रसोई के लिए स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल की शुरुआत महिलाओं के जीवन में एक बहुत बड़ी क्रांति थी। सदियों से धुएं और राख के बीच महिलाएं खाना पकाती थी। रसोई गैस के आने से उन्हें काफी सुविधा और सहूलियत हो गई थी। लेकिन रसोई गैस की बढ़ती कीमत ने हजारों महिलाओं के जीवन से ये सुविधा छीन ली है। सरकार घर-घर गैस सिलेंडर के इस्तेमाल के दावे करती है और पारंपरिक ईंधन के इस्तेमाल के प्रयोग को खत्म करने की बात कहती है। लेकिन, भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक़ देश में सिर्फ 50 प्रतिशत ग्रामीण और 93 प्रतिशत शहरी परिवार खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन का उपयोग करते हैं।
व्यापक वार्षिक मॉड्यूलर सर्वेक्षण 2022-2023 के सर्वे में तीन लाख से अधिक शहरी और ग्रामीण घरों को शामिल किया गया है। जमीनी स्तर पर महिलाओं की समस्याओं को समझने के लिए फेमिनिज़म इन इंडिया ने महिलाओं से बातचीत की और जानने की कोशिश कि आखिर महिलाएं कितना इस्तेमाल करती हैं स्वच्छ ईंधन। ग्रामीण इलाकों में ही नहीं शहरी क्षेत्रों में भी स्वच्छ ईंधन का उपयोग करने वाले इस आँकड़े आज भी पूरे नहीं हैं। घरेलू ईंधन योजना के अंतर्गत सिलेंडर और चूल्हे तो हर घर में पहुंच गए लेकिन गैस सिलेंडर की बढ़ती कीमत से लोग परेशान हैं। कीमतें इतनी अधिक है कि गरीब परिवार स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं।
उज्ज्वला योजना से जब गैस सिलेंडर और चूल्हा मिला तो मैं बहुत खुश हो गयी थी कि अब धुंए और राख से निजात मिलेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। किसी तरह एक-दो बार सिलेंडर भरवाया गया फिर तो घर में खाली पड़ा रहता है। हमारे घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि हर महीने सिलेंडर भरवा सकें।
हालांकि ये समस्या निम्नमध्यम घरों में भी है, जिस कारण ऐसे घरों में घरेलू गैस के अलावा इंडक्शन चूल्हा भी स्वच्छ ईधन का एक विकल्प होता है। लेकिन वहां बिजली के बिल का भुगतान करना होता है। आर्थिक रूप से वंचित परिवारों या निम्नमध्यमवर्गीय परिवारों के लिए यह विकल्प ज्यादा मंहगा पड़ता है। दूसरी दिक्कत ये भी होती है कि ऐसे घरों में जहां रोटियां खाई जाती हैं, वहां इंडक्शन चूल्हे पर रोटियां बनाने में बेहद मुश्किल आती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अगर इंडक्शन चूल्हे को स्वच्छ ईंधन का एक विकल्प बनाया भी जाए तो भी वहां बिजली हर वक्त उपलब्ध नहीं होने के कारण, खाना बनाना ही एक बड़ा संकट बना रहता है।
ग्रामीण वंचित परिवार कैसे करे स्वच्छ ईंधन का प्रयोग
बात शहरी क्षेत्रों की करें, तो इंडक्शन चूल्हा एक विकल्प हो सकता है, अगर उपभोक्ता बिजली के बिल का भुगतान करने में सक्षम हो। शहर में रह रहे गरीब या निम्नमध्यम परिवारों के लिए ये भी कठिन होता है। विकल्पों की ये स्थितियां परिवार की आय पर निर्भर होती है। जहां शहरी मध्यमवर्गीय परिवार सिलेंडर गैस चूल्हा और इंडक्शन चूल्हे का भी प्रयोग कर रहे हैं, वहीं गरीब ग्रामीण इलाकों में खाना बनाने के लिए सिलेंडर गैस चूल्हा और इंडक्शन दोनों का उपयोग बहुत कम हो रहा है। ग्रामीण इलाकों में खासकर आर्थिक रूप से वंचित घरों में उपले और लकड़ी, बुरादे आदि जैसे जलावन के माध्यम से मिट्टी का चूल्हा ही ज्यादा उपयोग होता है।
