इंटरसेक्शनलजेंडर महिला निर्देशकों की फ़िल्में और भारतीय सिनेमा जगत पर इसका प्रभाव 

महिला निर्देशकों की फ़िल्में और भारतीय सिनेमा जगत पर इसका प्रभाव 

सलाम बॉम्बे, मॉनसून वेडिंग और द नेमसेक जैसी फ़िल्मों के माध्यम से गरीबी, प्रवास और पहचान के मुद्दे को उठाते हुए मीरा नायर ने रियलिस्टिक सिनेमा को मजबूत करने का काम किया। इसी तरह ज़ोया अख़्तर की फिल्म गली बॉय मुंबई के झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लड़के के सपनों और संघर्षों को सामने लाती है।

सिनेमा अपने विचार और भावनाओं को व्यक्त करने का सबसे सशक्त और लोकप्रिय माध्यम है। इसकी पहुंच और प्रभाव समाज के हर वर्ग तक है। भारतीय सिनेमा में लंबे समय तक पुरुष फ़िल्म मेकर्स, निर्देशकों और पटकथा लेखकों का वर्चस्व रहा है। इसके बावजूद भारतीय सिनेमा में पिछले कुछ दशकों में काफ़ी क्रांतिकारी बदलाव देखे जा रहे हैं। महिला निर्देशकों और फ़िल्म मेकर्स के दखल ने भारतीय सिनेमा को नए सिरे से परिभाषित करने और नया दृष्टिकोण देने का काम किया है। इनकी फ़िल्मों के माध्यम से दर्शकों को भारतीय समाज के ऐसे अनछुए पहलुओं से रूबरू होने का मौका मिल रहा है, जिन्हें अक्सर मुख्यधारा की फ़िल्मों में नज़रअंदाज कर दिया जाता था। महिला निर्देशकों ने न सिर्फ़ महिलाओं की कहानियों को अनुभवों को पर्दे पर उतारा है बल्कि हाशिए के समुदाय जैसे एलजीबीटीक्यू+ समुदाय और विकलांग लोगों को भी मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश की है। इस तरह महिला निर्देशकों के भारतीय सिनेमा में भागीदारी से सिनेमा का नैरेटिव और अधिक समावेशी और समृद्ध हो रहा है।

महिला निर्देशकों का बढ़ता प्रभाव और हाशिये के समुदायों का चित्रण

फ़िल्म जगत में महिला निर्देशकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। पहले जहां ये ख़ास तौर पर मुख्यधारा से अलग हटकर छोटे बजट की आर्ट फिल्मों का निर्देशन किया करती थीं, वहीं अब बड़े बजट की और मुख्यधारा की फ़िल्में भी बना रही हैं। इसका नतीजा यह है कि दर्शकों को पितृसत्तात्मक कहानियों, टॉक्सिक मैस्क्युलिनिटी और मेल ओरिएंटेड फ़िल्मों के अलावा भी बहुत सारे बेहतरीन कहानियां, पहलुएं और विविधतापूर्ण विषयों पर फिल्में देखने को मिल रही हैं। इन महिला निर्देशकों के कहानी कहने का तरीका भी तुलनामूलक ज़्यादा संवेदनशील होता है जो दर्शकों को अलग तरीके से प्रभावित करता है। ये ऐसे मुद्दों को भी अपनी कहानियों में जगह दे रही हैं जिन्हें आमतौर पर समाज द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है। 

इन महिला निर्देशकों के कहानी कहने का तरीका भी तुलनामूलक ज़्यादा संवेदनशील होता है जो दर्शकों को अलग तरीके से प्रभावित करता है। ये ऐसे मुद्दों को भी अपनी कहानियों में जगह दे रही हैं जिन्हें आमतौर पर समाज द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है। 

मुख्यधारा की बॉलीवुड फ़िल्मों में हाशिए के समुदाय को या तो अनदेखा किया गया है या फिर इनका मजाक उड़ाया गया है। ख़ास तौर पर विकलांग लोगों को बेहद असंवेदनशील तरीके से चित्रण किया गया है। गोलमाल सीरीज और हाउसफुल जैसी फ़िल्में इसका उदाहरण हैं। आमतौर पर इन्हें फ़िल्मों में कॉमेडी के लिए रखा जाता है, जिसमें इनका मजाक उड़ाना और बेइज्जती करना आम बात होती है। वहीं महिला निर्देशकों ने हाशिए के समुदाय को बेहद गंभीरता और संवेदनशील तरीके से दिखाने की कोशिश की है। फ़िल्म निर्देशक अपर्णा सेन इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। अपनी फ़िल्म सती में जिस तरह से इन्होंने एक मूक महिला के संघर्षों और चुनौतियों को दिखाया, वह काबिलेतारीफ़ है। इसी तरह यादों का घर और 15 पार्क एवेन्यू जैसी फिल्मों के माध्यम से सेन ने मानसिक बीमारियों को लेकर समाज में मौजूद पूर्वाग्रहों को तोड़ने का काम किया है।

एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के अनुभवों को जगह 

तस्वीर साभार: Indian Express

जब भी भारतीय सिनेमा में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के चित्रण की बात आती है, तो सबसे पहले दीपा मेहता निर्देशित फ़िल्म फायर का नाम सामने आता है। हालांकि इसमें क्वीयर संबंधों को उतने मुखर रूप में नहीं दिखाया गया, लेकिन 1996 में दो महिलाओं के बीच के आपसी संबंधों को पर्दे पर दिखाना भी अभूतपूर्व घटना थी। इस फ़िल्म ने भारतीय समाज में हलचल मचा दी और बड़े पैमाने पर होमोसेक्शूएलिटी पर चर्चा को शुरू करने का काम किया। इसी तरह शोनाली बोस के निर्देशन में बनी फ़िल्म मार्गरीटा विद ए स्ट्रॉ ने भारतीय सिनेमा को एक नया आयाम दिया। इसमें शारीरिक विकलांगता के साथ ही क्वीयर रिश्ते को बेहद संवेदनशील और स्वाभाविक तरीके से प्रस्तुत किया गया है। इसके पहले यहां तक कि अब भी मुख्यधारा की फ़िल्मों में कॉमेडी के नाम पर एलजीबीटीक्यू+ समुदाय का मजाक उड़ाना आम बात है। इस तरह इन महिला निर्देशकों ने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को लेकर न सिर्फ़ एक सार्थक विमर्श की शुरुआत की, बल्कि समाज में फैले तमाम पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों को तोड़ने का भी काम किया जो क्वीयर समुदाय के प्रति नफ़रत और घृणा को बढ़ावा देते हैं।

महिला निर्देशकों ने हाशिए के समुदाय को बेहद गंभीरता और संवेदनशील तरीके से दिखाने की कोशिश की है। फ़िल्म निर्देशक अपर्णा सेन इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। अपनी फ़िल्म सती में जिस तरह से इन्होंने एक मूक महिला के संघर्षों और चुनौतियों को दिखाया, वह काबिलेतारीफ़ है।

महिलाओं का अनुभव और नज़रिया 

किसी बात की विश्वसनीयता और वैधता सबसे ज्यादा तब होती है, जब वह बात उसी व्यक्ति के माध्यम से कही जाए। वैसे तो बहुत सारे पुरुष निर्देशकों द्वारा विविध विषयों पर महिला प्रधान फ़िल्में बनाई गई हैं लेकिन जब महिला निर्देशकों द्वारा महिलाओं को केंद्र में रखकर फ़िल्में बनाई जाती हैं तो वह सीधे दिल को छू जाती हैं। निर्देशक के तौर पर गौरी शिंदे की फ़िल्म इंग्लिश विंग्लिश में साधारण भारतीय होममेकर महिला की कहानी को इतनी संजीदगी से प्रस्तुत किया गया है कि आम भारतीय महिलाएं इससे खुद को रिलेट कर पाईं। इसने समाज की इस मानसिकता को भी चुनौती दी कि शादी और बच्चे हो जाने के बाद एक महिला की ज़िंदगी परिवार तक ही सीमित हो जाती है। 

तस्वीर साभार: Canva

इसी तरह अलंकृता श्रीवास्तव की बहुचर्चित फ़िल्म लिपस्टिक अंडर माई बुर्का ने महिलाओं की इच्छा और यौनिकता जैसे टैबू माने जाने वाले विषयों पर बात की। इस फ़िल्म ने महिलाओं की इच्छा और समाज की उम्मीदों के बीच के अंतर्द्वंद के सामने लाकर समाज में व्याप्त पूर्वाग्रह को चुनौती दी। इन फ़िल्मों ने महिलाओं की इच्छाओं, अनुभवों और विचारों को लेकर एक नया नज़रिया दर्शकों के सामने पेश किया जो समाज को सोचने पर मजबूर कर देता है। महिला निर्देशक न केवल महिलाओं की समस्याओं अनुभवों और विचारों को दिखाती हैं बल्कि इसे दिखाने का तरीका भी ऐसा होता है कि दर्शक उससे जुड़ाव महसूस करते हैं। इस तरह का सिनेमा न सिर्फ़ फ़िल्म जगत को समृद्ध करता है बल्कि समाज में बदलाव लाने का भी काम करता है।

निर्देशक के तौर पर गौरी शिंदे की फ़िल्म इंग्लिश विंग्लिश में साधारण भारतीय होममेकर महिला की कहानी को इतनी संजीदगी से प्रस्तुत किया गया है कि आम भारतीय महिलाएं इससे खुद को रिलेट कर पाईं।

