आराम अंतराल मतलब अपने कामों को थोड़े समय के लिए विराम देकर शारीरिक और मानसिक थकावट को दूर कराने की प्रक्रिया में लगा समय। जब हम लंबे समय तक काम करते हैं तो थकान की अनुभूति होती है जिससे बचने के लिए हम काम के बीच में थोड़ा अंतराल लेते हैं। यह हमारे जीवन के लिए उपयोगी बने रहने और काम के स्तर पर अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए आवश्यक है। लेकिन हम जिस समाज का हिस्सा हैं, वहां महिलाओं को शायद ही ये विशेषाधिकार है, जहां वे अपनी मर्जी से और जरूरत अनुसार आराम कर सकें। वे तमाम महिलाएं जो घर से बाहर पुरुषों के समान काम करती हैं, उन्हें घर वापस लौटने के बाद घर के सारे काम करने होते हैं जो इस पुरुष प्रधान देश में केवल महिलाओं को करने पड़ते हैं। कवयित्री सुजाता गुप्ता ने इस स्थिति को अपनी लेखनी के माध्यम से बखूबी व्यक्त किया है- “काम से लौटती स्त्रियां, काम पर लौटती हैं।”
घर के वे काम, जिनके लिए कभी पैसे खर्च करने की आवश्यकता नहीं समझी गई, महिलाओं के कंधों पर डाल दिए गए हैं। चाहे वह बच्चों का लालन-पालन हो, वृद्धों की देखभाल हो, या रसोई के तमाम जरूरी काम, जिनके बिना जीवन मुश्किल है। आराम अंतराल महिलाओं और पुरुषों के बीच आराम के समय में अंतर को बताता है। हाल ही में यू.के. स्थित स्टाइलिस्ट पत्रिका ने ‘आराम अंतराल’ के बारे में एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें बताया गया है कि महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कम नींद मिलती है। बता दें कि वैज्ञानिक शोधों और अध्ययनों के मुताबिक महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा औसतन 20 मिनट अधिक नींद की आवश्यकता होती है। आराम अंतराल यह स्पष्ट करने में सक्षम है कि महिलाएं अपने दैनिक जीवन और कामों में कितनी असमानताओं का सामना करती हैं। इन असमानताओं का कारण सामाजिक मापदंड है।
घरेलू काम में महिलाएं कितना समय गँवाती हैं
एनएसएसओ की साल 2019-20 के रिपोर्ट अनुसार भारतीय महिलाएं रोजाना 299 मिनट घरेलू कामों में व्यतीत करती हैं और पुरुष 52 मिनट यानी महिलाएं औसतन पुरुषों से 5 घंटे अधिक काम करती हैं, जो अवैतनिक है। यह असमानता महिलाओं के लिए थकाऊ भी है और हानिकारक भी। इससे वे अधिक अस्वस्थ रहती हैं और आर्थिक अवसरों का हनन भी होता है। जो समय वे अपने को बेहतर बनाने में लगा सकती हैं और कमा सकती हैं, वह समय वह घर के देखभाल में दे रही हैं, जो महिलाओं को मुख्यधारा से जुड़ने से रोक रहा है और उनके अधिकारों से वंचित रख रहा है। वहीं अगर बात की जाए कार्यक्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी दर की, तो पीएलएफएस की वार्षिक रिपोर्ट 2023-2024 के प्रमुख निष्कर्षों के अनुसार, भारत में पुरुषों के लिए एलएफपीआर 2017-18 में 75.8 फीसद से बढ़कर 2023-24 में 78.8 फीसद हो गई और महिलाओं के लिए एलएफपीआर में इसी प्रकार की वृद्धि 23.3 फीसद से बढ़कर 41.7 फीसद दर्ज हुई।
महिलाओं और पुरुषों में आराम अंतराल के कारण
