इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ जानें नारीवादी आंदोलन की महत्वपूर्ण धाराएं क्वीयर और ट्रांस नारीवाद क्या है!

जानें नारीवादी आंदोलन की महत्वपूर्ण धाराएं क्वीयर और ट्रांस नारीवाद क्या है!

इन आंदोलनों ने सामाजिक जागरुकता बढ़ाई है, जिसकी वजह से क़ानूनों और नीतियों में भी कुछ हद तक बदलाव आ पाया है। ट्रांस फेमिनिज़म ने ट्रांसजेंडर्स की पहचान, स्वास्थ्य सेवाओं और रोजगार उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जबकि क्वीयर फेमिनिज़म ने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के भीतर लिंग पहचान और यौनिकता की जटिलताओं को समझने के लिए नए दृष्टिकोण पेश किए हैं।

क्वीयर फेमिनिज़म और ट्रांस फेमिनिज़म नारीवादी आंदोलन की दो महत्त्वपूर्ण धाराएं हैं, जो जेंडर बाइनरी से परे लिंग, यौनिकता और पहचान के विभिन्न पहलुओं पर आधारित हैं। इनमें न सिर्फ़ सिस हेट्रो महिलाओं के अधिकारों पर बात की जाती है बल्कि यह नारीवाद के एक समावेशी दृष्टिकोण पर आधारित है। इन आंदोलनों का उद्देश्य उन सभी लोगों के लिए संघर्ष और समान अधिकार सुनिश्चित करना है जो अपनी लैंगिक पहचान और यौनिकता के कारण हाशिए पर हैं। इनका उद्देश्य एक ऐसे समावेशी समाज की स्थापना करना है जहां सभी व्यक्ति अपनी पहचान और यौनिकता के साथ बिना किसी भेदभाव के अपनी मर्ज़ी से खुलकर जी सकें। 

क्वीयर शब्द का इतिहास

क्वीयर का शब्दकोषीय अर्थ लिया जाए तो इसका मतलब ‘अजीब’ या ‘अनोखा’ है। हालांकि क्वीयर शब्द का एलजीबीटीक्यू+ के सन्दर्भ में सबसे पहला उल्लेख 1894 में जॉन शोल्टो डगलस द्वारा लिखे एक पत्र में पाया जाता है। इन्होंने ऑस्कर वाइल्ड पर अपने बेटे अल्फ्रेड डगलस के साथ होमोसेक्सुअल संबंधों का आरोप लगाया था। इस प्रकार क्वीयर शब्द होमोसेक्सुअल लोगों के लिए नकारात्मक और अपमानजनक रूप में इस्तेमाल किया जाता था। यूनिवर्सिटी ऑफ़ केलिफोर्निया बर्कले की छात्रा नादिया चो ने क्वीयर को एक मानसिक स्थिति के तौर पर परिभाषित किया। वह कहती हैं, “क्वीयर होना एक मानसिक स्थिति है। यह एक ऐसा नज़रिया है जो स्वीकृति पर आधारित होता है, जिसमें इंसान हर उस अनोखे और अलग तरीके को अपनाता और मान्यता देता है, जिससे लोग ख़ुद को व्यक्त करते हैं, खासकर जब बात लिंग और यौनिकता से जुड़ी पहचान की हो। सामान्य माने जाने वाली हर चीज़ को चुनौती देना इसका हिस्सा है।”

ट्रांस फेमिनिज़म का मुख्य उद्देश्य लैंगिक पहचान की जटिलताओं को स्वीकार करना और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों विशेष कर ट्रांस महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करना है।

भारत में क्वीयर आंदोलनों से जुड़े नरेन और भान (2005) कहते हैं, “क्वीयर’ शब्द एक अम्ब्रेला शब्द है, जिसमें वो लोग शामिल होते हैं जो अपनी नॉन-हेट्रोसेक्शुअल यौनिकता को छुपाकर रखते हैं और वो लोग भी जो इसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त करते हैं। इसमें वो लोग भी आते हैं जो ख़ुद को किसी लेबल से जोड़ना पसंद करते हैं और वो भी जो किसी लेबल को स्वीकार करने से इनकार करते हैं या किसी लेबल को चुनने में असमर्थ होते हैं।”

क्वीयर फेमिनिज़म क्या है?

