मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ. गोकाकरोंडा नागा साईबाबा का बीते शनिवार 12 अक्टूबर को हैदराबाद में निधन हो गया। 57 वर्षीय प्रो. जी एन साईबाबा को कथित तौर पर माओवादी संगठनों से संबंधों के मामले में साल 2014 में गिरफ्तार किया गया था। दस साल तक उन्हें झूठे आरोपों के लिए जेल में रखा गया। महज सात महीने पहले 5 मार्च 2024 में बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने उन्हें सभी आरोपों से बरी किया गया था। साईबाबा ने हमेशा राज्य के दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। हाल ही में उनकी पित्ताशय की थैली हटाने की सर्जरी हुई थी, जिसके बाद उन्हें कई तरह की स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियां हुईं। उन्होंने अपनी आखिरी सांस हैदराबाद के निज़ाम्स इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज अस्पताल में ली।
सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले प्रो. साईबाबा को जेल में अनेक यातनाओं का सामना करना पड़ा। उन्होंने 10 साल की कैद के दौरान जेल प्रशासन द्वारा किए गए अत्याचारों और अमानवीय व्हवहार की बहुत बार शिकायत की। साईबाबा के शरीर का 90 फीसदी हिस्सा विकलांग था। जेल में रहने के दौरान प्रशासन ने उन्हें दवाईयां देने तक से इनकार किया था। साईबाबा दिल्ली के विश्वविद्यालय के रामलाल कॉलेज के अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। कथित तौर पर माओवादी संगठनों से सबंध रखने के आरोप में साल 2014 में उन्हें गिरफ्तार किया गया था। उन पर गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम 1967 (यूएपीए) जैसे कानून के तहत केस दर्ज किया गया। अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई थी। हालांकि अदालत द्वारा निर्दोष पाए जाने से पहले उन्हें विचारधीन कैदी के रूप में 10 साल से अधिक समय तक कठोर कारावास सहना पड़ा। इसी साल मार्च में पांच अन्य लोगों के साथ बॉम्बे हाई कोर्ट ने बरी कर दिया था। अदालत ने उन्हें एक बार नहीं बल्कि दो बार बरी किया था।
साल 2017 में साईबाबा को निचली अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई थी लेकिन 14 अक्टूबर 2022 को बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने उन्हें रिहा करने का आदेश दिया। इस फैसले के आने के महज़ 24 घंटे के भीतर ही 15 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट की विशष बेंच ने हाई कोर्ट का यह फैसला पलट दिया था। फिर 2024 में पांच मार्च को बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने उन्हें एक बार फिर बरी कर दिया। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष उनके ख़िलाफ़ आरोप साबित करने में विफल रहा है। अदालत ने कहा कि इंटरनेट से कम्युनिस्ट या नक्सल साहित्य डाउनलोड करना या किसी विचारधारा का समर्थक होना यूएपीए अपराध के तहत नहीं आता है। इसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने उनकी रिहाई को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी लेकिन 11 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार की याचिका को ख़ारिज कर दिया।
जेल में सहन करनी पड़ी यातनाएं