महिलाओं के लिए घर के कामकाज उनकी पहली प्राथमिकता मानी जाती है। घर के वे सभी काम जो जरूरी हैं, और सभी के हिस्से के होते हैं वह मूल रूप से महिलाओं द्वारा किए जाते हैं। यदि कोई महिला शादीशुदा है तो उसके जिम्मे सबके खाने-पीने की जिम्मेदारी, घर की सफाई या बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी होती है, भले ही वह इन जिम्मेदारियों के बीच खुद को समय न दे पाए। हमारे समाज में कुछ ऐसे सामाजिक मापदंड और मूल्य निहित है और सामाजीकरण की ऐसी प्रक्रिया है, जिसके कारण महिलाएं खुद भी समझती हैं कि पति, बच्चे और घर के बाकी सदस्यों का ख्याल रखना मात्र उनकी जिम्मेदारी है। बाकी काम और उनकी सेहत उसके बाद आती है। इस कारण वे अपना अधिकांश समय अवैतनिक कामों में व्यतीत करती हैं। यदि घर में कोई कार्यक्रम आयोजित होता है, तो भी महिलाओं को ही अपने काम से छुट्टी लेकर उन कार्यक्रमों को पूरा करना होता है। इससे उनके कार्यस्थल पर काम का दबाव भी बढ़ता है।
समाज में लैंगिक भूमिका का असर
समाज में तय जेन्डर रोल महिलाओं के लिए खास चुनौती साबित होती है। महिलाओं को पत्नी, बहु, माँ आदि भूमिकाएं निभानी होती हैं। चूंकि महिलाएं ही किसी घर को स्वर्ग बना सकती हैं, यानी महिलाओं द्वारा ही बच्चे की परवरिश या घर की देखभाल बेहतर तरीके से की जा सकती है। इससे ये कार्यभार उनपर ही होता है और पुरुष इन कामों से अमूमन पल्ला झाड़ लेते हैं या खानापूर्ति के लिए भूमिका निभाते हैं। इस तरह की रूढ़िवादी सोच और पारिवारिक अपेक्षाएं महिलाओं से उनका समय ले लेते हैं जिससे महिलाओं को आराम करने का पूरा समय नहीं मिल पता है। महिलाओं के शरीर में हार्मोनल बदलाव, शारीरिक बनावट पुरुषों से अलग होती है। विभिन्न आयु वर्ग में वे भिन्न-भिन्न शारीरिक बदलाव और समस्याओं से गुजरती हैं।
आराम के कमी को लेकर शारीरिक और मानसिक समस्याएं
गर्भधारण से लेकर मेनोपॉज तक महिलाओं के शरीर को विशेष आराम और देखभाल की जरूरत होती है। समय के साथ शरीर में विभिन्न प्रकार के बदलाव होते हैं जिससे वे कम नींद ले पाती हैं। फेमिनिज़म इन इंडिया ने इस तथ्य को और गहराई से जानने के लिए उन महिलाओं से बातचीत की जो लंबे समय से घर से बाहर काम कर रही हैं और सामाजिक मापदंडों के अनुसार घरेलू कर्तव्यों को निभा रही हैं। 15 वर्ष से काम कर रही एक महिला ने अपने जीवन के पिछले अनुभवों को बताते हुए कहा कि बमुश्किल उन्हें पूरे दिन और रात में 6 घंटे की नींद मिल पाती है। वह कहती हैं, “कार्यस्थल जाने से पहले मुझे अपने पति और बच्चों के लिए खाना बनाना अनिवार्य होता है। इन कामों में इतना समय बीत जाता है कि उसके बाद अपने लिए वक्त निकाल पाना असंभव होता है। समय से कार्यस्थल पर पहुंचना मेरी जिम्मेदारी है जिसकी वजह से मैं अपने डाइट को अनदेखा कर देती हूँ। वापस आने के बाद, मैं आराम तो कारण चाहती हूँ लेकिन संभव नहीं हो पाता क्योंकि मां होने के कारण बच्चे का संरक्षण और उसे समय देना मूल रूप में मेरी जिम्मेदारी है।”
कार्यस्थल जाने से पहले मुझे अपने पति और बच्चों के लिए खाना बनाना अनिवार्य होता है। इन कामों में इतना समय बीत जाता है कि उसके बाद अपने लिए वक्त निकाल पाना असंभव होता है। समय से कार्यस्थल पर पहुंचना मेरी जिम्मेदारी है जिसकी वजह से मैं अपने डाइट को अनदेखा कर देती हूँ।
