संस्कृतिकिताबें अपरिचिताः पितृसत्ता के घेरे का विरोध करती महिला की कहानी

अपरिचिताः पितृसत्ता के घेरे का विरोध करती महिला की कहानी

दूसरी तरफ कहानी की नायिका कल्याणी है जो कि स्वतंत्र ख्यालों वाली है। वह इस पितृसत्तात्मक समाज में क्रांति का रूप है जो कि किसी भी कारण से अपने जीवन में बदलाव नहीं लाती है। वह अपनी खुद की राय रखती है और उसका अटल रहना ही कारण बनता है कि वह अनुपम को सम्पूर्ण रूप से बदल देती है।

‘अपरिचिता’ रवीन्द्रनाथ टैगौर द्वारा लिखी गई 19वीं सदी के बंगाल पर आधारित कहानी है जो उस दौर के बढ़ते औपनिवेशिक वाद के उत्पीड़न और दहेज जैसी कुप्रथा पर प्रकाश डालती है। यह कहानी मूल रूप बंगाली में लिखी गई है जिसका अनुवाद 1992 में मीनाक्षी मुखर्जी के द्वारा किया गया। कहानी की नायिका अंत तक कथावाचक के लिए अज्ञात रहती है इसीलिए इसका शीर्षक दिया गया है अपरिचिता। यह ऐसी कहानी है जिसमें युवा मनोस्थिति और आज़ाद एवं सशक्त महिला का चित्रण किया है। अपनी कहानियों में रवीन्द्रनाथ टैगौर ने विभिन्न प्रकार के महिला पात्रों का वर्णन किया है जो कि मानसिक रूप से मजबूत, अपने जीवन के उद्देश्यों के प्रति दृढ़ और स्वतंत्र विचारों से समृद्ध हैं।

अपरिचिता कहानी के माध्यम से टैगौर ने समाज में प्रचलित विवाह की संस्था की सच्चाई को बड़ी ही ईमानदारी से सामने रखा है। विवाह में जिस तरह से एक संबंध के बजाय लेन-देन का व्यापार होता है, जहां लड़की के घर वालों को कुबेर का खजाना समझ जाता है जैसी कुरीतियों को बयां किया है। यह कहानी इस बात को भी बखूबी स्पष्ट करती है कि इस समाज में विवाह जैसी किसी घटना को घटित होने के लिए लड़के और लड़की जिसकी शादी करनी है उनकी इच्छा और मर्जी को छोड़ कर बाकी सभी संबंध, उद्देश्य और उनकी इच्छाएं प्राथमिक होती हैं। वैसे तो यह कहानी से आज से कई वर्षों पहले लिखी गई थी लेकिन कहानी में उल्लखित रूढ़िवादी घटनाएं आज भी हमारे समाज में प्रचलित हैं। आज भी हम देखते है कि लड़की के परिवार को कमजोर दिखाना, उनका सिर झुका होना चाहिए, लड़की के रंग-रूप और चाल-चलन पर टिप्पणी करना, दहेज की मांग करना उसके उपरांत भी जब उनका दिल न भरे तो बारात वापस लौटा लाना, शादी के उपरांत दहेज के नाम पर लड़की का शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न करना और हिंसा की सभी घटनाएं होती है। दूसरा सच यह भी है कि समाज में शम्भूनाथ जैसे पिता भी है और मामा जैसे लोग भी उपस्थित हैं।

शादी से ठीक पहले लड़के के मामा दहेज में दिए जा रहे सोने के गुणवत्ता की जांच करना चाहता है। यह बात लड़की के पिता शम्भूनाथ के लिए बहुत अपमानजनक और शर्मनाक है। वास्तव में यह सोने की गुणवत्ता की जांच नहीं थी। यह उनकी ईमानदारी और निष्ठा पर सवाल था।