जेल से बाहर आने के बाद 8 मार्च 2024 को साईबाबा ने मीडिया से बात करते हुए जेल में बिताए 10 सालों के अपने कठोर अनुभवों और संघर्षों को सार्वजनिक किया था। बीबीसी को दिए इंटरव्यू में जेल में उनके साथ हुई क्रूरता के बारे में उन्होंने बताया था, “जेल में जो टॉयलेट था उस तक मेरी व्हीलचेयर पहुंच नहीं सकती थी। नहाने की जगह तक नहीं थी। मैं अकेले अपनी टांगों पर खड़ा नहीं हो सकता था। मुझे बाथरूम जाने, नहाने, बेड में शिफ्ट होने जैसे सभी कामों के लिए चौबीसों घंटे दो लोगों की ज़रूरत होती है।” उन्होंने आगे जेल प्रशासन पर आरोप लगाते हुए कहा था कि डॉक्टर जो दवाएं और उपचार लिखकर देते थे, वो उन्हें नहीं दिया जाता था। साईबाबा ने यूएपीए कानून के बारे में बोलते हुए कहा था कि यह भारत के संविधान के ख़िलाफ़ है। उन्होंने कहा, इससे क्रूरतम रूप में कोई कानून दुनिया के किसी देश में अभी अमल में नहीं रहा। संविधान ने देश के लोगों को जो बुनियादी अधिकार दिए हैं ये उसके ख़िलाफ़ है। मैं इस कानून के ख़िलाफ़ लड़ रहा हूं और मुझे इसी कानून के तहत जेल में रखा गया और मेरी आवाज़ को दबाया गया।
जेल से बाहर आने पर उन्होंने मीडिया में बताया था कि उन्हें परिवार द्वारा भेजी गई दवाएं 10 दिन की भूख हड़ताल के बाद ही उपलब्ध कराई गईं। उसके बाद भी, उन दवाओं को उनके पास पहुंचने में “10 से 15 दिन” लग जाते थे। इसके बाद उन्होंने कहा कि सबसे ज्यादा दुख उन्हें तब हुआ जब उन्हें उनकी माँ के निधन पर अंतिम विदाई तक के लिए पैरोल नहीं दी गई। अपनी माँ का आखिर विदाई न देने पर उन्होंने कहा था, “मेरी माँ का निधन 2020 में उस समय हुआ जब मैं जेल में था। विकलांग बच्चे के रूप में, मेरी माँ ने मुझे बहुत प्यार और देखभाल से पाला था। वह मुझे गोद में लेकर स्कूल जाती थीं। मुझे उनकी मृत्यु से पहले उनसे मिलने की इजाजत नहीं दी गई। मुझे पैरोल नहीं दी गई ताकि मैं उन्हें देख सकूं। इसके बाद, मुझे उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने से भी वंचित रखा गया। मुझे शोक समारोह या अंतिम संस्कार की रस्मों में भाग लेने के लिए भी पैरोल नहीं दी गई। इस देश में ऐसा कौन सा अपराधी है जिसे इस प्रकार की रस्मों में शामिल होने से रोका जाता है?”
मानवाधिकारों के मजबूत समर्थक
आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले के छोटे से कस्बे अमलापुरम के जीएन साईबाबा आदिवासी अधिकारों के प्रबल समर्थक और सत्ता के प्रबल आलोचक थे। पोलियो की वजह से वह पांच साल की उम्र से व्हीलचेयर का इस्तेमाल करते थे। साईबाबा का मानवाधिकारों के संरक्षण की लड़ाई लड़ने और शिक्षक बनने का सफ़र अपनी मास्टर्स की पढ़ाई के दौरान हैदराबाद विश्वविद्यालय में शुरू हुआ। उन्होंने अपनी पीएचडी की पढ़ाई के दौरान और उसके बाद भी भारत के कई गाँवों का दौरा किया। साल 2008 तक, वे साथी कार्यकर्ताओं, गाँववासियों और बैसाखी की मदद से इन दौरों में भाग लेते रहे।
न्यूज़लॉडी में प्रकाशित लेख के मुताबिक़ साल 1997 में उन्होंने ऑल इंडिया पीपल्स रेसिस्टेंस फोरम में हिस्सा लिया जहां उन्होंने आज़ादी के बाद भारत की उपलब्धित केवल सत्ता में बदलाव तक सीमित मुद्दे पर बात की। उन्होंने मुखर होकर छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य, बिहार और आंध्र प्रदेश में चल रहे खेती-किसानी के आंदोलन पर बात की। उन्होंने प्रतिबंधित रेव्यूशनरी ड्रेमोक्रेडिक फ्रंट (आरडीएफ) के उप सचिव के तौर पर साल 1999 में ऑल इंडिया पीपल्स रेजिस्टेंस फोरम में बिहार और आंध्र प्रदेश में चल रहे सत्ता के दमन का विरोध किया। इस अभियान के तहत आंध्र प्रदेश, बिहार, पंजाब, दिल्ली, आसाम, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में कुल 50 कार्यक्रमों का आयोजन किया गया।