वे आगे बताती हैं कि घर के सारे काम तो रहते ही हैं लेकिन कोई मेहमान आ गया तो उनका स्वागत और जिम्मेदारी भी उनपर होती है जिससे और भी समय चला जाता है। वे बताती हैं, “जब बच्चे छोटे होते हैं तो मां को कई बार रात जगकर ब्रेस्टफीडिंग करनी पड़ती है जिससे नींद में व्यवधान आता है। यदि बच्चे की तबीयत खराब हो जाती है तो पूरी रात भी जगना पड़ता है। मैं संयुक्त परिवार को सही ठहराती हूँ क्योंकि मेरे घर पर न होने पर कोई न कोई हालांकि महिला ही घर का ध्यान रख लेती हैं। लेकिन न्यूक्लियर परिवार के लिए यह बड़ी चुनौती है।”
घरेलू काम की दोहरी जिम्मेदारी में आराम की कमी
वहीं एक दूसरी महिला से बातचीत में पता चला कि वे पिछले 8 साल से काम कर रहीं हैं। वे पेशे से अध्यापिका हैं और उनके दो छोटे बच्चे हैं जिनका देखभाल करना जरूरी है। यह जिम्मेदारी उनके ऊपर है। वह बताती हैं, “जब अपने कार्यस्थल पर होती हूँ, तब भी मुझे बच्चों की फिक्र परेशान करती है जिससे मानसिक तनाव भी बनता है। कॉलेज से आने के बाद मेरा पूरा समय बच्चे के गृहकार्य को पूरा करवाने और खिलाने-पिलाने में निकल जाता है। इससे मैं अपनेआप को अपडेट नहीं कर पाती हूँ और जो चाहती हूँ, उसे करने का समय कम मिल पता है। मेरी उत्पादकता भी प्रभावित होती है।” उन्होंने बताया कि एकाकी परिवार के कारण, यदि पति किसी दूसरे राज्य में कार्यरत है तो काम का बोझ और बढ़ जाता है। ऐसे में आराम करने का समय नहीं मिल पाता है और ये समस्याएं एक तरह से मानसिक दवाब उत्पन्न करती हैं।
एक कामकाजी महिला से उम्मीद की जाती है कि वे सभी क्षेत्रों में बेहतर होंगी और अधिकांश काम उनपर छोड़ दिया जाता है। कामकाजी महिलाओं के लिए एक बड़ी समस्या है कि वे निरंतरता के साथ अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से संपर्क में नहीं रह पाती हैं जो जरूरी समझा जाता है।
वह आगे कहती हैं, “एक कामकाजी महिला से उम्मीद की जाती है कि वे सभी क्षेत्रों में बेहतर होंगी और अधिकांश काम उनपर छोड़ दिया जाता है। कामकाजी महिलाओं के लिए एक बड़ी समस्या है कि वे निरंतरता के साथ अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से संपर्क में नहीं रह पाती हैं जो जरूरी समझा जाता है। अक्सर ऐसे में लोग शिकायत करते हैं और यह महिलाओं को परेशान करता है। इतनी जिम्मेदारियों के साथ जब वे आराम करने जाती हैं तब भी उनके मानसिक पटल पर अगले दिन को संभालने और संवारने की चिंता सताती है।”
महिलाओं के लिए आराम का अधिकार केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा नहीं है, बल्कि यह उनके मानवाधिकारों, सामाजिक न्याय, और लैंगिक समानता का भी प्रश्न है। घरेलू और बाहरी कार्यों के दोहरे बोझ के कारण महिलाएं न केवल अपनी उत्पादकता और आत्म-विकास से वंचित रह जाती हैं, बल्कि यह असमानता उनके मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक जीवन पर भी गहरा प्रभाव डालती है। समाज के हर स्तर पर, महिलाओं के योगदान और उनकी आवश्यकताओं को पहचानने और सम्मान देने की जरूरत है। इसके लिए जरूरी है कि घरेलू कार्यों की जिम्मेदारी केवल महिलाओं पर न डालकर सभी सदस्यों के बीच बराबरी से बांटी जाए। महिलाओं के आराम के समय को सुनिश्चित करना, उन्हें सशक्त बनाने और लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।