समाजकैंपस डॉ. ऋतु का संघर्ष शैक्षिक संस्थानों में दलित-आदिवासी शिक्षकों के हालात बताते हैं

डॉ. ऋतु का संघर्ष शैक्षिक संस्थानों में दलित-आदिवासी शिक्षकों के हालात बताते हैं

"डॉक्टर ऋतु सिंह जिस मुद्दे पर आंदोलन कर रही हैं वह न्याय देने की मंशा न रखने वाली राजनीतिक मशीनरी से न्याय छीनने की लड़ाई है। गौर से देखें तो इस मुद्दे को कॉलेज, विश्वविद्यालय आदि लोगों द्वारा आसानी से हल किया जा सकता था। लेकिन दलितों को परेशान करने की चालें, तंत्र इस देश की व्यवस्था में बसा हुआ है ताकि वे कभी अपने जीवन में 'स्वायत्तता' हासिल ना कर पाएं।"

सितंबर 2023 से दिल्ली विश्विद्यालय से मनोविज्ञान में डॉक्टरेट की डिग्री ले चुकी डॉक्टर ऋतु सिंह विरोध प्रदर्शन कर रही हैं। ऋतु दौलत राम कॉलेज में एड हॉक शिक्षिका थीं और उन्हें ‘बिना किसी नोटिस’ के नौकरी से हटा दिया गया। यह आंदोलन है उस जातिवाद के खिलाफ जो उनके साथ दौलत राम कॉलेज की प्रधानाध्यापिका सविता रॉय कथित तौर पर किया और इस भेदभाव के चलते उन्हें बिना किसी नोटिस नौकरी से निकाल दिया गया। साल 2020 में जब यह घटना घटी, तब भी वे कुछ दिन आंदोलन पर बैठी थीं। वह मामले को कानूनी तरीके से भी निपट रही हैं। उन्हें आंदोलन करते हुए डेढ़ सौ दिनों से भी ज्यादा हो चुके हैं लेकिन अब तक न्याय की उम्मीद कहीं से भी दिखाई नहीं दे रही है। इसी तरह दिल्ली विश्विद्यालय के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में चौदह साल से हिंदी के अध्यापक रह चुके लक्ष्मण यादव को 6 दिसंबर 2023 को सेवा समाप्ति पत्र पकड़ा दिया गया। हालांकि इसकी वजह स्पष्ट नहीं की गई। इसे लेकर लक्ष्मण यादव ने ट्विटर पर लिखा था, “आधिकारिक सूचना। हमसे हमारी धड़कन छीन ली गई। वजह नहीं बताई गई। मगर वजह जगज़ाहिर है। मेरे लहजे में जी-हुजूर न था। इससे ज्यादा मेरा कसूर न था…।”

दोनों ही परिदृश्य में एक चीज़ साफ़ नज़र आ रही है और वह है जाति के आधार पर अध्यापकों को नौकरी से निकालना। इन समुदायों से आने वाले व्यक्तियों के संवैधानिक अधिकारों पर हमला। हाशिए पर धकेले गए समुदायों का कितना प्रतिनिधित्व उच्च शिक्षण संस्थानों में है?

क्यों आरक्षित पद खाली जा रहे हैं

दोनों ही परिदृश्य में एक चीज़ साफ़ नज़र आ रही है और वह है जाति के आधार पर अध्यापकों को नौकरी से निकालना। इन समुदायों से आने वाले व्यक्तियों के संवैधानिक अधिकारों पर हमला। हाशिए पर धकेले गए समुदायों का कितना प्रतिनिधित्व उच्च शिक्षण संस्थानों में है? क्या इस देश की उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित आदिवासी बहुजन अध्यापक इतनी अधिक संख्या में मौजूद हैं कि उन्हें निकालना एक विकल्प बन जाए? द प्रिंट में छपी खबर अनुसार एक संसदीय समिति ने पाया है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित केवल 4.63 प्रतिशत शिक्षक हैं, जबकि 27 प्रतिशत का कानूनी आदेश है। पैनल ने यह भी बताया कि कैसे देश का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय सामाजिक न्याय के लिए राष्ट्रीय प्रतिबद्धता पर विफल रहा है। वहीं टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में कहा गया है कि अप्रैल, 2015 तक 264 प्रोफेसरों की कुल स्वीकृत संख्या में से, डीयू के कॉलेजों में केवल तीन ऐसे शिक्षक हैं, जबकि इस स्तर पर अनुसूचित जनजाति का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है।

