“मुझे अपने कमाए गए पैसे खर्च करने की आज़ादी नहीं है। मेरा पॉकेट मनी 6000 हज़ार है। हालांकि ये मेरे पति के लिए भी तय राशि है पर वो घर के खर्च से मैनेज कर लेता है। मुझे ऑफिस के किसी कार्यक्रम या ट्रेनिंग में जाने, जिम जाने या स्कूटी चलाने जैसी साधारण चीज़ों की आज़ादी नहीं है,” दिव्या कुमारी (नाम बदला हुआ) घरेलू स्थिति में अपने और पति के बीच पावर डाइनैमिक्स को याद करते हुए कहती हैं। बिहार की रहने वाली दिव्या बैंक में नौकरी करती हैं और एक बच्ची की माँ हैं, जबकि उनके पति पिछले कुछ सालों से बेरोजगार हैं। भारत में घरेलू हिंसा एक आम पारिवारिक और सामाजिक समस्या है। इसे समझने के लिए हमें इसके मूल- रिश्ते में पावर डाइनैमिक्स को समझना होगा। आमतौर पर पारिवारिक, आर्थिक या सामाजिक सत्ता के गलत इस्तेमाल और इसके दिखावे के लिए घरेलू हिंसा जन्म लेती है।
हम अक्सर लोगों को किसी ऐसी महिला जो घरेलू हिंसा का सामना कर रही हों, उनके लिए कहते किसी सुनते हैं कि पढ़ी-लिखी महिला है, आर्थिक रूप से सशक्त है पर इसके बावजूद, हिंसा बर्दाश्त कर रही है। लेकिन अक्सर इंटीमेट पार्टनर वायलेंस (आईपीवी) यानी अंतरंग साथी के किए गए हिंसा के बारीक पहलुओं जैसे बलपूर्वक नियंत्रण की बात हम नहीं करते। बीएमसी पब्लिक हेल्थ ने 2021 में एक शोध जारी किया जिसमें साल 2015-2016 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) से 15-49 वर्ष की 66,013 विवाहित महिलाओं के आंकड़ों का विश्लेषण किया। शोध में 12 महीनों में आईपीवी की 25 फीसद व्यापकता जिसमें 11 फीसद भावनात्मक, 22 फीसद शारीरिक और 5 फीसद यौन हिंसा की तुलना में वैवाहिक बलपूर्वक नियंत्रण की व्यापकता 48 फीसद महिलाओं द्वारा अधिक बताई गई।
बीएमसी वुमन्स हेल्थ में छपे 2019-21 के एनएफएचएस डेटा के आधार पर अनैलिसिस बताती है कि सशक्त महिलाओं में आईपीवी का प्रचलन 26.21 फीसद है। जिन लोगों ने आईपीवी का अनुभव किया था, उनमें से दो-तिहाई यानी 60 फीसद को शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा। अत्यधिक सशक्त महिलाओं की तुलना में, कम सशक्त महिलाओं को भावनात्मक दुर्व्यवहार का सामना करने की संभावना 74 फीसद अधिक थी। अंतरंग साथी द्वारा शराब का सेवन किसी भी तरह की हिंसा, जिसमें यौन हिंसा भी शामिल है, के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार पाया गया। दिव्या पिछले कई सालों से इंटीमेट पार्टनर वायलेंस का सामना कर रही है। लेकिन, कामकाजी होते हुए भी वह अबतक इस रिश्ते से नहीं निकल पाई हैं। अक्सर महिलाओं को हमारे पितृसत्तातमक समाज यही बताता है कि घर-परिवार और जीवन में एक पुरुष सदस्य होना बेहद जरूरी है। वह आर्थिक रूप से सक्षम हो तो भी, समाज के लिए उनका किसी के साथ होना ही महत्वपूर्ण होता है।
क्या होता है बलपूर्वक नियंत्रण
बलपूर्वक नियंत्रण का मतलब ऐसे व्यवहार के निरंतर पैटर्न से है, जिसका उद्देश्य सर्वाइवर पर पावर या नियंत्रण का प्रयोग करना होता है। ये व्यवहार सर्वाइवर को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करते हैं और उसे अलग-थलग या डरा हुआ महसूस करा सकते हैं। इसका सर्वाइवर के दैनिक जीवन और स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। बलपूर्वक नियंत्रण में सर्वाइवर को अपने परिवार या दोस्तों से अलग करना, वे क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं या क्या करते हैं, इसपर नियंत्रण करना शामिल