इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत ग्रामीण परिवेश में प्रसव के बाद नई मांओं की चुनौतियाँ

ग्रामीण परिवेश में प्रसव के बाद नई मांओं की चुनौतियाँ

ग्रामीण इलाकों में लैंगिक भेदभाव और अशिक्षा का असर इतना अधिक है कि नई मांओं के सामने बहुत सी उलझनें और दिक्कतें होती हैं। नई मांओं के संघर्ष कई स्तरों पर बढ़ जाते हैं। एक तो वो अगर कुछ शिक्षित होने के साथ जागरूक हैं, और अपनी बात घर-परिवार में कहती हैं तो तनाव के साथ शिक्षा का ताना दिया जाता है।

शिक्षा और सुविधाओं से दूर होने के कारण ग्रामीण इलाकों में गर्भवती औरतों को बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। गर्भावस्था के शुरुआती दौर में चक्कर आना, उल्टी होना, समय पर दवा न मिलना, इन सब चीजों को झेलते हुए घर के सारे काम काज करना। कभी-कभी गांवों में बिजली चली जाती है तो महीनों नहीं आती या ये भी होता है कि गांव में बहुत कम समय के लिए बिजली आती है तो ग्रामीण गर्भवती महिलाओं को गर्मी के कारण बहुत दिक्कत होती है।

ग्रामीण इलाकों में लैंगिक भेदभाव और अशिक्षा का असर इतना अधिक है कि नई मांओं के सामने बहुत सी उलझनें और दिक्कतें होती हैं। नई मांओं के संघर्ष कई स्तरों पर बढ़ जाते हैं। एक तो वो अगर कुछ शिक्षित होने के साथ जागरूक हैं, और अपनी बात घर-परिवार में कहती हैं तो तनाव के साथ शिक्षा का ताना दिया जाता है। पहले की माँएं उनकी जागरूकता को बेकार बताती रहती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि जिस तरह से उन्होंने प्रसव काल या बच्चे की देखभाल की है वही सही तरीका है। इस तरह परिवार में महिलाओं के भीतर ही आपस में कई तरह के अंतर्विरोध चलते रहते हैं। 

पहले तो घरवालों का दिल टूट गया कि मैंने बेटी को जन्म दिया। दूसरा, मैं बच्ची की देखभाल अपने ढंग से कर रही थी जिसमें साफ-सफाई के साथ हाइजीन का खयाल रखती थी। मेरे घर में महिलाओं में इसे लेकर अलग तरह का तनाव शुरू हो गया। बच्चे की देखभाल के लिए हर कोई मुझे अपनी तरह से नसीहतें दे रहा था।

गांव में नई माँ के अनुभव

इस विषय पर उत्तरप्रदेश के अंबेडकर नगर जिले के बेनीपुर गाँव की रहने वाली सीमा अपने माँ बनने के अनुभव हमें बताती हैं। सीमा शिक्षित और आधुनिक विचारों की स्त्री हैं। सीमा नई माँ बनी हैं उन्होंने बेटी को जन्म दिया है। सीमा कहती हैं, “पहले तो घरवालों का दिल टूट गया कि मैंने बेटी को जन्म दिया। दूसरा, मैं बच्ची की देखभाल अपने ढंग से कर रही थी जिसमें साफ-सफाई के साथ हाइजीन का खयाल रखती थी। मेरे घर में महिलाओं में इसे लेकर अलग तरह का तनाव शुरू हो गया। बच्चे की देखभाल के लिए हर कोई मुझे अपनी तरह से नसीहतें दे रहा था। लेकिन मैं बच्चे का डॉक्टर के सलाह पर देखभाल कर रही थी। हालांकि इन सबके बीच परिवार में तनाव बहुत बढ़ गया था और आज भी सबकुछ एकदम सामान्य नहीं हो पाया है।”  

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

आकांक्षा पढ़ाई कर रही थीं। तभी उनकी शादी हो गयी और दूसरे साल बच्चा पैदा हो गया था। लेकिन आकांक्षा की पढ़ाई चल ही रही थी। वो सिविल सेवा की तैयारी करना चाहती थीं। लेकिन वो संभव नहीं हो पाया और बाद में आकांक्षा टीचर की नौकरी के लिए घर से पढ़ाई करने लगी। आकांक्षा बताती हैं कि उन्हें बच्चे के जन्म के बाद घर-परिवार और अपने स्वास्थ्य को लेकर बहुत सी मुश्किलें झेलनी पड़ी। वह कहती हैं, “मेरे ससुराल पक्ष का परिवार गाँव में एक आधुनिक और प्रगतिशील परिवार माना जाता है। लेकिन माँ बनने के बाद मैंने महसूस किया कि नई माँ की कठिनाई क्या होती है। डॉक्टर को दिखाने से लेकर बच्चे की देखभाल के लिए किसी भी चीज में मुझे निर्णय लेने का जैसे अधिकार नहीं है। कभी-कभी किसी बात पर घर-परिवार में तनाव होने पर मैं खुद को दोष देने लगती कि शायद मैं बच्चे को लेकर ओवर रियेक्ट कर देती हूं और बाद में एक तरह की ग्लानि से दुख होता है और मैं रोने लगती हूँ। कभी-कभी बच्चा रोता है और बहुत बहलाने से भी चुप नहीं होता, तो मैं भी बच्चे के साथ रोने लगती हूँ।”