द प्रिंट में छपी खबर अनुसार एक संसदीय समिति ने पाया है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित केवल 4.63 प्रतिशत शिक्षक हैं, जबकि 27 प्रतिशत का कानूनी आदेश है। पैनल ने यह भी बताया कि कैसे देश का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय सामाजिक न्याय के लिए राष्ट्रीय प्रतिबद्धता पर विफल रहा है।

अध्यापकों को किया जा रहा है नौकरी से बर्खास्त

तस्वीर साभार: MaktoobMedia.com

271 एसोसिएट प्रोफेसर पदों में से केवल एक अनुसूचित जनजाति और सात अनुसूचित जाति के शिक्षक हैं। इस विशेष जानकारी के संदर्भ में बहुत नया डेटा अभी मौजूद नहीं है। लेकिन कुछ ही वर्ष पुराना यह डेटा यह समझने के लिए काफ़ी है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित आदिवासी बहुजन अध्यापकों का प्रतिनिधित्व अत्यंत ही कम है। संवैधानिक नियमों का उल्लंघन जोर-शोर से चल रहा है। इसके खिलाफ़ कुछ भी बोलने वाले अध्यापकों को नौकरी से बर्खास्त भी कर दिया जा रहा है। साल 2018-19 में लोक सभा में जब शिक्षकों की भर्ती और आरक्षण को लेकर रिपोर्ट की मांग की गई, तो उसमें यह भी देखा गया कि कई एससी/एसटी उम्मीदवार जो कई वर्षों से डीयू में तदर्थ कर्मचारी (एड हॉक अध्यापक) के रूप में पढ़ा रहे थे, उन्हें स्थायी पद उपलब्ध होने पर अनुपयुक्त करार दिया जा रहा था। दलित आदिवासी बहुजन लोगों के न्यायिक प्रतिनिधित्व न होने के भी अलग खतरे हैं। दिसंबर 2023 में मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान में न्यायमूर्ति केशव चंद्र धूलिया निबंध प्रतियोगिता में ‘लोकतंत्र, बहस और असहमति’ विषय पर बोल रहे थे।

दलित आदिवासियों से स्वायत्तता छीनने की कोशिश

तब उन्होंने कहा था, लोकतंत्र में, बहुमत का अपना रास्ता होगा। लेकिन अल्पसंख्यक को भी अपनी बात कहनी होगी। लेकिन जब अल्पसंख्यक अपनी बात कह रहा है तो सुन कौन रहा है? डॉक्टर ऋतु सिंह के आंदोलन से वाकिफ और दिल्ली विश्वविद्यालय कैम्पस में रोज़ देख रहे किरोड़ीमल कॉलेज के छात्र आशुतोष से यह जानना चाहा कि वे इसे दलित आंदोलनों के संघर्ष की कड़ी में महत्वपूर्ण कैसे मानते हैं।

इसपर उनका कहना है, “डॉक्टर ऋतु सिंह जिस मुद्दे पर आंदोलन कर रही हैं वह न्याय देने की मंशा न रखने वाली राजनीतिक मशीनरी से न्याय छीनने की लड़ाई है। गौर से देखें तो इस मुद्दे को कॉलेज, विश्वविद्यालय आदि लोगों द्वारा आसानी से हल किया जा सकता था। लेकिन दलितों को परेशान करने की चालें, तंत्र इस देश की व्यवस्था में बसा हुआ है ताकि वे कभी अपने जीवन में ‘स्वायत्तता’ हासिल ना कर पाएं।” दलितों का संघर्ष खुद के जीवन को दिशा देने के अधिकार का संघर्ष रहा है।

” गौर से देखें तो इस मुद्दे को कॉलेज, विश्वविद्यालय आदि लोगों द्वारा आसानी से हल किया जा सकता था। लेकिन दलितों को परेशान करने की चालें, तंत्र इस देश की व्यवस्था में बसा हुआ है ताकि वे कभी अपने जीवन में ‘स्वायत्तता’ हासिल ना कर पाएं।”