यह कहानी एक 27 वर्ष के युवा व्यक्ति (अनुपम) के माध्यम से कही गई है जो इस कहानी का नायक है। उसके पिता की मृत्यु हो चुकी है उसका लालन-पोषण उसकी माँ ने किया है और देखभाल मामा ने बड़ी भूमिका निभाई है। हालांकि मामा और अनुपम की उम्र में महज छह वर्ष का अंतर है। अनुपम के पिता पहले गरीब परिवार से थे किन्तु वकील बनने के बाद अपनी लगन और मेहनत से ढेरों पैसा कमाते हैं। इस तरह से नायक एक पढ़े-लिखे और समृद्ध परिवार से संबंध रखता है। उसके जीवन से जुड़े फैसले उसके मामा और माँ लेते हैं। वह अपनी माँ का कहा ही करता है और उनके किए फैसलों के ख़िलाफ़ नहीं जाता है। इतना ही नहीं न ही उसका विरोध करना उसके नियंत्रण में है। दूसरी तरफ कहानी की नायिका कल्याणी है जो कि स्वतंत्र ख्यालों वाली है। वह इस पितृसत्तात्मक समाज में क्रांति का रूप है जो कि किसी भी कारण से अपने जीवन में बदलाव नहीं लाती है। वह अपनी खुद की राय रखती है और उसका अटल रहना ही कारण बनता है कि वह अनुपम को सम्पूर्ण रूप से बदल देती है। जिससे उसमें सोचने-समझने की चेतना का विकास होता है।

कहानी शुरू होती है एक ऐसी लड़की की तलाश से जो विनम्रता के साथ सिर झुका कर इस घर में रहे और इस परिवार के नियंत्रण में रहे। साथ ही उसका परिवार भी इनके सामने नतमस्तक रहें। परिवार, अमीर हो जिससे इनके धन के प्रति लोलुपता पूरी हो सके किन्तु इनसे नीचे रहे ताकि उनका सम्मान न करना पड़े। हमारे समाज में लड़की के पिता का सम्मान करने में लड़के के पिता या संबंधियों को हीनता का अनुभव होता है। लड़के के पिता हाथ फैलाए, सिर उठा के चलते हैं और लड़कियों के पिता अपनी सम्पूर्ण जमा पूंजी को लुटाते हुए भी इनके सामने सिर झुकाए खड़े होते हैं। लड़की की तलाश खत्म होती है और चुनी जाती है कल्याणी। वह अपने पिता की एकलौती पुत्री है। पहले उसकी 15 साल की उम्र को सुनकर उसके विवाह की विलंबता को संदर्भ में रख कर अनेकों कमियों की आशंका दर्शाकर उसपे टीका-टिप्पणी की जाती है। उसके बाद बिचौलिये हरीश के माध्यम से अंततः पैसों और सोने की मात्रा, गुणवत्ता के साथ कल्याणी और अनुपम का विवाह तय होता है।

तय समय पर बारात आती है और कुछ वैवाहिक रीति-रिवाजों को शुरू किया जाता है किंतु शादी से ठीक पहले लड़के के मामा दहेज में दिए जा रहे सोने के गुणवत्ता की जांच करना चाहता है। यह बात लड़की के पिता शम्भूनाथ के लिए बहुत अपमानजनक और शर्मनाक है। वास्तव में यह सोने की गुणवत्ता की जांच नहीं थी। यह उनकी ईमानदारी और निष्ठा पर सवाल था। उन्होंने इस पर लड़के की राय पूछी लेकिन वह चुप रहा। इस पर उसके मामा कहते है कि जो मेरी राय है वही उसकी राय है। उसे इस बारे में कुछ नहीं पता है। वह कहते हैं उसका पालन पोषण पूरे परिवार ने मिलकर किया है वह हमारे अधीन है और कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र नहीं है। वह पूरा सोना जो कि दुल्हन ने पहन रखा था उसे उतरवाता है और जो भी दिया जाना था सब एक पोटली में रख कर सुनार के सामने रखा जाता है। सबके सामने उसकी गिनती कराई जाती है और उसके गुणवत्ता की भी जांच कराई जाती है जिससे पता चलता है की सारे सोनों की गुणवत्ता बहुत अच्छी है।

