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इतिहास राजमोहिनी देवी: नशा मुक्त समाज और आदिवासी महिलाओं के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता| #IndianWomenInHistory

राजमोहिनी देवी: नशा मुक्त समाज और आदिवासी महिलाओं के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता| #IndianWomenInHistory

उनके साहसिक कामों के लिए साल 1989 में उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। उनके जीवन पर आधारित पुस्तक, सामाजिक क्रांति की अग्रदूत राजमोहिनी देवी, सीमा सुधीर जिंदल द्वारा लिखित और छत्तीसगढ़ राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी द्वारा 2013 में प्रकाशित की गई है।

कुछ दशक पहले भी न जाने कितनी ही महिला योद्धाओं ने समाज सुधार के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कई जन आंदोलन भी हुए जिसमें महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। लेकिन, कई ऐसी साहसी आदिवासी महिलाओं के भी नाम हैं जिनके नाम इतिहास के पन्नों पर नाम दर्ज तो है, पर उन नामों को वो प्रसिद्धि नहीं मिली जिनकी वे हकदार हैं। राजमोहिनी देवी एक ऐसा ही नाम है। मोहिनी देवी छत्तीसगढ़ के सरगुज़ा ज़िले की एक आदिवासी महिला थीं जिन्होंने छत्तीसगढ़ के गोंड़ आदिवासी समाज को शोषण मुक्त बनाने, समाज को नशा मुक्त करने और महिलाओं की शिक्षा के लिए पूरी जिंदगी संघर्ष की।

छत्तीसगढ़ के संस्कृति को संवारने में राजमोहिनी की भी अहम भूमिका रही है। उन्होंने जंगल के इलाके को बचाकर रखने का बीड़ा उठाया और यहां के स्थानीय निवासियों को शोषण के खिलाफ लड़ना सिखाया। उन्होंने लोगों की खासकर महिलाओं की शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ज़मींदारों, सामंतों के किए  जा रहे शोषण से मुक्त होने का रास्ता दिखाया। दबे-कुचले आदिवासी समाज को बराबरी का हक़ दिलाने और रूढ़िवादी समाज को नए विचार के साथ बदलने के लिए राजमोहिनी देवी ने कई आंदोलन किए। छत्तीसगढ़ के सरगुज़ा ज़िले में यह पहला सामाजिक आंदोलन था, जिसे राजमोहिनी देवी के नाम से ही जाना जाता है।

छत्तीसगढ़ के संस्कृति को संवारने में राजमोहिनी की भी अहम भूमिका रही है। उन्होंने जंगल के इलाके को बचाकर रखने का बीड़ा उठाया और यहां के स्थानीय निवासियों को शोषण के खिलाफ लड़ना सिखाया।

मोहिनी देवी के जीवन का शुरुआती समय  

छत्तीसगढ़ के सरगुज़ा ज़िले के एक बीहड़ गांव शारदापुर में जुलाई 1914 को उनका जन्म हुआ। वे एक छोटे से गांव के गरीब कृषि मज़दूर की बेटी थी। वे अशिक्षित थी और गांव की अन्य लड़कियों की तरह महुआ बिनकर लाने, खेतों में काम करने और घर में माँ का हाथ बँटाने का काम करती। उस समय जब देश में अंग्रेजों का दबदबा था, देश की जो हालत थी, उसका असर बाक़ी परिवारों के साथ-साथ मोहिनी देवी के परिवार पर भी पड़ा। उनके पिता ठाकुर विरसाय सज्जन व्यक्ति थे। देश में चल रहे स्थिति को वे समझते थे और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के  लिए जिस भी प्रकार की मदद संभव हो, वे करते थे। उनके इन्हीं स्वभाव से मोहिनी देवी प्रभावित हुई। अंग्रेज़ी शासन के समय ज़मीदारों,राजाओं के यहां बिगार प्रथा चलता था। यानी बिना मेहनताने के लोग जमींदारों और राजाओं के यहां काम करने पर मजबूर थे। उनके पिता ने ज़मीदारों और राजाओं के ग़ुलाम प्रथाओं के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। इस दौरान राजमोहिनी ने भी सामाजिक बुराइयों के प्रति आवाज़ उठाना शुरू किया।

