समाजकैंपस क्या सच में सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए हैं क्रियाशील शौचालय?

क्या सच में सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए हैं क्रियाशील शौचालय?

स्कूल में शौचालय न होने से लड़कियां स्कूल के आस-पास खुले में जाने पर मजबूर होती है जिससे उनके साथ यौन हिंसा और अन्य लैंगिक अपराधों का ख़तरा भी बढ़ जाता है। बहुत बार अभिभावक सुरक्षा से जुड़ी वजहों से लड़कियों की पढ़ाई छुड़वा देते हैं या फिर प्राइवेट में पढ़ाने की औपचारिकता पूरी करते हैं।

हाल ही में केंद्र सरकार ने एक जनहित याचिका के जवाब में सुप्रीम कोर्ट को जानकारी देते हुए बताया कि देश के 97.5 प्रतिशत स्कूलों में छात्राओं के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था है। आंकड़ा सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त और निजी स्कूलों में किए गए प्रयासों को दिखाता है। यह ख़बर निश्चित तौर पर एक सकारात्मक पहल है, ख़ास तौर पर उन छात्राओं के लिए जो शौचालय की सुविधा न होने की वजह से स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर हो जाती थीं। हालांकि लड़कियों की शिक्षा के लिहाज से यह ख़बर काफ़ी मायने रखती है लेकिन असली तस्वीर सामने लाने के लिए इसकी ज़मीनी स्तर पर पड़ताल बेहद ज़रूरी हो जाती है। खाना, कपड़ा और मकान की तरह शौचालय इंसान की बुनियादी ज़रूरतों में से एक है। यह न सिर्फ़ स्वच्छता और स्वास्थ्य से जुड़ा है, बल्कि देश में ख़ास तौर पर महिलाओं के लिए यह सुरक्षा और सम्मान का मामला भी बन जाता है। स्कूली शिक्षा के दौरान जब लड़कियां किशोरावस्था में पहुंचती हैं, तब पीरियड्स शुरू हो जाते हैं और इस दौरान स्वच्छ शौचालय की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है।

ऐसे में स्वच्छ और कार्यशील शौचालय उपलब्ध न होने से पीरियड्स के दौरान स्कूलों में छात्राओं की उपस्थिति घट जाती है। इससे इनकी पढ़ाई बाधित होती है। ऐसे दिनों में परीक्षा की तारीख़ पड़ जाने से इन छात्राओं में मानसिक तनाव का स्तर भी बढ़ जाता है। वॉटर एड नामक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ के आंकड़ों का हवाला देते हुए एक रिपोर्ट प्रकाशित किया, जिसमें बताया गया कि दुनिया भर में 400 मिलियन से ज्यादा बच्चों के पास स्कूल में मानकों के अनुसार शौचालय उपलब्ध नहीं हैं। इससे लड़कियों को ख़ासतौर पर पीरियड्स के दौरान दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इस तरह शौचालय की बुनियादी सुविधा न होने से लड़कियों में स्कूल ड्रॉपआउट की दर बढ़ जाती है, जो इन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 ए के तहत दिए गए शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित करता है।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पाया गया है कि लगभग 23 फीसद लड़कियां शौचालय की व्यवस्था न होने से हमेशा के लिए स्कूल छोड़ देने पर मजबूर हो जाती हैं।

शौचालय का लड़कियों के स्कूल ड्रॉपआउट दर पर असर

तस्वीर साभार: Canva

टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पाया गया है कि लगभग 23 फीसद लड़कियां शौचालय की व्यवस्था न होने से हमेशा के लिए स्कूल छोड़ देने पर मजबूर हो जाती हैं। इसके विपरीत अगर स्कूल में शौचालय की उचित व्यवस्था होती है तो उनकी उपस्थिति तो बढ़ती ही है, साथ ही शिक्षा के प्रति रुचि भी बढ़ती है। इस तरह शौचालय की सुविधा का लड़कियों की शिक्षा से सीधा संबंध पाया गया। ख़ास तौर पर उच्च प्राथमिक स्तर यानी छठवीं से आठवीं तक की कक्षा में लड़कियों के स्कूल ड्रॉपआउट करने की दर बढ़ जाती है जिसका सीधा संबंध पीरियड्स और शौचालय से है। इसलिए बेटी पढ़ाओ जैसे स्लोगन को सार्थक करने के लिए और लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूलों में अच्छे और कार्यशील शौचालयों का होना बेहद ज़रूरी हो जाता है।

सरकारी आंकड़े और ज़मीनी हक़ीक़त

सरकार के अपने दावे के अनुसार देश के 98 फीसद स्कूलों में छात्राओं के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था है लेकिन वास्तविक स्थिति इससे काफ़ी अलग है। नेशनल हेराल्ड में प्रकाशित कैग की एक रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी आंकड़ों में दर्ज़ शौचालयों में से 40 फीसद शौचालय हक़ीक़त में मौजूद ही नहीं हैं, अधूरे हैं या फिर उपयोग किए जाने की स्थिति में नहीं हैं। रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि 70 फीसद से अधिक शौचालयों में पानी की व्यवस्था नहीं है और लगभग 75 फीसद शौचालय स्वच्छता के मानकों के अनुसार नहीं हैं। किसी भी शौचालय में पानी और सफाई के साथ ही सेनेटरी नैपकिन के निपटान की व्यवस्था इसका अनिवार्य हिस्सा है। बावजूद इसके सरकारी आंकड़ों में दिखाने के लिए कागजों पर तो शौचालय बन गए हैं लेकिन जब इनका इस्तेमाल ही नहीं किया जा सकता तो फिर इनका कोई फ़ायदा ही नहीं है। 