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

क्वीयर फेमिनिज़म विशेष रूप से होमोफोबिया और बाइनरी लिंग संरचनाओं के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ता है। यह आंदोलन उन पुराने और शुरुआती नारीवादी आंदोलनों का संशोधित संस्करण है जो केवल महिला और पुरुष के बीच के भेदभाव पर फ़ोकस करते थे। इसमें महिलाओं समेत एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की पहचान, यौनिकता और अधिकारों पर व्यापक दृष्टिकोण को अपनाया जाता है। दरअसल पितृसत्ता न सिर्फ़ महिलाओं बल्कि दूसरे तमाम जेंडर्स के अस्तित्व को भी या तो नज़रअंदाज करती है या फिर उसे दोयम दर्ज़ा देती है। 

यह उन लोगों की आवाज़ है जो लिंग या यौनिकता के आधार पर समाज में हाशिए पर रखे जाते हैं। क्वीयर फेमिनिज़म मुख्य रूप से इस बात पर ज़ोर देता है कि किसी व्यक्ति की पहचान को किसी खाँचे या श्रेणी में सीमित नहीं किया जा सकता, क्योंकि हर व्यक्ति अपने आप में अलग और अनूठा होता है और उसकी पहचान, अनुभव और यौनिकता व्यापक हो सकती है। जिस तरह से जेंडर और यौनिकता के नए-नए आयाम सामने आ रहे हैं ऐसे में क्वीयर फेमिनिज़म की आवश्यकता और प्रासंगिकता और भी बढ़ रही है।

क्वीयर फेमिनिज़म का विकास और उद्देश्य 

क्वीयर फेमिनिज़म का इतिहास देखें तो इसकी शुरुआत 1980 से 90 के दशक में होती है जब एलजीबीटीक्यू+ समुदाय संबंधी आंदोलन दुनिया भर में फैल रहे थे। क्वीयर थ्योरी के उदय ने नारीवाद का विस्तार किया और एक नया दृष्टिकोण दिया जो परंपरागत जेंडर बाइनरी को ख़ारिज़ करता था। यह पारंपरिक नारीवाद से अलग एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को इसके अंतर्गत शामिल कर समावेशिता पर ज़ोर देता है। भारत में सबसे पहले मुंबई में क्वीयर नारीवादी समूह LABIA की शुरुआत 1995 में होमोसेक्सुअल और बायसेक्सुअल महिलाओं के समूह के रूप में ‘स्त्री संगम’ नाम से हुई। इस समूह में बाद में होमोसेक्सुअल और बायसेक्सुअल के साथ ही ट्रांस महिलाएं भी शामिल हुईं।

क्वीयर फेमिनिज़म का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि समाज में न केवल महिलाओं को बराबरी का हक़ मिले, बल्कि सभी लिंग और यौन अभिरुचि वाले लोगों के अस्तित्व और अधिकारों को स्वीकार किया जाए और उन्हें गरिमापूर्ण जीवन जीने का अवसर मिले। इसके समर्थकों के अनुसार पारंपरिक नारीवाद ने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय और उनकी समस्याओं को अनदेखा किया है जबकि नारीवाद सभी व्यक्तियों को समान अधिकार सुनिश्चित किए जाने का पैरोकार है। केवल महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता की बात करना काफ़ी नहीं है बल्कि ज़रूरी है कि उन सभी लिंग और यौनिकता के व्यक्तियों को समान अधिकार मिले, जिसे परंपरागत समाज की मुख्यधारा से बाहर रखा गया है। 

इस प्रकार क्वीयर फेमिनिज़म, नारीवाद का ही एक उन्नत रूप है जो कि इंटरसेक्शनल समावेशिता पर बल देता है। साथ ही यह भी मानता है कि लैंगिक पहचान और यौनिकता जटिल और अस्थिर संकल्पनाएं हैं। इसलिए इसे पहले से बने बनाए संकुचित खाते में फिट नहीं किया जा सकता। क्वीयर फेमिनिज़म के समर्थक यह भी मानते हैं कि सामाजिक न्याय हासिल करने के लिए केवल क़ानूनी सुधार काफ़ी नहीं हैं बल्कि समाज के मूलभूत ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक है।

क्वीयर और ट्रांस फेमिनिज़म इंटरसेक्शनैलिटी पर आधारित है। इस संदर्भ में इंटरसेक्शनैलिटी का अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति की पहचान एक पहलू तक सीमित नहीं होती बल्कि इसमें जेंडर और यौनिकता समेत बहुत सारे कारक शामिल होते हैं।

ट्रांस फेमिनिज़म क्या है?