मैंने समझ लिया अपने अनुभव से ये सिर्फ कहने की बात है कि एक बच्चे के सामने माँ के त्याग की कोई कीमत नहीं। ये सिर्फ माँ ही जान सकती है कि बच्चे के जन्म के बाद सब कुछ मैनेज करना कितना कठिन होता है। एक तरह से औरत अपने आप को भूल ही जाती हैं।

आकांक्षा की मुश्किलें कोई नई नहीं हैं। माँ बनने के बाद शुरुआती दिनों में स्त्री का मन ज्यादा ही संवेदनशील हो जाता है। वो भावनात्मक रूप से ज्यादा कोमल हो जाती हैं। इसलिए जल्दी दुखी हो जाती हैं या जल्दी खुश हो जाती हैं। एक तरह से ऐसे देख सकते हैं कि उनके संवेग ज्यादा तीव्र हो जाते हैं। अगर घर-परिवार के लोग नई माँ की इस स्थिति को समझते, तो नई माँओं के लिए थोड़ी सी आसानी होती। लेकिन ये सारी स्थिति भावनात्मक रूप से समझने की जरूरत होती है। नई माँ बनी स्त्रियों के भीतर मानसिक और शारिरिक रूप से बड़े परिवर्तन का समय होता है।

नई माँ की स्वास्थ्य समस्याएं

प्रतापगढ़ जिले रहने वाली दीपिका हाल ही में माँ बनी हैं। ग्रामीण इलाकों में नई मांओं की मुश्किलों और सहूलियतों पर जानना चाहा तो दीपिका ने कहती हैं, “माँ बनना मुझे जीवन का सबसे खूबसूरत अनुभव लगा। लेकिन इन नौ महीनों में और बच्चे के जन्म के बाद जो उतार-चढ़ाव आते हैं वो खुशी के साथ-साथ रुला भी देते हैं।” दीपिका आगे कहती हैं, “लेकिन मैंने समझ लिया अपने अनुभव से ये सिर्फ कहने की बात है कि एक बच्चे के सामने माँ के त्याग की कोई कीमत नहीं। ये सिर्फ माँ ही जान सकती है कि बच्चे के जन्म के बाद सब कुछ मैनेज करना कितना कठिन होता है। एक तरह से औरत अपने आप को भूल ही जाती हैं। बच्चे का सोना, रोना, खाना, स्वास्थ्य उसके सामने माँ का अपना जैसे कुछ होता ही नहीं है। इस बीच अपनी अनदेखी और उदासीनता के कारण नहीं माँ कई सारे स्वास्थ्य समस्याओं से घिर जाती हैं।” 

मेरे घर में मुझसे पहले सब स्त्रियों की नॉर्मल डिलीवरी हुई थी। मेरी गर्भावस्था शुरू से जटिल थी तो डॉक्टर से सलाह चलती रही और वहीं से घर में तनाव बढ़ता गया। मेरी जेठानी कहती थीं कि मैंने तीन बच्चे पैदा किए। लेकिन कभी दवा नहीं खायी। डॉक्टर ने जब बेडरेस्ट की सलाह दी, तो सास कहती थी कि बेडरेस्ट के कारण ही तो नॉर्मल डिलीवरी नहीं होती।

नई माँ को क्यों नहीं समझता परिवार

उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले की रहने वाली नई माँ बनी ज्योति कहती हैं “सबसे बड़ी दिक्कत है नई माँ बनने के बाद नींद कभी पूरी नहीं मिल पाती जिससे बाद में कई बीमारियाँ हो सकती हैं।” ज्योति कहती हैं, “कम उम्र में माँ बनने के कारण मुझमें शारीरिक और मानसिक कमजोरी थी तो मुझे तो माँ के रूप में बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।” ज्योति ने जो अनुभव बताए उसके अनुसार समाज में स्त्री के स्वास्थ्य को लेकर अनदेखी का मसला सबसे ज्यादा है। ज्योति की उम्र माँ बनने के लिहाज से कम थी। घर-परिवार से उन्हें सहयोग सुविधाओं के साथ दुलार-प्यार की जरूरत थी। लेकिन ज्योति को मानसिक तनाव के साथ हमेशा एक तुलनात्मक दृष्टि से देखा गया।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

