यौन और प्रजनन अधिकार मानवाधिकार का हिस्सा माना जाता है। लेकिन, इसपर कभी भी इतनी गंभीरता से बात नहीं होती है। इस विषय को लेकर लोगों के बीच आज भी एक तरह का टैबू बना हुआ है, जिस वजह से महिलाओं और हाशिये के समुदायों को अनेकों समस्याओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। सदियों से यौन और प्रजनन अधिकार को बस बच्चा पैदा करने के अधिकार तक ही सीमित रखा गया है। हालांकि यह सिर्फ एक हिस्सा है यौन और प्रजनन अधिकार का। यौन और प्रजनन अधिकार से मतलब यह है कि हर इंसान को अपने शरीर के बारे में फैसला लेने का पूरा अधिकार हो, पसंद-नापसंद पर बात रखने, यौन संबंध को नियंत्रित करने, अपने मन मुताबिक शादी करने, बच्चा पैदा करने और अपने सेक्शूएलिटी और जेंडर पर बातचीत और फैसले करने का पूरा अधिकार हो। लेकिन हमारे पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को उनके अपने शरीर पर और उनके यौन और प्रजनन अधिकारों को कोई महत्व नहीं देता।
प्रजनन अधिकारों की शुरुआत तो महिलाओं के शरीर से होती है पर इसका अंत मानवाधिकार जैसे बड़े मुद्दे पर होता है। एक महिला बच्चे पैदा करेगी या नहीं, कितने बच्चे पैदा करेगी, अक्सर इसका फैसला वह खुद नहीं ले पाती। यह फैसला सामाजिक मानदंडों के तहत परिवार के लोग तय करते हैं, जिसमें सबसे अधिक भूमिका पुरुषों की होती है। जब एक लड़की शादी करके ससुराल जाती है, तब घर के बड़े-बुज़ुर्गो के मुँह से यह आशीर्वाद ये नहीं निकलता है कि ‘आबाद रहो’,’आज़ाद रहो’,’आगे बड़ो’, बल्कि यह सुनने को मिलता है कि ‘दूधो नहाओ पूतो फलो’, ‘अब जल्दी से एक बच्चा कर लो या जल्द ही दो से तीन हो जाओ।’ प्रजनन अधिकार की लड़ाई हालांकि नई बात लगे, लेकिन समस्या पुरानी है। इसपर बातचीत नारीवादी आन्दोलन के दूसरी लहर से शुरू हो गई थी। इस समझ के साथ कि ये पहलुएं महिलाओं के स्वास्थ्य, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक कारक को प्रभावित करते हैं, इसपर जागरूकता बढ़ी है।
क्या कामकाजी महिलाओं के यौन अधिकार सुनिश्चित हो रहे हैं
आज के समय में महिलाएं संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों में सेवा दे रही हैं। ऐसे में यह जानना बेहद जरूरी हो जाता है कि क्या उनके कार्यस्थल पर प्रजनन अधिकार लागू होता है? चूंकि शिक्षा के क्षेत्र को हमेशा से प्रगतिशील माना जाता है, ऐसे में फेमिनिज़म इन इंडिया ने जानने की कोशिश की कि क्या शिक्षा जगत में काम कर रही महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर यौन और प्रजनन अधिकार लागू है? क्या इनकी जरूरतें पूरी होती हैं या आखिर इनकी समस्याएं और जरूरतें क्या हैं? इसे लेकर जगन्नाथ विश्वविद्यालय की प्रोफेसर पारुल मल्होत्रा कहती हैं, “प्रजनन अधिकार व्यापक अवधारणा है जो हमें आज़ाद होना सिखाता है। यह केवल मातृत्व साबित करने तक सीमित नहीं है।”
वह आगे कहती हैं, “यह लैंगिक समानता और सभी के अधिकार पर बात करता है। लेकिन, इसकी जानकारी बहुत सीमित है। लोगों के मन में इसको लेकर एक अलग तरह का धारणा बना हुआ है। लोग इस विषय को लेकर जागरूक नहीं है। शिक्षा जगत जोकि बदलाव और जागरूकता का माध्यम माना जाता है, लेकिन मैं इस विषय को लेकर स्कूल या यूनिवर्सिटी से बेहद उदासीन हूं। हालांकि मैं जहां पढ़ाती हूं, वहां प्रजनन अधिकार लागू तो होता है। लेकिन लोग इस विषय को लेकर न संवेदनशील हैं और न गंभीर। इस लिए जरूरी हो जाता है इस विषय पर मुखर होके बात हो। इसकी शुरुआत स्कूल के सिलेबस हो सकती है।”
आगे पारुल कहती हैं, “बच्चों के साथ-साथ हमें शिक्षक और स्टॉफ दोनों को जागरूक करने की जरूरत है ताकि जो समाज में गलत अवधारणा बना हुआ है उसे ब्रेक किया जा सके। प्रजनन अधिकार को लेकर हमारे देश में बहुत सी समाजिक अवधारणाएं हैं। वहीं, ये आम धारणा है कि बच्चे पालने की जिम्मेदारी माँ की होगी जबकि एक पिता की भी उतनी ही जिम्मेदारी होती है। ये जो सांस्कृतिक परंपरा बनाई गई है, इसे भी खत्म करने की बहुत जरूरत है। ये तभी मुमकिन हो पाएगा जब इस विषय पर शुरू से लोगों को शिक्षित किया जाए।” यौन और प्रजनन अधिकार मौलिक अधिकारों में एक है। समाज में यौन और प्रजनन अधिकार के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए हर साल यौन और प्रजनन स्वास्थ्य जागरूकता दिवस भी मनाया जाता है। इसका उदेश्य होता है कि लोगों में यौन और प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी समायाओं और मानकों पर जानकारी और जागरूकता बढ़ाई जाए।