भारत में अभी भी परंपरागत तौर पर लड़कियों की पीरियड्स को लेकर बहुत सारी रूढ़ियां और पूर्वाग्रह मौजूद हैं। पीरियड्स के दौरान लड़कियों को अपवित्र मानना और उन्हें घर के कमरे तक सीमित कर देना आज भी आम बात है।

शौचालय की सफाई और रख-रखाव

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2014 में सर्व शिक्षा अभियान के लक्ष्य को पूरा करने के लिए देश के स्कूलों में लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालयों की व्यवस्था करने के लिए स्वच्छ विद्यालय अभियान शुरू किया गया था, जिसके तहत स्कूलों में लाखों शौचालय बनाए गए। बाद में कैग द्वारा किए गए ऑडिट में यह पाया गया कि कागजों पर मौजूद ज़्यादातर शौचालय या तो बनाए ही नहीं गए हैं या फिर अधूरे हैं। कुछ शौचालय में पानी की व्यवस्था नहीं थी तो कुछ में सफाई के नियमों का पालन नहीं किया जा रहा था। इनमें सेनेटरी नैपकिन के निपटान की व्यवस्था भी नहीं पाई गई। यहां तक कि बहुत सारे शौचालयों में ताला लगा भी मिला, ज़ाहिर सी बात है इनका इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं थी। स्कूलों में शौचालय महज खानापूर्ति बन कर रह गए। शौचालय की साफ सफाई और रखरखाव शौचालय बनाने के जितना ही मायने रखता है।

सामाजिक और सांस्कृतिक रुकावटें

भारत में अभी भी परंपरागत तौर पर लड़कियों की पीरियड्स को लेकर बहुत सारी रूढ़ियां और पूर्वाग्रह मौजूद हैं। पीरियड्स के दौरान लड़कियों को अपवित्र मानना और उन्हें घर के कमरे तक सीमित कर देना आज भी आम बात है। इसके साथ ही स्कूल में शौचालय की कमी इस समस्या को और भी बढ़ा देती है। इससे लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई पर बुरा असर पड़ता है और उनके आत्मविश्वास में कमी आती है। हमारे यहां शौचालय लड़कियों की सुरक्षा से भी जुड़ा है। गांव से लेकर शहरों तक लड़के सार्वजनिक स्थानों पर खुले में पेशाब करते आसानी से देखे जा सकते हैं जबकि लड़कियों को मजबूरी में भी ऐसा करने के लिए बहुत बार सोचना पड़ता है। स्कूल में शौचालय न होने से लड़कियां स्कूल के आस-पास खुले में जाने पर मजबूर होती है जिससे उनके साथ यौन हिंसा और अन्य लैंगिक अपराधों का ख़तरा भी बढ़ जाता है। बहुत बार अभिभावक सुरक्षा से जुड़ी वजहों से लड़कियों की पढ़ाई छुड़वा देते हैं या फिर प्राइवेट में पढ़ाने की औपचारिकता पूरी करते हैं। ऐसे में स्कूल में लड़कियों के लिए स्वच्छ और कार्यशील शौचालय के महत्त्व को आसानी से समझा जा सकता है।

हमें यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि स्कूल में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की सुविधा देना इनकी शिक्षा को सुधारने का महज एक पहलू है। इसके अलावा भी बहुत सारी बातें हैं जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

क्या हो सकता है समाधान 

स्कूलों में स्वच्छ और कार्यशील शौचालय की उपलब्धता सभी को सुनिश्चित करने के लिए बहुआयामी प्रयासों की आवश्यकता है। सबसे पहले तो यह जानना ज़रूरी है कि सिर्फ़ शौचालय बना देने से इसकी समस्या का हल नहीं होगा, बल्कि इनमें नियमित सफाई, उचित देखभाल, पानी की उचित व्यवस्था पर भी ध्यान दिया जाए। इनकी सफाई और रखरखाव के लिए स्थानीय समुदाय की भागीदारी भी बढ़ाई जा सकती है। इसके साथ ही शिक्षकों के माध्यम से विद्यार्थियों को उनके स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिए प्रेरित करना भी अहम भूमिका निभा सकता है। समय-समय पर संस्थाओं द्वारा शौचालयों की स्थिति का औचक निरीक्षण किया जाना चाहिए, जिससे आंकड़ों और वास्तविकता की असली तस्वीर सामने आ सके। इसी तरह शौचालयों के प्रबंधन और रखरखाव के लिए जवाबदेही भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसके साथ ही जब हम शौचालय की बात करते हैं, तो सिर्फ़ जेंडर बाइनरी के आधार पर लड़के-लड़कियों की बात न करके दूसरे जेंडर्स और विकलांग विद्यार्थियों की ज़रूरतों और सुविधाओं को भी ध्यान में रखना ज़रूरी है।

हमें यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि स्कूल में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की सुविधा देना इनकी शिक्षा को सुधारने का महज एक पहलू है। इसके अलावा भी बहुत सारी बातें हैं जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। लड़कियों के स्कूल जाने आने और स्कूल में उनकी सुरक्षा की उचित व्यवस्था की जाए। इसके साथ ही घरेलू कामों की ज़िम्मेदारी जेंडर के आधार पर न होकर घर के सभी सदस्यों पर होनी चाहिए, जिससे लड़कियों को भी पढ़ाई और खेलकूद का समान अवसर मिले। बाल विवाह और कम उम्र में विवाह पर भी रोक लगनी चाहिए जिससे लड़कियों को पढ़ाई और कॅरियर बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल सके। जब तक यह सारे कदम नहीं उठाए जाएंगे, तब तक सरकारी आंकड़े महज आंकड़े बनकर रह जाएंगे और ज़मीनी स्तर पर लड़कियों की शिक्षा में वास्तविक तौर पर कोई बदलाव ला पाना मुश्किल होगा।

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