अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, भारत का एक प्रमुख और ऐतिहासिक विश्वविद्यालय है, जिसका इतिहास 1875 से शुरू होता है, अपने अकादमिक योगदानों और विविधता को बढ़ावा देने में एक खास जगह बनाए रखता है। लेकिन आज अपने अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर चल रहे लंबे कानूनी विवाद में घिरा हुआ है, जिसमें हाल में सुप्रीम कोर्ट का एक अहम फैसला सामने आया हैं। द हिंदू में छपी जानकारी के अनुसार 8 नवंबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने 1967 के अज़ीज़ बाशा बनाम भारत सरकार के फ़ैसले पर 4-3 के बहुमत से फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया है कि अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा बनाए गए शैक्षिक संस्थान अपनी पहचान नहीं खोते, भले ही उन्हें कानून के तहत मान्यता क्यों न मिली हो।
यह फैसला अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से संबंधित अलग-अलग आवेदनों पर आधारित है जो अल्पसंख्यक आरक्षण से नाता रखते थे। मुख्य न्यायाधीश ने अपना फैसला सुनाते हुए यह स्पष्ट किया कि अल्पसंख्यक संस्थान, आम तौर से, अल्पसंख्यक शैक्षिक प्रतिष्ठान ही होते हैं। फिर भी यह ज़रूरी है कि यह साबित किया जाए की इन संस्थानों की स्थापना सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और प्रबंधन के नियत से ही की गई थी, जिसके लिए समाज की जिम्मेदारी होती है।
क्या था अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे का विवाद?
इस मामले की पहल अज़ीज़ बाशा बनाम भारत सरकार केस से शुरू होती है, जिसने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर देश भर में बहस शुरू कर दी थी। इस केस के इलावा भी एएमयू से जुड़ी कईं कानूनी मामलों ने इसके अस्तित्व और अधिकारों पर सवाल उठाए थे। अज़ीज़ बाशा ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को चुनौती दी थी और उनका दावा था कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि विश्वविद्यालय में मुस्लिम समुदाय के लिए विशेष प्रावधान होने से यह संविधान की समानता की मूल भावना के खिलाफ जाता है, और यह उन छात्रों के अधिकारों का उल्लंघन करता है जो दूसरे धर्मों से आते हैं।
हालांकि इस मामले में तब सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की बेंच ने यह फैसला सुनाया था कि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है जो केंद्रीय कानून के तहत बना हुआ था इसलिए इसे एक अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में नहीं माना जा सकता। हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बाद एएमयू का प्रबंधन, दाखिले की नीतियां और अल्पसंख्यक अधिकार सीमित हो गए थे, फलस्वरूप मुस्लिम समुदाय को लगने लगा कि यह फैसला उनके शैक्षिक और मौलिक अधिकारों को प्रभावित कर रहा है, क्योंकि एएमयू उनके शैक्षिक और सांस्कृतिक विकास का केंद्र माना जाता था।
साल 1981 में भारतीय संसद ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) को फिर से अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने के लिए कानून में बदलाव किया, जिससे एएमयू को अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों के लिए आरक्षण की इजाज़त मिली। लेकिन 2005 में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस दर्जे को रद्द कर दिया, यह कहते हुए कि एएमयू की स्थापना सरकारी कानून के तहत हुई थी, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता। इसके बाद यह मामला 2019 में दोबारा सुप्रीम कोर्ट में गया।
सुप्रीम कोर्ट में इस पर बहस हुई कि अगर एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा नहीं मिला तो अन्य अल्पसंख्यक संस्थानों जैसे दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज और तमिलनाडु के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज का भी दर्जा खतरे में पड़ सकता है। कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 30(1) की चर्चा की, जो अल्पसंख्यकों को अपने शिक्षा संस्थान स्थापित और प्रबंधित करने का अधिकार देता है, और इसे “भेदभाव विरोधी” और “मौलिक अधिकार” के रूप में माना गया।
कोर्ट ने कहा कि अल्पसंख्यक संस्थानों को अपने समुदाय की पहचान बनाए रखने का अधिकार है। हालांकि, सरकार कुछ नियम बना सकती है, लेकिन इससे उनकी अल्पसंख्यक पहचान पर असर नहीं पड़ना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि किसी अल्पसंख्यक संस्था का प्रबंधन बाहरी लोगों को सौंपा जाता है, तो भी उसका अल्पसंख्यक दर्जा बना रहेगा। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि संस्थापक अन्य समुदाय के लोगों को निर्देशक मण्डल में शामिल कर सकते हैं, खास तौर पे उन पेशेवर कॉलेजों में जहां चिकित्सा, कानून, या वास्तुकला जैसे विषय पढ़ाए जाते हो।
इसके अलावा, कोर्ट में एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुनवाई में, तीन न्यायाधीशों के विचारों में मतभेद देखा गया। तीन जजों में से एक, जस्टिस दीपांकर दत्ता का मानना था कि एएमयू को अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान का दर्जा नहीं मिलना चाहिए। उनके मुताबिक, यह ससंथान एक राष्ट्रीय स्वरूप है और इसे किसी एक समुदाय विशेष का नहीं माना जा सकता। दूसरी ओर, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एस. सी. शर्मा ने पहले के फैसलों पर सवाल उठाते हुए यह सोचा कि क्या एएमयू का दर्जा बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक अधिकारों की संवैधानिक संरचना के मुताबिक है। इस असहमति ने मामले को और जटिल बना दिया है और अब अदालत को तय करना है कि संविधान के अनुसार एएमयू का दर्जा क्या होना चाहिए।