ट्रांस फेमिनिज़म, नारीवाद का ही एक समावेशी पहलू है जो कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों खास तौर पर ट्रांसजेंडर महिलाओं के अधिकार और उनकी आज़ादी पर ध्यान केंद्रित करता है। यह आंदोलन ट्रांस महिलाओं को भी नारीवादी आंदोलन का हिस्सा मानता है और इस बात पर ज़ोर देता है कि व्यक्ति के लिंग की पहचान जन्म के समय निर्धारित नहीं होती बल्कि यह व्यक्ति के मनोविज्ञान पर निर्भर करता है। यानी एक व्यक्ति पुरुष है या महिला यह जैविक कारकों पर नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक कारकों पर निर्भर करता है। इसके अनुसार हर व्यक्ति को अपने जेंडर के बारे में फैसला लेने का अधिकार होना चाहिए। यह समाज की उन धारणाओं का विरोध करता है जो व्यक्ति की लिंग पहचान को जैविक कारकों तक ही सीमित रखते है।

तस्वीर साभारः Newstatesman.com

ट्रांस फेमिनिज़म का विकास और उद्देश्य 

इसकी शुरुआत 1990 के दशक में हुई जब नारीवादी आंदोलन और ट्रांसजेंडर अधिकारों के बीच सामंजस्य से बनाने की ज़रूरत महसूस हुई और इसके लिए प्रयास शुरू किए गए। ट्रांस फेमिनिज़म के लिए ट्रांस सेक्सुअल मेनस  नामक समूह ने 1990 की दशक में शुरुआत कर दी थी, जिसका उस समय व्यापक विरोध हुआ था । ट्रांस फेमिनिज़म को लोकप्रियता तब मिली जब एमी कोयामा ने ट्रांस फेमिनिस्ट मेनिफेस्टो (2001) में इसका ज़िक्र किया। इसके बाद बहुत सारे लेखकों, क्वीयर और नारीवादी कार्यकर्ताओं ने ट्रांसजेंडर अधिकारों और नारीवाद के बीच अंतरसंबंधों पर ज़ोर दिया। इसमें जूलिया सेरानो की किताब ‘व्हिपिंग गर्ल: ए ट्रांस सेक्सुअल वूमेन ऑन एस्केपगोटिंग ऑन फेमिनिनिटी’ ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। सेरानो ने अपनी किताब में ट्रांस महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले पूर्वाग्रह और ग़लत धारणाओं के बारे में लिखा और इनसे होने वाले भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। इन्होंने इसके नारीवाद के साथ अंतरसंबंधों पर भी बल दिया और ट्रांस फेमिनिज़म को नारीवाद के अंतर्गत शामिल किया। साल 2006 में ट्रांस फेमिनिज़म पर पहली किताब ‘ट्रांस/फॉर्मिंग फेमिनिजम: ट्रांसफेमिनिस्ट वॉयस स्पीक आउट’, क्रिस्टा स्कॉट-डिक्सन द्वारा लिखी गई थी।

ट्रांस फेमिनिज़म का मुख्य उद्देश्य लैंगिक पहचान की जटिलताओं को स्वीकार करना और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों विशेष कर ट्रांस महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करना है। यह इस बात पर भी फ़ोकस करता है कि कैसे ट्रांस महिलाओं को हमारे समाज में दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है एक तो ट्रांस होने की वजह से और दूसरा महिला होने की वजह से। सार्वजनिक स्थानों पर आने-जाने, शिक्षा, रोजगार इत्यादि में किस तरह से इन्हें ‘अलग’ और ‘अजीब’ समझा जाता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों चाहे शिक्षा हो या नौकरी के अवसर यहां तक कि रोज़मर्रा के कामों में भी इन्हें अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