है। इसमें सर्वाइवर किससे मिल सकते हैं या किसके साथ समय बिता सकते हैं, इसपर नियंत्रण किया जाता है। उन्हें किसी भी प्रकार के सहायता लेने करने से रोकना, गैसलाइटिंग, ऑनलाइन या व्यक्तिगत रूप से सर्वाइवर के व्यवहार की निगरानी करना, उनपर नज़र रखना, सर्वाइवर के फाइनैन्स को नियंत्रित करना, जैसे- पैसे कमाने की क्षमता या सर्वाइवर किस पर और कितना पैसा खर्च करते हैं, इस पर नियंत्रण करना, भावनात्मक या शारीरिक रूप से धमकाना या डराना, सर्वाइवर के बारे में कोई निजी जानकारी सार्वजनिक रूप से देने की धमकी देना और अपमानित करने जैसे व्यवहार शामिल हैं।
मुझे अपने कमाए गए पैसे खर्च करने की आज़ादी नहीं है। मेरा पॉकेट मनी 6000 हज़ार है। हालांकि ये मेरे पति के लिए भी तय राशि है पर वो घर के खर्च से मैनेज कर लेता है। मुझे ऑफिस के किसी कार्यक्रम या ट्रेनिंग में जाने, जिम जाने या स्कूटी चलाने जैसी साधारण चीज़ों की आज़ादी नहीं है।
बलपूर्वक नियंत्रण को पहचाने की जरूरत
सत्ता के दुरुपयोग के लिए बलपूर्वक नियंत्रण व्यवहार अन्य प्रकार की घरेलू हिंसा की तुलना में अधिक होता है। लेकिन भारत में महिलाओं के लिए ये कितना आम है, इसकी विशेषताएं और परिणामों के बारे में बहुत कम जानकारी है। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन ने एक शोध में घरेलू बलपूर्वक नियंत्रण की व्यापकता और शारीरिक, यौन और भावनात्मक घरेलू हिंसा के साथ इसके संबंध और अवसाद, चिंता और आत्महत्या की सोच के लक्षणों की जांच की। इस सर्वेक्षण में मुंबई में शहरी अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाली 18-49 वर्ष की आयु की 4,906 विवाहित महिलाओं का साक्षात्कार किया गया, जहां घरेलू बलपूर्वक नियंत्रण की व्यापकता 71 फीसद दर्ज हुई। कुल मिलाकर, 23 फीसद महिलाओं ने पिछले 12 महीनों में घरेलू हिंसा की सूचना दी जिसमें 19 प्रतिशत भावनात्मक, 13 प्रतिशत शारीरिक और 4 प्रतिशत यौन हिंसा शामिल थी।
अक्सर रिश्ते में बलपूर्वक नियंत्रण वाले व्यवहार को प्यार और एक-दसूरे के प्रति पज़ेसिव होना समझा जाता है। साधारण तौर पर हमारा समाज महिलाओं की आज़ादी नहीं स्वीकारता और न ही ऐसे महिलाओं का साथ देता है, जो खुद अपने लिए प्यार में आज़ादी की मांग करती हैं। वहीं घरों में लड़कियों और महिलाओं को सबसे बड़ी सीख यही दी जाती है कि उससे ज्यादा उसका परिवार और पति अहम है। इसलिए, कभी प्यार, कभी समाज तो कभी इज़्ज़त के नाम पर, अपने साथी के ऐसे व्यवहार में वे निश्चिंत और सुरक्षित महसूस करती हैं। ये भी ध्यान देने वाली बात है कि घरेलू हिंसा के मामले उजागर होने पर, अक्सर परिवार और यहां तक कि सोशल कन्डिशनिंग की वजह से महिला खुद भी अपनी सुरक्षा से पहले सामाजिक इज़्ज़त की बात सोचती है।
क्या न्यायायिक प्रणाली घरेलू हिंसा को रोकने दिशा में काम कर रही है
मेडिकल पत्रिका लैन्सेट में छपी एक रिपोर्ट अनुसार घरेलू हिंसा पर लगभग 20 सालों के सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि 2001 से 2018 के बीच ‘पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता’ के तहत दर्ज मामलों में 53 फीसद की वृद्धि हुई है और साथ ही इन मामलों में गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों की औसत संख्या में कमी आई है। इसके अलावा, 2018 में दायर मामलों में से 7 फीसद से भी कम मामलों में कानूनी सुनवाई पूरी हुई और इन मामलों में अधिकांश आरोपियों को बरी कर दिया गया। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन के शोध अनुसार बलपूर्वक नियंत्रित व्यवहार के संपर्क में आने वाली महिलाओं में भावनात्मक, शारीरिक और यौन घरेलू हिंसा का सामना करने की संभावना अधिक थी। वहीं इनमें मध्यम या गंभीर अवसाद, चिंता और आत्महत्या के विचार अधिक पाए गए।
