1983 की एक दोपहर कर्नाटक के घने जंगलों से एक गूंज निकली – ‘उलीसू, बेलासू और बालूसू’, जिसका अर्थ है, जंगल बचाओ, पेड़ लगाओ और संसाधनों का सही उपयोग करो। इस नारे के साथ युवाओं और महिलाओं ने पेड़ों से लिपटकर उन्हें कटने से बचाने का संकल्प लिया। यह न सिर्फ एक नारा था, बल्कि एक क्रांतिकारी कदम था, जो पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और पर्यावरणीय विनाश के खिलाफ उठाया गया था। इस आंदोलन को ‘अप्पिको आंदोलन’ के नाम से जाना गया।
अप्पिको आंदोलन की शुरुआत
पर्यावरण संरक्षण के इतिहास में अप्पिको आंदोलन की अपनी खास जगह है। यह आंदोलन 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले से शुरू हुआ। ‘अप्पिको’ शब्द कन्नड़ भाषा में ‘चिपको’ का ही एक रूप है, जिसका अर्थ होता है ‘गले लगाओ’। यह आंदोलन उत्तराखंड के प्रसिद्ध चिपको आंदोलन से प्रेरित था, जिसमें महिलाओं और ग्रामीणों ने पेड़ों की कटाई के खिलाफ संघर्ष किया था। चिपको आंदोलन की तरह, अप्पिको आंदोलन का भी उद्देश्य वनों का संरक्षण और स्थायी विकास को बढ़ावा देना था।
इस आंदोलन के माध्यम से लोगों को यह समझाने की कोशिश की गई कि जंगल न केवल पर्यावरण के लिए बल्कि इंसानों की आजीविका, स्वास्थ्य, जलवायु और स्थिरता के लिए भी महत्वपूर्ण है। अगर जंगल नष्ट हो जाते हैं, तो न सिर्फ पानी की कमी होगी, बल्कि जंगली जानवर इंसानी बस्तियों में घुसपैठ करेंगे, जिससे और समस्याएं खड़ी होंगी। यह आंदोलन इस जागरूकता को फैलाने के लिए था कि वनों का संरक्षण एक जरूरी जिम्मेदारी है।
महिलाओं की भूमिका
अप्पिको आंदोलन में महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई। वे इस आंदोलन की आत्मा भी थी। कर्नाटक के जंगलों के आस-पास रहने वाली महिलाएं अपने परिवारों की जरूरतों के लिए पूरी तरह से जंगलों पर निर्भर थीं। वन उन्हें भोजन, ईंधन, चारा, जड़ी-बूटी और खेती के लिए आवश्यक सामग्री प्रदान करते थे। लेकिन 1950 के दशक में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले का 81 फीसद भाग घने जंगलों से ढका था, जिसे ‘पिछड़ा’ क्षेत्र घोषित कर सरकार ने औद्योगिक विकास के लिए खोल दिया। इस विकास के नाम पर बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई की गई और कई उद्योग, जैसे कागज़ मिल, प्लाईवुड फैक्ट्री, और हाइड्रोइलेक्ट्रिक बांध बनाए गए। इन विकास परियोजनाओं ने न केवल जंगलों को काटा, बल्कि वहां के निवासियों को भी विस्थापित किया। 30 सालों के भीतर 56 फीसद जंगल खत्म हो चुके थे। 1980 के दशक तक केवल 25 फीसद वन बचे थे, जिससे बारिश कम होने लगी और जलस्रोत सूखने लगे। इस स्थिति ने महिलाओं की आजीविका और उनके परिवारों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया।
आंदोलन में महिलाओं का नेतृत्व
जब वन विभाग ने पेड़ों की कटाई शुरू की, तब स्थानीय महिलाएं अपने बच्चों के साथ पेड़ों से लिपट गईं और वन विभाग के कर्मियों को पेड़ काटने से रोकने लगीं। उन्होंने नारा लगाया – ‘उलीसू, बेलासू और बालूसू’– जोकि जंगल बचाने और उनके किफायती इस्तेमाल करने की अपील थी। इस तरह से उन्होंने पेड़ों को कटने से बचाया और सरकार को वनों की कटाई पर रोक लगाने पर मजबूर किया। यह आंदोलन महिलाओं के जीवन से जुड़े संसाधनों की सुरक्षा के लिए लड़ा गया था।