घरेलू गैस इस्तेमाल न करने की वजह
उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले की रहने वाली मंजू निषाद खेतिहर मजदूर हैं और थोड़ी सी जमीन पर खेती करती हैं। मंजू कहती हैं, “उज्ज्वला योजना से जब गैस सिलेंडर और चूल्हा मिला तो मैं बहुत खुश हो गयी थी कि अब धुंए और राख से निजात मिलेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। किसी तरह एक-दो बार सिलेंडर भरवाया गया फिर तो घर में खाली पड़ा रहता है। हमारे घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि हर महीने सिलेंडर भरवा सकें। इसी तरह महरुना और उनके पति यासीन गाँव में सिलाई का काम करते हैं। उनका कहना है कि ग्राम पंचायत से जो सिलेंडर मिला था, उसे बस वे बाद में एक ही बार भरवा पाएं हैं। तब से सिलेंडर खाली पड़ा है और वे मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाती हैं।
ग्रामीण इलाकों में निम्नवर्ग ही नहीं निम्नमध्यवर्गीय घरों में भी चूल्हों पर खाना बनता है। इन घरों में सिलेंडर चूल्हा पहुंच जरूर गया है। लेकिन उसे नियमित उपयोग करने की स्थिति इन घरों की नहीं है। ग्रामीण इलाके हों या शहरी इलाका, हर जगह गरीबों के लिए रसोई गैस की बढ़ती कीमत सिरदर्द बन गया है। मध्य प्रदेश के रीवा जिले की प्रमिला देवी इलाहाबाद के तेलियरगंज इलाके में रहती हैं। प्रमिला देवी का सब्जियों का रोजगार है। रसूलाबाद में उनके घर के पिछले हिस्से में थोड़ी सी खुली जगह है जहां पर वह चूल्हा जलाकर सुबह-शाम पूरे घर का खाना बनाती हैं। प्रमिला देवी कहती हैं, “घर में सिलेंडर और चूल्हा तो है लेकिन उसका उपयोग नहीं होता है। सिलेंडर गैस के बढ़े हुए दाम के कारण मैं खरीद नहीं पाती।” प्रमिला देवी एक शहरी निम्नवर्गीय महिला हैं। आय का एक सीमित स्रोत है। ग्रामीण इलाकों की महिलाओं के पास आय का ये सीमित स्रोत भी बेहद कम होता है। इसलिए, उनके लिए सिलेंडर गैस की कीमत और भी ज्यादा दूर की चीज़ है।
स्वच्छ ईंधन से दूर काम करने पर मजबूर महिलाएं
हालांकि प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना को बढ़ावा दिया गया लेकिन इसके तहत आज भी सभी घरों में गैस चूल्हे नहीं आ पाये हैं। कुछ महिलाओं का कहना है कि गैस सिलेंडर चूल्हा न बांटकर सरकार उनके लिए गैस की कीमत कम कर देती तो उनके लिए ज्यादा सुविधाजनक होता। प्रभावती देवी स्कूल में रसोईया हैं। उनका कहना है कि इन दशकों में जहां रसोई के स्वच्छ ईंधन की सुविधा का ईजाद हुआ, वहीं रसोई में पकाने की चीजें इतनी महंगी हो गयी कि हमारे घरों में दाल-सब्जी दोनों चीजें कभी बनती ही नहीं है। ग्रामीण या शहरी मजदूर और छोटे किसान परिवारों का भी यही हाल है। उनके यहां स्वच्छ ईंधन का उपयोग अभी भी कम हो पा रहा है।
उज्ज्वला योजना से जब गैस सिलेंडर और चूल्हा मिला तो मैं बहुत खुश हो गयी थी कि अब धुंए और राख से निजात मिलेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। किसी तरह एक-दो बार सिलेंडर भरवाया गया फिर तो घर में खाली पड़ा रहता है। हमारे घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि हर महीने सिलेंडर भरवा सकें।
क्या है महिलाओं की सरकार से उम्मीद