तस्वीर साभार: ETV Bharat

सामाजिक मान्यता और परंपरा के आधार पर उनकी शादी 15 साल के उम्र में ही कर दी गई। लेकिन, दो साल बाद ही उनके पति की किसी बीमारी से मौत हो गई। लेकिन उनके न चाहते हुए भी  कुछ साल बाद ही उनकी दोबारा शादी करवा दी गई। राजमोहिनी देवी बचपन से ही अपने जीवनकाल में विपरीत परिस्थितियों का सामना किया। कम उम्र में ही उनका विवाह कर दिया गया था, विवाह के छः महीने बाद स्वास्थ्य खराब होने के कारण उन्हें अपने माता-पिता के पास आना पड़ा। पांच साल के लंबे इलाज के कारण पति ने उनसे संबंध अलग कर लिया। इसके बाद, उनका दूसरा विवाह 15 वर्ष की आयु में वाड्रफनगर में स्थित ग्राम गोविन्दपुर के व्यक्ति से हुआ। राजमोहिनी देवी के 4 पुत्रियां और 4 पुत्र हुए लेकिन संतान सुख भी इन्हें अधिक दिनों तक नहीं मिल पाया। उनके बच्चों की एक के बाद एक मृत्यु होने लगी। लेकिन इन सबके बीच, उन्होंने समाज में महिलाओं की स्थिति और आदिवासी वनवासियों का नशे में गुम रहने को देख उन्होंने समाज सुधार और शिक्षा का बीड़ा उठाया।

1951 के अकाल के दौरान गांधीवादी विचारधारा और आदर्शों से प्रभावित होकर उन्होंने राजमोहिनी आंदोलन के नाम से एक जन आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य आदिवासी महिलाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता सुनिश्चित करना और अंधविश्वास और शराब की समस्या को खत्म करना था।

राजमोहनी देवी की गांधीवादी विचारधारा

स्वतंत्रता के बाद भी ज़मींदारों और पुलिस के शोषण का शिकार आदिवासी समुदाय को उनके अपने मेहनत के अनाज, बैल, ज़मीन, बकरी, चारा, तेंदू, महुआ, पेड़-पौधे, कुछ भी अपने कहने का हक़ नहीं था। उनकी मेहनत की सारी चीज़ें ज़मींदारों और राजाओं के बेगारी में चली जाती थीं। बड़े घरों के लोग अक्सर आदिवासी महिलाओं का  कथित तौर पर यौन शोषण करते थे। आस-पास कोई अस्पताल की सुविधा न होने के कारण प्रसव के दौरान महिलाओं और नवजात शिशुओं की मृत्यु आम बात थी। एक महिला न चाहते हुए भी, 9-10 बच्चों को जन्म देने को मजबूर थी। उन्हें बोलने या विरोध करने का कोई अधिकार नहीं था। शराब के ठेकेदारों और ज़मींदारों की मिलीभगत से शराब का व्यापार बढ़ता जा रहा था। लोग अधिकतर समय नशे में धुत नज़र आते थे। शराब के ठेके बढ़ाए जा रहे थे, और आदिवासी समुदाय शराब की लत में फंसता जा रहा था। इन सभी स्थितियों को जो समझ रही थीं, वह थीं राजमोहिनी देवी। वे सभी धर्म और जाति को समान मानती थीं, लेकिन आदिवासी संस्कृति का क्षरण और महिलाओं की दयनीय स्थिति देखकर बहुत चिंतित थीं।

