनिंग उन्हें भी यह एहसास दिलाने लगती है कि उनके अंदर कुछ तो गलत ज़रूर है। वे अलग-थलग महसूस करते हैं या कह दिया जाता है बीमारी है

स्कूलों में सिर्फ सेक्स एजुकेशन लागू कर देने भर से ही जेंडर और सेक्सुअलिटी की समझ को बेहतर नहीं किया जा सकता। इसके लिए ज़रूरी है कि सेक्स एजुकेशन में पढ़ाई जा रही चीज़ें भी इंटरसेक्शनल हो, सिर्फ हेट्रोसेक्सुअल नज़रिये से जेंडर और सेक्सुअलिटी को न समझाया जाए

जो लोग खुद को इस बाइनरी में फिट नहीं पाते वे अक्सर इस सवाल का जवाब चाहते हैं अपने जेंडर और सेक्सुअलिटी से जुड़े सवालों का जवाब खोजते हैं, इस पर जानकारी जुटाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में मदद और समर्थन की ज़रूरत होती है लेकिन लेकिन इन मुद्दों पर जानकारी और समर्थन का हमारे समाज में अभाव है। ऐसे में सेक्स एजुकेशन के ज़रिये इस कमी को दूर किया जा सकता है 

स्कूलों में सिर्फ सेक्स एजुकेशन लागू कर देने भर से ही जेंडर और सेक्सुअलिटी की समझ को बेहतर नहीं किया जा सकता। इसके लिए ज़रूरी है कि सेक्स एजुकेशन में पढ़ाई जा रही चीज़ें भी इंटरसेक्शनल हो, सिर्फ हेट्रोसेक्सुअल नज़रिये से जेंडर और सेक्सुअलिटी को न समझाया जाए सिलेबस में सेक्स एजुकेशन के नाम पर सिर्फ़ प्रजनन क्रिया के बारे में पढ़ाना काफ़ी नहीं है। जेंडर और सेक्सुअलिटी का जो विस्तृत ‘स्पेक्ट्रम’ है, उसके बारे में जब तक विस्तार में नहीं पढ़ाया जाएगा, तब तक सेक्स एजुकेशन की सारी कोशिशें अधूरी रहेंगी। 


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