महिलाओं के लिए रसोई ऐसी जगह है, जहां उन्हें काफी समय व्यतीत करना पड़ता है। ग्रामीण इलाकों में प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना से महिलाओं के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाया सकता था। लेकिन बेरोजगारी और महंगाई का बोझ इस योजना की कामयाबी में बाधा बने रहे। जिन परिवारों के लिए दो वक्त की रोटी के लिए अथक श्रम करना पड़ रहा है, उनके लिए उज्ज्वला योजना का सिलेंडर लेना नामुमकिन सा है। पहले उपले के साथ महिलाएं रसोई के चूल्हे में लकड़ी का भी प्रयोग करती थीं पर अब लकड़ियों की कीमत बढ़ने और आसानी से न मिलने के कारण मुश्किल बढ़ गई है। पिछले कुछ दशकों में देश में ढेरों पेड़ काटे गए हैं। उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर जिले की रहने वाली सीमा कहती हैं, “पहले सिलेंडर की कीमत कम थी तो मैं गैस पर ही खाना बनाती थी। लेकिन जब उज्ज्वला योजना में चूल्हा बंटने लगे तो गैस ही बहुत महंगी हो गयी। इससे तो बेहतर होता कि सरकार अपना दिया हुआ चूल्हा वापस ले और गैस सिलेंडर की कीमत कम कर दें।”
पहले सिलेंडर की कीमत कम थी तो मैं गैस पर ही खाना बनाती थी। लेकिन जब उज्ज्वला योजना में चूल्हा बंटने लगे तो गैस ही बहुत महंगी हो गयी। इससे तो बेहतर होता कि सरकार अपना दिया हुआ चूल्हा वापस ले और गैस सिलेंडर की कीमत कम कर दें।
गरीब जनता के लिए सरकारी योजनाएं बनती हैं तो एक उम्मीद बंधती है। लेकिन योजनाएं कागज पर जितनी दिखती हैं, जमीन पर उतनी नहीं दिखती हैं। सरकारी आंकड़ों के लिहाज से देखा जाए तो महिलाओं के जीवन में बड़ा बदलाव आया। लेकिन जमीनी स्तर पर उनकी स्थिति में आज भी ज्यादा सुधार नहीं है। महिलाओं की सुविधा के लिए एलपीजी गैस कनेक्शन योजना बनी जरूर है लेकिन उसकी बढ़ती कीमत ने उसे महिलाओं से और भी दूर कर दिया। साठ वर्षीय विमला देवी बिहार के बक्सर जिले की डुमराँव तहसील की रहने वाली हैं। वह कहती हैं, “अब तो यहां लगता है कि गैस चूल्हे का जमाना चला गया। जब सिलेंडर सस्ता मिलता था तब मैं कभी मिट्टी के चूल्हे पर खाना नहीं बनाती थी। लेकिन अब कुछ वर्षों से घर में सिलेंडर और गैस चूल्हा धूल खा रहा है।”
ग्रामीण और शहरी गरीब महिलाएं अब भी परंपरागत ईंधन जैसे लकड़ी, उपले, और मिट्टी के चूल्हे का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं। सरकार द्वारा गैस कनेक्शन और चूल्हे उपलब्ध कराए जाने के बावजूद, सिलेंडर की बढ़ी हुई कीमत ने इसे गरीबों की पहुंच से बाहर कर दिया है। इस समस्या का समाधान केवल योजनाओं की संख्या बढ़ाने में नहीं, बल्कि उन्हें सुलभ और सस्ती बनाने में है। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि स्वच्छ ईंधन न केवल उपलब्ध हो, बल्कि उसकी कीमत भी ऐसी हो कि हर तबके की महिलाएं इसका लाभ उठा सकें। साथ ही, स्वच्छ ईंधन के वैकल्पिक विकल्प जैसे सोलर कुकिंग या बिजली से चलने वाले उपकरणों को भी सस्ता और सुलभ बनाना चाहिए। जब तक योजनाएं महिलाओं की वास्तविक आर्थिक स्थितियों को ध्यान में रखकर नहीं बनाई जाएंगी, तब तक स्वच्छ ईंधन का उपयोग महिलाओं के जीवन में अपेक्षित परिवर्तन नहीं ला सकेगा। महिला सशक्तिकरण की यह बुनियादी आवश्यकता केवल आंकड़ों की नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर बदलाव की मांग करती है।