खुद अशिक्षित होने का दर्द उन्हें सताता था। लेकिन अपने गांव की बहनों पर उन्हें विश्वास था। उन्होंने महिलाओं को शिक्षित करने का निश्चय किया। वे गांव की महिलाओं के घर जाकर उनके कामों में मदद करतीं, प्रसव के समय सहायता करतीं और शराब के नशे में धुत पतियों से उनकी पत्नियों की सुरक्षा की बात करतीं। राजमोहनी देवी गांधीवादी विचारधारा वाली एक समाज सेविका थी जिन्होंने बापू धर्म सभा आदिवासी मण्डल की स्थापना की। ये संस्था गोंडवाना स्थित आदिवासियों के हित के लिए काम करती है। 1951 के अकाल के दौरान गांधीवादी विचारधारा और आदर्शों से प्रभावित होकर उन्होंने राजमोहिनी आंदोलन के नाम से एक जन आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य आदिवासी महिलाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता सुनिश्चित करना और अंधविश्वास और शराब की समस्या को खत्म करना था। धीरे-धीरे इस आंदोलन से 80,000 से ज़्यादा लोग जुड़ गए। बाद में यह आंदोलन एक गैर-सरकारी संगठन के रूप में उभरा। आज इस संगठन के आश्रम न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि उत्तर प्रदेश और बिहार में भी हैं।

उन्होंने हिंसा का विरोध किया, ज़मींदारों और राजाओं की गुलामी से मुक्ति पाने के लिए वनवासियों की ज़मीन वापस लेने और समाज से छुआछूत, धर्म-भेद को खत्म करने के लिए कई बड़े आंदोलन किए। कुछ समय बाद, उन्होंने खुद आदिवासी महिलाओं के साथ मिलकर स्कूली शिक्षा भी प्राप्त की और लड़कियों को पढ़ने के लिए प्रेरित भी किया।

राजमोहनी देवी के जीवन में परिवर्तन 

उन्होंने सबसे पहले महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। खुद शिक्षा प्राप्त न होने के बावजूद, उन्होंने स्कूली शिक्षा के अलावा अन्य तरीकों से महिलाओं को शिक्षित किया। उन्होंने बाल विवाह पर रोक लगाई और शराब जैसी बुरी आदतों का त्याग करने पर जोर दिया। एक समय ऐसा आया जब लोग सामूहिक रूप से शराब छोड़ने लगे और गांव के सभी शराब अड्डों को बंद करवा दिया। उनके आंदोलन की सफलता के चलते उनके नाम से कई आश्रम और महाविद्यालयों की स्थापना की गई। उन्होंने हिंसा का विरोध किया, ज़मींदारों और राजाओं की गुलामी से मुक्ति पाने के लिए वनवासियों की ज़मीन वापस लेने और समाज से छुआछूत, धर्म-भेद को खत्म करने के लिए कई बड़े आंदोलन किए। कुछ समय बाद, उन्होंने खुद आदिवासी महिलाओं के साथ मिलकर स्कूली शिक्षा भी प्राप्त की और लड़कियों को पढ़ने के लिए प्रेरित भी किया।

उनके साहसिक कामों के लिए साल 1989 में उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। उनके जीवन पर आधारित पुस्तक, सामाजिक क्रांति की अग्रदूत राजमोहिनी देवी, सीमा सुधीर जिंदल द्वारा लिखित और छत्तीसगढ़ राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी द्वारा 2013 में प्रकाशित की गई है। राजमोहिनी देवी एक ऐसा नाम हैं जिन्होंने आदिवासी समाज में जागरूकता और बदलाव का बीज बोया। उनके संघर्ष और योगदान ने समाज को नशा मुक्त करने, महिलाओं को सशक्त बनाने और आदिवासी समाज को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने का मार्ग दिखाया। उनका जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि चाहे समाज में कितनी भी चुनौतियां क्यों न हों, एक दृढ़ निश्चय और सच्ची लगन से उन पर विजय प्राप्त की जा सकती है। राजमोहिनी देवी का संघर्ष हमें यह सिखाता है कि जब तक महिलाओं को उनके अधिकार नहीं मिलते, तब तक समाज में सच्ची प्रगति संभव नहीं है। उनके द्वारा नशा मुक्त समाज और आदिवासी महिलाओं की स्वतंत्रता की जो मशाल जलाई गई है, वह आज भी हमारे समाज में जल रही है और हमें बेहतर भविष्य की ओर प्रेरित कर रही है।

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