तस्वीर साभारः Flipkart

उसी समय शम्भूनाथ एक और जेवर देते हैं और उसकी जांच करने के लिए कहते हैं जो कि नकली होता है। वह बताते है कि यह जेवर लड़के के मामा ने लड़की को दिया था। इस बात पर मामा बड़े गुस्से में आ जाते है। उन्होंने लड़की के पिता को नीचा दिखाने के लिए जो स्वांग किए थे वे पूरे न हो सके और उन पर खुद पर सवाल उठ गए। इस घटना के बाद शम्भूनाथ ने सभी बरातियों को खाना खिलाया और उसके बाद बिना शादी के जाने को कह दिया। ऐसी कहानियां तो बहुत घटित हुई हैं और सुनने को मिलता है कि दूल्हा बिना दुल्हन के लौट गया लेकिन इसमें नया था। वह खुद नहीं लौटे बल्कि लौटाए गए थे। शम्भूनाथ ने शादी से इनकार कर दिया था। वह अपनी बेटी को ऐसे लालची लोगों के यहां शादी करने से बेहतर कुंवारी रखने को वरीयता देने की बात करते हैं।

भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में एक लड़की के व्यक्तिगत जीवन, आत्म स्वाभिमान को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। वहीं शम्भूनाथ ऐसे पिता है जो समाज की रीतियों से अलग अपनी बेटी के लिए अच्छा निर्णय लेते हैं। यह एक तरह का विद्रोह था जो अनुपम के लिए बिल्कुल नया था। वह इससे चकित रहता है। उसके लिए अपमान का विषय था। वह इकलौता ऐसा दूल्हा था जिसे दुल्हन के पिता अपने द्वार से वापस भेज दिया था। यह बात उसके भी मन में विद्रोह पैदा करती है और वह अपने घर वालों की राय से अलग हो जाता है। वह कल्याणी के घर जाता है और उससे और उसके पिता से माफी मांगता है और दोबारा शादी का प्रस्ताव रखता है। इस बार पूरा निर्णय कल्याणी पर छोड़ दिया जाता है। वह अपने प्रस्ताव के इंतजार में दिन गुजारता है।

इसके बाद यहां कल्याणी का असल विद्रोह दिखाता है। जब वह कहती है कि पूरे जीवन शादी न करने का विचार किया है और अब वह किसी से भी शादी नहीं करेगी। वह बच्चों को पढ़ाएगी। उसका यह विद्रोह समाज की प्रथाओं और परंपराओं के ख़िलाफ़ था। वह अपने आप को अपने ससुराल वालों के हाथों में सौपने के बजाय लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने, समाज के मापदंडों में फिट आने के बजाय, किसी पर आश्रित होने के बजाय उन्हें एक स्वतंत्र जीवन की पहचान कराएगी। उन्हें अपने नियमों और मापदंडों पर चलना सिखाएगी।

इसके बाद यहां कल्याणी का असल विद्रोह दिखाता है। जब वह कहती है कि पूरे जीवन शादी न करने का विचार किया है और अब वह किसी से भी शादी नहीं करेगी। वह बच्चों को पढ़ाएगी। उसका यह विद्रोह समाज की प्रथाओं और परंपराओं के ख़िलाफ़ था।

इस तरह से रवीन्द्रनाथ टैगौर की कहनी की नायिका अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व को बनाने में सफल होती है और अपने जीवन को एक सही दिशा देती है। टैगौर की कहानियों की स्त्रियां हमेशा कमजोर नहीं रही हैं। वह फैसले लेती हैं और अपने हित में लेती हैं। यह कहानियां उन महिलाओं के लिए सकारात्मक उदाहरण हैं जो इस पितृसत्तात्मक समाज की कठपुतली हैं जिनके सामने कोई रास्ता नहीं दिख रहा। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की नीतियों की जो उत्पीड़न का सामना कर रही है। कल्याणी को यहां जब मौका मिलता है वह अपनी एजेंसी का इस्तेमाल करती है। अपनी खुद की जिंदगी के लिए अपना तरीका चुनती है। यह सशक्त और स्वतंत्र महिला का उदाहरण है। इस कहानी में पिता की भूमिका भी अविस्मरणीय है जो रिवायाती पिताओं की तरह समाज के दबाव के कारण कल्याणी के जीवन में अटकलें नहीं पैदा करता है बल्कि उसका भरपूर साथ देता है और आगे भी उसके सभी फैसलों में उसके साथ रहता है।

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