साईबाबा ने हमेशा आदिवासी अधिकारों के बारे बात की। शैक्षिक गतिविधियों में शामिल होने के बाद भी उन्होंने आदिवासियों के ख़िलाफ़ होने वाली किसी भी सरकारी कार्रवाई की आलोचना की। उन्होंने यूपीए सरकार की ‘ग्रीन हंट ऑपरेशन’ की भी कठोर आलोचना की थी। आदिवासियों के घर जलाने, आदिवासियों की हत्या और आदिवासी महिलाओं के बलात्कार की कड़ी निंदा की। उन्होंने आदिवासियों की जमीन पर खनन रोकने के लिए आरडीएफ के द्वारा चलाए आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाई थी। उन्होंने सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई की भी मांग की थी।
जेल में उनके साथ हुई क्रूरता के बारे में उन्होंने बताया था, “जेल में जो टॉयलेट था उस तक मेरा व्हीलचेयर पहुंच नहीं सकता था। नहाने की जगह तक नहीं थी। मैं अकेले अपनी टांगों पर खड़ा नहीं हो सकता था। मुझे बाथरूम जाने, नहाने, बेड में शिफ्ट होने जैसे सभी कामों के लिए चौबीसों घंटे दो लोगों की ज़रूरत होती है।”
छात्रों के आंदोलन में भी रहे शामिल
दिल्ली विश्वविद्यालय में बतौर प्रोफेसर पद पर नियुक्त होने साथ-साथ भी वे छात्रों के हितों में बोलने से कभी पीछे नहीं हटे। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में आरक्षण की नीति के सही क्रियान्वय के लिए एससी, एसटी और ओबीसी विद्यार्थियों के समर्थन में विरोध प्रदर्शनों में भी हिस्सा लिया। साल 2021 में दिल्ली विश्वविद्यालय ने यूएपीए के तहत मामला दर्ज होने के बाद उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया था। हालांकि, अदालत के उन्हें बरी करने के बाद उन्हें दोबारा नौकरी पर नहीं रखा गया। न्यूज़लाड्री में प्रकाशित लेख के मुताबिक़ अगस्त 2024 में उन्होंने मीडिया को संबोधित करते हुए हैदराबाद में कहा था कि अगर वे अपनी एक इच्छा पूरी करना चाहते है तो वह यह है कि वे दोबारा क्लासरूम में पढ़ाना चाहते हैं।
साईबाबा के जेल जाने के बाद उनकी पत्नी वसंथा, मानवाधिकार से जुड़े हर मुद्दे पर हमेशा आगे रही और उन्होंने राज्य के हर दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की। उनकी एक बेटी हैं। साईबाबा एक कवि भी थे। उनकी जेल के दौरान लिखी अपनी कविताओं और पत्रों का एक संग्रह “व्हाई डू यू फियर माय वे सो मच?” स्पीकिंग टाइगर से प्रकाशित किया गया। प्रो. जीएन साईबाबा ने जीवन भर राज्य की क्रूर नीतियों का विरोध किया और उनका सामना किया। उनकी मृत्यु का कारण अमानवीय कारावास है जिसका उन्होंने सामना किया। उनकी मृत्यु देश की न्याय व्यवस्था पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करती है। न्यायपालिका से मांग करती है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में बंद राजनीतिक बंदी उमर खालिद, सुरेंद गडलिंग, रोना विल्सन और कई अन्य लोगों की रिहाई हो, जिन्हें केवल सत्ता से सवाल करने के अधिकार के इस्तेमाल करने के लिए जेल में डाला गया है।