कथानक की विविधता और समावेशिता

सिनेमा में महिला निर्देशकों की संख्या बढ़ने से न सिर्फ़ कथानक में विविधता आई है बल्कि समाज के हर तबके को शामिल करने से समावेशिता और सशक्तिकरण भी होता है। इनकी फ़िल्में न केवल प्यार, रिश्ते, परिवार और संघर्ष तक सीमित हैं बल्कि समाज में व्याप्त लैंगिक भेदभाव, घरेलू हिंसा और सामाजिक न्याय के अनेक पहलुओं से भी रूबरू कराती हैं। इस प्रकार की फ़िल्में न सिर्फ़ दर्शकों के मनोरंजन के मकसद को पूरा करती हैं बल्कि समाज की समस्याओं के समाधान के लिए नया नज़रिया भी पेश करती हैं। महिला निर्देशक अपने अनुभव और विचारधारा के आधार पर ऐसी कहानियां दर्शकों के सामने लाती रही हैं जो हक़ीक़त के ज़्यादा करीब होती हैं और यही वजह है कि दर्शकों को इनके सिनेमा में एक अलग तरह का अपनापन महसूस होता है।

तस्वीर साभार: Canva

हाल ही में बुसान फ़िल्म फेस्टिवल में प्रीमियर निधि सक्सेना निर्देशित फ़िल्म सैड लेटर ऑफ एन इमेजिनरी वूमन इसका एक हालिया उदाहरण है। ग़ौरतलब है कि निधि सक्सेना पोस्ट-प्रोडक्शन फंड श्रेणी में यह पुरस्कार पाने वाली पहली भारतीय महिला फिल्ममेकर हैं। इसी तरह टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर हुई अपनी पहली निर्देशित फिल्म फ़िराक़ से नंदिता दास ने समाज में मौजूद उन सच्चाइयों से पर्दा उठाया है जिस पर आमतौर पर कोई बात नहीं करना चाहता। फ़िल्म के शुरुआती दृश्य में कब्रिस्तान में सामूहिक रूप से शवों को दफ़नाने का वह दृश्य जिसकी तुलना डंपिंग ग्राउंड से की जा सकती है, वास्तव में मन को झकझोर देने वाला होता है। इसी तरह डायरेक्टर मीरा नायर ने फिल्मों के हीरोज के लार्जर देन लाइफ वाली छवि को तोड़ने का काम किया। डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से शुरुआत करके इन्होंने बॉलीवुड की मुख्य धारा की फ़िल्मों में इन्होंने ऐसी कहानियों को जगह दी जिससे आम दर्शक खुद को जोड़ सकें।

सिनेमा में महिला निर्देशकों की संख्या बढ़ने से न सिर्फ़ कथानक में विविधता आई है बल्कि समाज के हर तबके को शामिल करने से समावेशिता और सशक्तिकरण भी होता है। इनकी फ़िल्में न केवल प्यार, रिश्ते, परिवार और संघर्ष तक सीमित हैं बल्कि समाज में व्याप्त लैंगिक भेदभाव, घरेलू हिंसा और सामाजिक न्याय के अनेक पहलुओं से भी रूबरू कराती हैं।

सलाम बॉम्बे, मॉनसून वेडिंग और द नेमसेक जैसी फ़िल्मों के माध्यम से गरीबी, प्रवास और पहचान के मुद्दे को उठाते हुए मीरा नायर ने रियलिस्टिक सिनेमा को मजबूत करने का काम किया। इसी तरह ज़ोया अख़्तर की फिल्म गली बॉय मुंबई के झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लड़के के सपनों और संघर्षों को सामने लाती है। निर्देशक मेघना गुलजार की फिल्म राज़ी ने न सिर्फ़ आलोचकों की प्रशंसा बटोरी बल्कि बॉक्स ऑफिस पर भी इसने झंडे गाड़े। हाल ही में आई किरण राव की फ़िल्म लापता लेडीज जिसे ऑस्कर के लिए नामांकित भी किया गया है। फिल्म ने ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाओं के संघर्षों को मनोरंजक तरीके से बड़े पर्दे पर उतारकर फिल्म जगत में अपनी छाप छोड़ दी।

चुनौतियां और आगे का रास्ता 

हालांकि समय-समय पर भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री में महिला निर्देशकों ने उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की लेकिन लैंगिक भेदभाव, बजट की कमी और पूर्वाग्रहों की वजह से इन्हें अक्सर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वीमेन इन फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंटरनेशनल (WIFTI) की तर्ज़ पर देश में राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसे संस्थानों की ज़रूरत है जो महिला निर्देशकों और फ़िल्म मेकर्स को ज़रूरी सुविधाएं मुहैया कराएं जिससे इन्हें अपनी रचनात्मकता और कलात्मकता को फ़िल्मों के माध्यम से दर्शाने में ज़रूरी मदद मिल सके। फ़िल्म इंडस्ट्री में पहले पूर्वाग्रह और लैंगिक भेदभाव के बावजूद जब यह महिला निर्देशक इतना बेहतरीन काम कर रही हैं तो अगर इन्हें थोड़ी सुविधा देकर और बढ़ावा दिया जाए तो न सिर्फ़ भारतीय सिनेमा में बल्कि अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा के स्तर पर भी बहुत क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिल सकते हैं। महिला निर्देशकों की अगुवाई में भारतीय सिनेमा और अधिक संवेदनशील, और विश्वसनीय बन रहा है जो कि हमारे समाज को और अधिक समावेशी बनाने की दिशा में अहम भूमिका निभा सकता है।

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