महिलाओं ने इस आंदोलन के दौरान अपने समुदाय के लोगों को भी यह समझाया कि जंगल नष्ट होने से उनकी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी नहीं हो पाएंगी। उन्होंने पर्यावरणीय शिक्षा का भी प्रसार किया और लोगों को यह बताया कि वनों की कटाई से भविष्य में गंभीर संकट पैदा हो सकते हैं, जैसे बाढ़, सूखा, और भूमि का कटाव। इस आंदोलन में महिलाएं न केवल वनों की सुरक्षा के लिए खड़ी थीं, बल्कि वे अपने समुदायों के जीवन और उनके अधिकारों के लिए भी लड़ रही थीं।
अप्पिको आंदोलन के प्रभाव
अप्पिको आंदोलन साल 1983 से 1989 तक चला। इस आंदोलन के नतीजन सरकार ने वनों की कटाई पर रोक लगाने और वन संरक्षण के प्रयासों को तेज करने की दिशा में कदम उठाए। साल 1986-87 में इसी आंदोलन के तहत सीमेंट फैक्ट्री के खिलाफ प्रदर्शन हुआ, जिसमें आंदोलनकारियों ने पर्यावरण पर होने वाले नकारात्मक प्रभावों को उजागर किया। इसके बाद, साल 1992-94 के दौरान मधुमक्खियों को बचाने के लिए एक और आंदोलन हुआ, जिसमें उन परियोजनाओं का विरोध किया गया जो मधुमक्खियों की आबादी को खतरे में डाल रही थीं। इसी प्रकार, बांध निर्माण और काली नदी बचाओ आंदोलन जैसे कई अन्य अभियानों ने भी अप्पिको आंदोलन के सिद्धांतों को आगे बढ़ाया। इन आंदोलनों में महिलाओं की सक्रिय सहभागिता ने इसे और भी समावेशी और सशक्त बना दिया। महिलाओं की भागीदारी के कारण यह आंदोलन एक शक्तिशाली सामाजिक और पर्यावरणीय अभियान बन सका, जिसने भारत के पर्यावरणीय आंदोलनों को एक नया आयाम दिया। यह कहना गलत नहीं होगा कि महिलाओं ने पर्यावरणीय संरक्षण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
अप्पिको आंदोलन की सफलता और सीमाएं
हालांकि अप्पिको आंदोलन ने कई मोर्चों पर सफलता हासिल की, फिर भी कुछ मामलों में इसे सीमित सफलता मिली। उदाहरण के लिए, यह कुछ औद्योगिक परियोजनाओं को पूरी तरह से रोका नहीं जा सका, और कुछ जगहों पर जंगलों का संरक्षण नहीं हो पाया। फिर भी, इस आंदोलन ने एक बड़ा संदेश दिया कि स्थानीय समुदायों, विशेषकर महिलाओं की भागीदारी के बिना पर्यावरण संरक्षण संभव नहीं है। इस आंदोलन ने न केवल जंगलों को बचाने का काम किया, बल्कि महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति भी जागरूक किया। महिलाओं ने अपनी स्थानीय भाषाओं में अन्य ग्रामीणों को वनों की महत्ता और उनके संरक्षण के महत्व के बारे में समझाया। इस आंदोलन ने उन्हें सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी और यह साबित किया कि महिलाएं केवल अपने परिवार और समाज की देखभाल ही नहीं करतीं, बल्कि वे पर्यावरणीय मुद्दों पर भी सक्रिय भूमिका निभा सकती हैं।
अप्पिको आंदोलन ने भारतीय समाज में पर्यावरणीय संरक्षण की एक नई जागरूकता पैदा की, विशेष रूप से महिलाओं के बीच। यह आंदोलन महिलाओं की भागीदारी और उनके नेतृत्व का एक आदर्श उदाहरण है। इसने यह दिखाया कि जब महिलाएं किसी सामाजिक या पर्यावरणीय समस्या से जुड़ती हैं, तो वे न केवल बदलाव लाती हैं, बल्कि अपने समुदाय को भी जागरूक करती हैं। यह आंदोलन इस बात का प्रतीक है कि पर्यावरणीय संरक्षण केवल सरकार या किसी एक संगठन का काम नहीं है, बल्कि इसमें सभी की भागीदारी आवश्यक है। अप्पिको आंदोलन ने महिलाओं को एक नई पहचान दी, उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया, और यह साबित किया कि महिलाएं भी पर्यावरणीय और सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं। जल, जंगल, और ज़मीन के संरक्षण के इस संघर्ष में महिलाओं की यह भागीदारी आने वाले समय के लिए भी प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।