एएमयू का ऐतिहासिक संघर्ष
अल्पसंख्यक दर्जे की संवैधानिक लड़ाई और संभावित प्रभाव लेकिन इस फ़ैसले और अलीगढ़ के विवाद को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम एएमयू के इतिहास और उसके अल्पसंख्यक दर्जे के कानूनी पहलुओं को ध्यान से देखें। सर सय्यद अहमद खान द्वारा शुरू किए गए इस संस्थान का मकसद भारतीय मुसलमानों के लिए आधुनिक शिक्षा की सुविधा देना था, ताकि वे अपने समाज को आगे बढ़ाने की दिशा में काम कर सकें। 1857 के विद्रोह के बाद मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति और कमजोर हो गई थी, इसके बाद उन्होंने महसूस किया कि मुसलमनो को आधुनिक विज्ञान, तकनीक और अंग्रेजी भाषा में महारत हासिल करनी चाहिए ताकि वे समय के साथ कदम से कदम मिला सकें और सरकारी नौकरियां में अपनी स्थिति मजबूत कर सकें। बाद में उन्होंने “अलीगढ़ मूवमेंट” की शुरुआत की, जिसके तहत भारतीय मुसलमानों को प्रगतिशील सोच अपनाने और शिक्षा में भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रेरित किया गया। उनका मानना था कि भारत में मुसलमानों का विकास तभी संभव है जब वे आधुनिक शिक्षा के जरिए नए विचारों और तकनीकी ज्ञान को आत्मसात करेंगे।
हालांकि 1900 के दशक की शुरुआत में एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज में छात्रों की संख्या बढ़ने लगी और इसके शैक्षिक स्तर में सुधार हुआ। सर सय्यद अहमद खान की कोशिशों से कॉलेज को बड़े स्तर पर समर्थन मिला, और कई छात्रों ने यहां से पढ़ाई कर देश के विकास में अहम भूमिका निभाई। इसके बाद 1920 में, भारत सरकार ने एक विधेयक पारित किया जिससे एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज से विश्वविद्यालय का दर्जा मिला और इसे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के नाम से जाना जाने लगा। यह विश्वविद्यालय आज भी भारतीय मुसलमानों के लिए शिक्षा, शोध और सांस्कृतिक जागरूकता का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना हुआ है।
संविधान के अनुच्छेद 30 के अनुसार, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों को अपने शैक्षिक संस्थान को स्थापित और प्रबंधित करने का अधिकार है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अल्पसंख्यक समुदाय अपनी सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित रखते हुए शिक्षा प्राप्त कर सकें। लेकिन जब बात अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) जैसी संस्था की आती है, जो केंद्र सरकार से वित्त प्राप्त करती है, तो सवाल उठता है कि क्या इसे अल्पसंख्यक दर्जा दिया जाना चाहिए। सरकार का यह मानना है कि एएमयू को वित्तीय सहायता और मान्यता के कारण वह पूरी तरह एक राष्ट्रीय संस्था के रूप में कार्य कर रहा है, और उसे एक विशेष समुदाय का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता। इस आधार पर, सरकार का तर्क है कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे से संविधान में समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है। वहीं दूसरी ओर, एएमयू का पक्ष है कि इसकी स्थापना ही मुस्लिम समुदाय की शैक्षिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए की गई थी, और इसने भारत के संविधान के तहत मिले अल्पसंख्यक अधिकारों का उपयोग कर अपने समुदाय की शिक्षा को आगे बढ़ाया है। अगर इसे अल्पसंख्यक दर्जा नहीं मिलता, तो इससे केवल एएमयू ही नहीं बल्कि अन्य अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों पर भी प्रभाव पड़ेगा।
अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला एएमयू के खिलाफ आता है, तो इसका असर बहुत व्यापक और महत्वपूर्ण होगा। इसका सीधा प्रभाव एएमयू के छात्र दाखिले, प्रबंधन, और संस्थान की नीतियों पर पड़ेगा। उदाहरण के लिए, वर्तमान में एएमयू अपने अल्पसंख्यक छात्रों को विशेष अवसर और समर्थन प्रदान कर सकता है, लेकिन अगर इसे अल्पसंख्यक दर्जा नहीं मिला, तो यह सुविधाएं समाप्त हो सकती हैं। साथ ही, सेंट स्टीफेंस कॉलेज, क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज जैसे अन्य अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान भी इस फैसले से प्रभावित हो सकते हैं, क्योंकि उनके दर्जे पर भी सवाल खड़ा हो सकता है।
इसके अलावा, इस फैसले का असर समाज के उस वर्ग पर भी पड़ेगा जो अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों पर निर्भर है। इसका मतलब है कि अल्पसंख्यक समुदायों के शिक्षा में हिस्सेदारी कम हो सकती है, जिससे उनके शैक्षिक अधिकारों पर खतरा बढ़ेगा। अगर एएमयू जैसे संस्थानों का अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त होता है, तो अल्पसंख्यक समुदाय में असुरक्षा की भावना बढ़ सकती है, और उनके शैक्षिक अवसरों पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है। इससे अल्पसंख्यक समुदायों में यह संदेश जाएगा कि उनके अधिकार सीमित किए जा रहे हैं, जो कि उनके शिक्षा, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के लिए हानिकारक हो सकता है। अंतत इस फैसला का असर भारत के विविधता और एकता पर भी पड़ेगा, जो हमारे संविधान की बुनियादी संरचना का एक
महत्वपूर्ण हिस्सा है।