प्रजनन अधिकार व्यापक अवधारणा है जो हमें आज़ाद होना सिखाता है। यह केवल मातृत्व साबित करने तक सीमित नहीं है। यह लैंगिक समानता और सभी के अधिकार पर बात करता है। लेकिन, इसकी जानकारी बहुत सीमित है।
यौन और प्रजनन स्वास्थ्य का मतलब समग्र स्वास्थ्य है
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, यौन और प्रजनन स्वास्थ्य का मकसद केवल यौन संचारित रोगों या यौन संबंध तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य से भी जुड़ा हुआ है। अच्छा यौन और प्रजनन स्वास्थ्य महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। यह उनके पसंद और निर्णय लेने के क्षमता पर निर्भर करता है। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के यौन और प्रजनन अधिकारों को विशेष महत्व नहीं दिया जाता है। इस अधिकार का उद्देश्य केवल शारीरिक स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक और सम्मानजनक संबंधों से भी जुड़ा है, जोकि समाज के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है।
इसे लेकर जामिया मिल्लिया इस्लामिया की प्रोफेसर जहाँआरा कहती हैं, “यौन और प्रजनन अधिकार बहुत गंभीर विषय है। हालांकि इसपर जल्दी बात नहीं होती है। लोगों के बीच में इसे लेकर एक झिझक है। बात ग्रामीण क्षेत्र की हो या शहरी क्षेत्र की, आज भी जब एक लड़की की शादी होती है उसके तुरंत बाद लोग चाहते हैं कि अब बच्चा कर लेना चाहिए। समाज एक महिला को ये सोचने का मौका नहीं देता कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना है। वह इतने दबाव में होती है कि बच्चा लेट होने पर उन्हें अपनेआप को लेकर कमी महसूस होने लगती है। वो अलग-अलग डॉक्टर के पास जाती हैं। इलाज़ करवाती हैं। यह एक कामकाजी महिला के लिए और भी संघर्ष की बात है।”
बात ग्रामीण क्षेत्र की हो या शहरी क्षेत्र की, आज भी जब एक लड़की की शादी होती है उसके तुरंत बाद लोग चाहते हैं कि अब बच्चा कर लेना चाहिए। समाज एक महिला को ये सोचने का मौका नहीं देता कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना है। वह इतने दबाव में होती है कि बच्चा लेट होने पर उन्हें अपनेआप को लेकर कमी महसूस होने लगती है।
आगे जहाँआरा कहती हैं, “हम कितना भी आगे बढ़ जाएं लेकिन महिलाओं को लेकर समाजिक तौर पर अभी भी बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ है। लोग इस विषय को लेकर न जागरूक हैं और न शिक्षित मालूम होते हैं। हालांकि ये जरूरी है कि हम इस विषय पर सिलसिलवार तरीके से बात करें। स्कूल जोकि मानव बुद्धि विकास का केंद्र और मूल माना जाता है, ऐसे में हमें स्कूल और कॉलेज में इस विषय को सिलेबस और उसके इतर भी बात करने की जरूरत है ताकि समाज महिलाओं के निर्णय को महत्व दें। इसे उनके मूल अधिकार के तरह भी देखें।” जहां नारीवाद की पहली लहर मूल रूप में वोट देने के और प्रापर्टी के अधिकार में समानता के रास्ते में आने वाली क़ानूनी बाधाओं से लड़ना था, वहीं नारीवाद की दूसरी लहर में बहस का दायरा बड़ा परिवार में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव, कार्यस्थल पर शोषण और प्रजनन अधिकार जैसे मुददे भी थे। लेकिन आज भी समाज में बहुत बदलाव देखने को नहीं मिलता है जिसका मूल कारण है इस विषय पर बातचीत का न होना। इस विषय पर जागरूकता की कमी। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि इस विषय पर बातचीत हो। शिक्षा जो कि बदलाव का माध्यम है, वहां इस विषय पर परिचर्चा हो ताकि बदलाव संभव हो और यौन और प्रजनन मौलिक अधिकार के रूप में भी देखा जाए।