तस्वीर साभारः thehill.com

कुछ परंपरागत नारीवादी कार्यकर्ताओं के अनुसार ट्रांस महिलाओं को नारीवाद के अंतर्गत शामिल करने से जैविक महिलाओं की पहचान धुंधली हो जाती है जबकि ‘लेस्बियन अवेंजर्स’ जैसे नारीवादी समूह ट्रांस महिलाओं को अपने आंदोलन का हिस्सा मानते हैं। आज तीसरी और चौथी लहर का फेमिनिज़म ट्रांसजेंडर्स को नारीवाद का अभिन्न हिस्सा मानता है और लैंगिक पहचान की स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए इनके साथ संघर्ष कर रहा है। इस प्रकार ट्रांस फेमिनिज़म केवल एक आंदोलन नहीं बल्कि एक विचारधारा है जो हर लिंग के व्यक्तियों को उनकी पहचान और अधिकार सुनिश्चित करने की वकालत करती है। यह समाज की संकीर्ण धारणाओं को चुनौती देने के साथ ही सभी के लिए समानता और स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है।

ट्रांस फेमिनिज़म को लोकप्रियता तब मिली जब एमी कोयामा ने ट्रांस फेमिनिस्ट मेनिफेस्टो (2001) में इसका ज़िक्र किया। इसके बाद बहुत सारे लेखकों, क्वीयर और नारीवादी कार्यकर्ताओं ने ट्रांसजेंडर अधिकारों और नारीवाद के बीच अंतरसंबंधों पर ज़ोर दिया।

क्वीयर और ट्रांस फेमिनिज़म में समानताएं

एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के अंतर्गत ट्रांसजेंडर को भी शामिल किया जाता है और क्वीयर इन सब के लिए एक अंब्रेला टर्म है। स्पष्ट है कि क्वीयर और ट्रांस फेमिनिज़म एक-दूसरे से अंतरसंबंध हैं। हालांकि दोनों के उद्देश्यों में अंतर है लेकिन इनके बीच समानताएं अधिक हैं। दोनों ही आंदोलन जेंडर और यौनिकता की पारंपरिक बाइनरी वाली अवधारणा को चुनौती देते हैं और उन सभी लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं जिन्हें समाज की इन धारणाओं की वजह से भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसी तरह क्वीयर और ट्रांस फेमिनिज़म इंटरसेक्शनैलिटी पर आधारित है। इस संदर्भ में इंटरसेक्शनैलिटी का अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति की पहचान एक पहलू तक सीमित नहीं होती बल्कि इसमें जेंडर और यौनिकता समेत बहुत सारे कारक शामिल होते हैं। इसी प्रकार भेदभाव, उत्पीड़न और शोषण के कई रूप होते हैं इन्हें समझने के लिए इनके बीच के अंतरसंबंधों को समझना आवश्यक होता है।

समकालीन संदर्भ में प्रासंगिकता

वर्तमान में क्वीयर और ट्रांस फेमिनिज़म की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है क्योंकि अब तक भी एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के अधिकारों को सुनिश्चित नहीं किया जा सका है, बल्कि इस पर विचार-विमर्श और संघर्ष ही चल रहा है। हालांकि इन आंदोलनों ने सामाजिक जागरुकता बढ़ाई है, जिसकी वजह से क़ानूनों और नीतियों में भी कुछ हद तक बदलाव आ पाया है। ट्रांस फेमिनिज़म ने ट्रांसजेंडर्स की पहचान, स्वास्थ्य सेवाओं और रोजगार उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जबकि क्वीयर फेमिनिज़म ने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के भीतर लिंग पहचान और यौनिकता की जटिलताओं को समझने के लिए नए दृष्टिकोण पेश किए हैं। इन आंदोलनों ने न केवल नारीवादी सिद्धांतों का विस्तार किया है बल्कि समाज में हाशिए पर रहने वाले लोगों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास भी किया है। ये आंदोलन समाज की पारंपरिक रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक धारणाओं को तो चुनौती देते ही हैं साथ ही एक समावेशी समाज की स्थापना के लिए मार्गदर्शन भी करते हैं।


सोर्सः

  1. Engeder
  2. The Hindu
  3. The Guardian
  4. Britannica
  5. Sociology of Genders

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