क्या है असल में सामाजिक न्याय की परिभाषा

अल्पसंख्यक समुदायों के लोग जब इन उच्च शिक्षण संस्थानों में अपना प्रतिनिधित्व, अधिकार चाहते हैं तब न्याय के दूसरे मायने गढ़े जा रहे हैं। यह मायने ‘मेरिट’ पर आधारित है जिसकी जड़ में जातिवाद, ब्राह्मणवाद और गुलाम बनाए रखने की मंशा है। विशेषाधिकार प्राप्त सवर्ण लोगों के अनुसार जातिवाद नहीं आरक्षण ही असल भेदभाव है और यह दलित आदिवासी बहुजन के खिलाफ नहीं बल्कि उन लोगों के खिलाफ हो रहा है। इसी का नतीजा है कि मेरिट जैसे निराधार टूल को इन समुदायों के खिलाफ इस्तेमाल कर, उन जगहों से हटाया जा रहा है जहां पहुंचकर इन समुदायों से आने वाली आगे की पीढियां जातिगत काम को छोड़ आगे बढ़ सकती हैं। नए और आलोचनात्मक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करने वाले थ्रेसिमैचस ने न्याय के क्रांतिकारी सिद्धांत का प्रतिपादन किया था जिसमें वह न्याय को ‘मजबूत लोगों के हित’ के रूप में परिभाषित करते हैं। भारत के सवर्णों ने न्याय की परिभाषा का भी रूप बदल दिया है। अब न्याय का अर्थ वह है जो सुनने, करने में सवर्णों के विचार अनुसार उपयुक्त महसूस हो। इससे लोकतंत्र की मुख्य नींव में से एक-एक न्याय का सिद्धांत खतरे में है।

“दलित आदिवासी बहुजन लोगों के अपने-अपने अनेक संस्कृति होती है। वे जिन सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों से उठकर इन शिक्षण संस्थानों में आते हैं तब विषयों के समझने की और समझाने का अलग नज़रिया विद्यार्थियों तक पहुंचता है। इन अध्यापकों के क्लासरूम में होने से संवैधानिक नैतिकता, भिन्नता और एक विषय को विभिन्न आयामों से समझने, जानने के रास्ते विद्यार्थियों के लिए खुलते हैं।

क्यों शैक्षिक संस्थानों को समरूप करने की है कोशिश

क्या दलित आदिवासी बहुजन अध्यापक का क्लासरूम में न होना विद्यार्थियों को किन्हीं मूल्यों से अनिभज्ञ बनाता है, इस विषय पर दिल्ली विश्विद्यालय से परास्नातक कर चुकी ऐश्वर्या राज बताती हैं, “दलित आदिवासी बहुजन लोगों के अपने-अपने अनेक संस्कृति होती है। वे जिन सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों से उठकर इन शिक्षण संस्थानों में आते हैं तब विषयों के समझने की और समझाने का अलग नज़रिया विद्यार्थियों तक पहुंचता है। इन अध्यापकों के क्लासरूम में होने से संवैधानिक नैतिकता, भिन्नता और एक विषय को विभिन्न आयामों से समझने, जानने के रास्ते विद्यार्थियों के लिए खुलते हैं।

लेकिन जो प्रयास आज के वक्त में किए जा रहे हैं वह न सिर्फ इन शिक्षण संस्थानों को बल्कि तकरीबन हर क्षेत्र को समरूप (होमोजेनाइज) करने की कोशिश है जिससे अल्पसंख्यक समुदायों के संवैधानिक मूल्य और अधिकार ताक पर है।” हर क्षेत्र को समरूप बनाकर कैसा लोकतंत्र स्थापित होगा? 2023 में मलयाली मीडिया चैनल मीडिया वन पर फैसला सुनाते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस हिमा कोहली ने तर्क रखा था कि सामाजिक-आर्थिक राजनीति से लेकर राजनीतिक विचारधाराओं तक के मुद्दों पर एकरूप दृष्टिकोण लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरे पैदा करेगी। ऐसी नीतियों, विचारधारा का एक खतरा सामने है। दलित आदिवासी बहुजन को शिक्षा के क्षेत्र से बेदखल करने की मंशा और क्रियाएं।

संविधान के निर्माता डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने सही मायने में लोकतंत्र स्थापित होने के लिए राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक समानता की परस्पर निर्भरता पर ज़ोर दिया था। लेकिन इस समानता को बढ़ाने की बजाय इसे दिन प्रतिदिन ख़त्म किया जा रहा है। डॉक्टर ऋतु सिंह के आंदोलन में एक नारा शीर्ष पर है, ‘नौकरी नहीं न्याय चाहिए।’ लोकतंत्र में कहा जाता है कि सौ मुजरिम छोड़े जा सकते हैं लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। इतने दिनों का आंदोलन, पूर्व में रोहित वेमुला का आंदोलन, डॉक्टर पायल तडवी का संस्थान के भीतर रहते हुए लड़ना, आईआईटी में दलित आदिवासी बहुजन विद्यार्थियों, अध्यापकों के लिए शोषण भरा माहौल जो उन्हें इन संस्थानों में जाने से भी रोक देता है। यह सब न्याय के विरोधाभाष हैं और दलित आदिवासी बहुजन लोगों के जीवन को एकदम सस्ता समझने की राजनीतिक मशीनरी है।

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