स्टॉकहोम सिंड्रोम और घरेलू हिंसा
बलपूर्वक नियंत्रण कैसे और किस कदर इंसान को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रभावित करता है, इसका अंदाजा कई बार सर्वाइवर को नहीं होता। दिव्या कहती हैं, “मुझे आज हाइपरटेंशन और डायबिटीज़ की समस्या हो गई है। मैं चिंताओं से घिरी रहती हूं। मुझे कई बार आत्महत्या का ख्याल भी आता है। काम के साथ-साथ मुझे ऑफिस से आकर काम भी करने होते हैं और बेटी को पढ़ाना और ख्याल रखना पड़ता है। मैं अपनी छोटी-छोटी जरूरतों को कमाने के बावजूद, पूरा नहीं कर पाती क्योंकि पति मना करता है। मेरा क्रडिट और डेबिट कार्ड पति के पास है। इन कारणों से मैं खुदको ऑफिस के कामों में व्यस्त रखने की कोशिश करती हूं ताकि मन अलग चीज़ों में लगा रहे। मैंने लव मैरिज की है और इसके दुष्परिणाम देखने को मिल रहे हैं।” कई बार महिलाएं समस्याजनक शादी को अपना भाग्य मान लेती हैं और इसलिए भी ऐसा व्यवहार बर्दाश्त करती हैं। वहीं कई बार वे स्टॉकहोम सिंड्रोम से ग्रसित होती हैं।
स्टॉकहोम सिंड्रोम एक मनोवैज्ञानिक स्थिति है जिसमें किसी बंधक या सर्वाइवर व्यक्ति को अपने अपहरणकर्ता या शोषक के प्रति सहानुभूति या सकारात्मक भावनाएं विकसित हो जाती हैं। यह स्थिति तब पैदा होती है जब सर्वाइवर और शोषक के बीच लंबे समय तक संपर्क बना रहता है, और सर्वाइवर अपने शोषक के प्रति भावनात्मक जुड़ाव महसूस करने लगता है। अमूमन घरेलू हिंसा में शारीरिक, मानसिक, यौन, और भावनात्मक दुर्व्यवहार शामिल होता है। इसमें पति-पत्नी, लिव-इन पार्टनर, या पारिवारिक सदस्यों के बीच शक्ति और नियंत्रण की असमानता होती है। सर्वाइवर अक्सर खुद को कमजोर और असहाय महसूस करता है, और सामाजिक दबाव या भावनात्मक निर्भरता के कारण उत्पीड़क से दूर नहीं जा पाता।
मुझे आज हाइपरटेंशन और डायबिटीज़ की समस्या हो गई है। मैं चिंताओं से घिरी रहती हूं। मुझे कई बार आत्महत्या का ख्याल भी आता है। काम के साथ-साथ मुझे ऑफिस से आकर काम भी करने होते हैं और बेटी को पढ़ाना और ख्याल रखना पड़ता है।
महिलाओं के लिए इसलिए भी बलपूर्वक नियंत्रण वाले व्यवहार को पहचानना और उससे बाहर निकलना मुश्किल होता है क्योंकि बचपन से उन्हें पिता, भाई या किसी पुरुष के विचारधारा के अधीन रहना सिखाया जाता है। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन के शोध अनुसार बलपूर्वक नियंत्रण का अनुभव नहीं करने वाली महिलाओं के मुकाबले, बलपूर्वक नियंत्रण का अनुभव करने वाली महिलाओं में आईपीवी के हर रूप को सामना करने की ज्यादा आशंका है। समाज में महिलाओं पर होने वाले बलपूर्वक नियंत्रण का न केवल उनकी स्वतंत्रता और मानसिक स्वास्थ्य पर असर करता है, बल्कि यह हिंसा के अन्य रूपों को भी जन्म देता है। पितृसत्तात्मक संरचनाओं में पली-बढ़ी महिलाएं अक्सर इस हिंसा को अपनी जिम्मेदारी के रूप में देखती हैं, जहां ये उसका दायित्व है कि वो अपने साथी में सुधार लाए। इसलिए न्यायिक व्यवस्था, सामाजिक जागरूकता, और समुदायों में संवेदनशीलता बढ़ाने से ही इस समस्या को प्रभावी ढंग से कम किया जा सकता है।