ज्योति कहती हैं, “घर में महिलाओं ने कहा कि ये ही माँ बनी है बस इस धरती पर। इससे पहले तो कोई माँ बनी ही नहीं जैसे। इन्हीं ने जैसे कोई अनोखा काम किया है। घर में पुरुषों के साथ महिलाओं को भी लगने लगा कि मैं गर्भावस्था की आड़ में अधिक सुख-सुविधाओं पाना चाहती हूँ। तनाव की वजह से मैं शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार रहने लगी।”

परंपरा के नाम पर समस्याजनक नियम

ग्रामीण इलाकों में सबसे बड़ी दिक्कत है कि स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव में बच्चे पैदा होने के बाद परंपरागत मूल्यों का महिमामंडन किया जाता है। पहले की स्त्रियां इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होती हैं कि अब चिकित्सा के दृष्टि से बहुत कुछ बदल गया है। मनुष्य के शरीर में रोग-रोधक क्षमता में कमी हुई है। पहले के खान-पान और और आज के खान-पान में बहुत अंतर हो गया है। मध्यप्रदेश के रीवा जिले की रहने वाली सोनम कहती हैं, “मेरे घर में मुझसे पहले सब स्त्रियों की नॉर्मल डिलीवरी हुई थी। मेरी गर्भावस्था शुरू से जटिल थी तो डॉक्टर से सलाह चलती रही और वहीं से घर में तनाव बढ़ता गया। मेरी जेठानी कहती थीं कि मैंने तीन बच्चे पैदा किए। लेकिन कभी दवा नहीं खायी। डॉक्टर ने जब बेडरेस्ट की सलाह दी, तो सास कहती थी कि बेडरेस्ट के कारण ही तो नॉर्मल डिलीवरी नहीं होती।”

“घर में रिश्तेदारों के बीच मुझे लेकर यही सब बातें होती थी कि दर्द नहीं सहना, फिगर नहीं ख़राब करना इसलिए सीज़ेरियन करवाती हैं लड़कियां और फ़ीड भी नहीं करा रही।” रुचि कहती हैं कि मुझे रोना आता था कि एक तो मैं बच्चे को ब्रेस्ट्फीड नहीं कर पा रही हूँ और ऊपर से ऐसी अमानवीय व्यवहार और बातें।

परिवार वालों के ताने

गाँव में रहने वाली रुचि टीचर हैं। उनकी सिजेरियन डिलिवरी हुई है। बच्चे के जन्म के बाद कुछ स्वास्थ्य कारणों से रुचि बच्चे को ब्रेस्ट्फीड नहीं करवा पा रही थीं। रुचि कहतीं हैं, “घर में रिश्तेदारों के बीच मुझे लेकर यही सब बातें होती थी कि दर्द नहीं सहना, फिगर नहीं ख़राब करना इसलिए सीज़ेरियन करवाती हैं लड़कियां और फ़ीड भी नहीं करा रही।” रुचि कहती हैं कि मुझे रोना आता था कि एक तो मैं बच्चे को ब्रेस्ट्फीड नहीं कर पा रही हूँ और ऊपर से ऐसी अमानवीय व्यवहार और बातें। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं का जीवन वैसे भी वहाँ की कंडीशनिंग के कारण कठिन होता है। दूसरे उन्हें उनके जीवनसाथी और घर परिवार की स्त्रियों से जो सहयोग और स्नेह मिलना चाहिए, गर्भावस्था के दौरान वो मिल नहीं पाता। जैसे पहले की माँ बनी और नई माँ बनी स्त्रियों में कोई विरोध और प्रतिस्पर्धा चलता रहता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

जहां हर औरत जो ख़ुद गर्भावस्था में होती है या जब बच्चे छोटे होते हैं, हर तरह के स्नेह और सहयोग की उम्मीद रखती है। लेकिन बाद में जब वो समय बीत जाता है तो दूसरी औरतें, जो उस दौर से गुज़र रही हैं, उनके प्रति एकदम से तुलनात्मक व्यवहार या कभी-कभी क्रूर भी हो जाती हैं। उनकी मानसिक, सामाजिक, शारीरिक और स्वास्थ्य स्थिति से अनभिज्ञ बनकर एकदम से ख़ुद को आदर्श और समाज की नजर में अच्छी औरत बनने की कवायद करती दिखती हैं। जरूरी है कि नई माँ की शारीरिक और मानसिक स्थिति को प्राथमिकता देनी मिले। गर्भावस्था के दौरान महिलाएं किसी और के मन की बात समझे ये जरूरी नहीं। उस समय उनकी भावना, इच्छा, मनोदशा और स्वास्थ्य की स्थिति को समझना जरूरी है।

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