इंटरसेक्शनलजेंडर रसोई के ‘व्यवसाय’ से दूर सदियों से रसोई संभालती औरतें

रसोई के ‘व्यवसाय’ से दूर सदियों से रसोई संभालती औरतें

हमारे पारम्परिक भारतीय समाज में तो रसोई की पूरी व्यवस्था में स्त्री को ही अनिवार्य भूमिका में रखा गया है लेकिन उसी व्यवस्था में जब आय की बात आती है तो पुरुष ज्यादा समझदार ज्यादा विशेषज्ञ बनकर बैठ जाते हैं और सदियों से घर में अनिवार्य रूप से भोजन बनाती स्त्री की भूमिका दोयम दर्जे की हो जाती है।

जब से संसार में ‘परिवार’ नाम की समाजिक इकाई बनी तभी से महिलाएं घर में रसोई के काम को संभाल रही हैं। भारतीय परंपरा में तो जैसे महिलाओं के लिए रसोई का काम एक अनिवार्य और आजीवन चलने वाला सतत काम है। यहां तक कामकाजी महिलाएं जो घर से बाहर काम करने जाती हैं वे रसोई का काम करके फिर शाम को जब काम से लौटती हैं तो फिर रसोई का काम संभालती हैं। लेकिन जब रसोई के व्यवसाय में मालिकाना पद पर रहकर करने की स्थिति होती है तो वह पुरुष प्रधान होता है। मैं गाँव-जवार से लेकर उत्तर भारत के शहरों में देखती हूं कि शादी-ब्याह के आयोजन हो या अन्य तरह के आयोजन उसमें केटरिंग के कार्य में पुरुष प्रधान की भूमिका में होते हैं और महिलाएं मजदूर की भूमिका में काम करती हैं। 

इस व्यवसाय में आप महिलाओं को देखेगें कि वे सब्जी धोना, काटना, आटा गूंथना, साफ-सफाई से लेकर रोटी या पूड़ी बेलना इस तरह के सारे काम करती हैं। वहां पुरुष रसोई की प्रधान भूमिका में मिलेंगे। ज़ाहिर सी बात है कि इसमें ऐसा तो नहीं है कि महिलाएं रसोई के काम करने में पुरुषों से कमतर हैं बल्कि बतौर अभ्यास तो महिलाएं इस कार्य में पुरुषों से कहीं ज्यादा दक्ष हैं लेकिन आखिर क्या कारण होता है अन्य व्यवसायिक कार्यो की तरह रसोई से जुड़े व्यवसाय में भी पुरुष ही प्रधान होता है।

उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले की कल्याण सराय गाँव में रहने वाली निर्मला देवी की उम्र लगभग 45 साल है। वे शादी-ब्याह के अवसरों पर या अन्य आयोजनों में खाना बनाती हैं। उनको केटरिंग के पुरुष मालिक बस मज़दूरी देते हैं जबकि निर्मला देवी  के खाने के स्वाद को लेकर वहां के लोग बहुत तारीफ करते हैं। वह बताती हैं कि वह बचपन से ही खाना बनाने में बहुत एक्सपर्ट हो गई थीं। उनका ब्याह बहुत कम उम्र में हुआ ससुराल में बड़ा संयुक्त परिवार था। ससुराल आकर निर्मला देवी रोज लगभग पचास लोगों का खाना बनाती थीं। बाद में उन्होंने गाँव के प्राइमरी स्कूल में रसोईया की नौकरी मिली। साथ ही वह पार्ट टाइम में आयोजनों में खाना बनाने भी जाने लगीं लेकिन उन्हें हमेशा एक मज़दूर का ही काम मिला क्योंकि प्रबंधन का सारा काम पुरुषों के पास होता है। वे महिलाओं को अपने खाना बनाने के व्यवसाय में शामिल तो करेंगे लेकिन सिर्फ दिहाड़ी के रूप में।

ज़ाहिर सी बात है कि इसमें ऐसा तो नहीं है कि महिलाएं रसोई के काम करने में पुरुषों से कमतर हैं बल्कि बतौर अभ्यास तो महिलाएं इस कार्य में पुरुषों से कहीं ज्यादा दक्ष हैं लेकिन आखिर क्या कारण होता है अन्य व्यवसायिक कार्यो की तरह रसोई से जुड़े व्यवसाय में भी पुरुष ही प्रधान होता है।

गाँव के एक बड़े आयोजन में काम करती महिलाओं से एक बार मैंने इस पर लंबी बातचीत की तो पता चला कि वे हमेशा से इसमें दिहाड़ी मजदूर की ही भूमिका में ही रखा गया है। जबकि काम वह कुक से लेकर सहायिका तक का करती हैं। बातचीत के दौरान वे इस बात को मानने के लिए कतई तैयार ही नहीं थीं कि आयोजनों में रसोई प्रबंधन का काम वे पुरुषों से बेहतर कर सकती हैं। इसके बाद मैं कई अन्य आयोजनों में काम करती अलग-अलग स्त्रियों से लगातार इसपर बात करती रही लेकिन कहीं भी मुझे महिलाएं इस कार्य में प्रधान भूमिका में नहीं काम करती नहीं मिलीं। बनारस के एक महिला मज़दूर महिला संगठन की महिलाओं से इस विषय पर बातचीत करते हुए पाया कि वहां भी इस व्यवसाय में काम करती महिलाओं की यही स्थिति है।

जिस तरह से समाज बदला महिलाओं की स्थिति में जो कुछ बदलाव आया वहां स्त्रियां कुछ हद तक इस कार्य में पुरुष वर्चस्व को समझने लगी हैं। वे काफी हद तक जानने लगी हैं इस कार्य में उनका दोहन होता है लेकिन वे सब स्त्रियां जैसे हताश होकर कहतीं हैं ये काम पुरुषों का है। उनको लगता है कि प्रबंधन और ठेके का काम बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है और वे इसे नहीं संभाल सकतीं। पितृसत्तात्मक समाज की कंडीशनिंग के कारण उनकी हिम्मत ही नहीं बन पा रही है कि वे इसमें प्रधान भूमिका में रहकर काम करें। जिस समाज मे प्रतिरोधी चेतना बहुत आगे नहीं जा पाती वह समाज इस तरह के बहुत से अकारण वर्जनाओं से जकड़ा रहता है।

जिस तरह से स्त्रियों के श्रम उनकी गुणवत्ता को समाज मे आंका जाता तो इससे एक ये प्रश्न भी उठता है कि क्या अगर स्त्रियां इस तरह के व्यवसाय में उतरती हैं अर्थात उनके मालिकाने में सारा प्रबंधन हो रहा है तो समाज में लोग किसे वरीयता देंगे।

पूरे उत्तर भारत में केटरिंग के इस व्यवसाय में महिलाओं की लगभग यही है जबकि महाराष्ट्र के कुछ जिलों में शहरों में ये बदलाव साफ देख सकते हैं। महाराष्ट्र के नागपुर शहर के पारडी क्षेत्र में रहने वाली शकुंतला बाई पहले अपने गाँव में खेतिहर मजदूर थीं। ब्याह के बाद शहर आकर उन्होंने देखा कि घर की आर्थिक स्थिति काफी कमज़ोर थी। शकुंतला बाई बचपन से अपने घर में खाना बनाने का कार्य करतीं थीं। खाना बनाने में उनकी सुरुचि और अभ्यास भी था तो उन्होंने उसी को अपना कार्यक्षेत्र चुना। शुरुआत में सबसे पहले वे एक स्कूल में खाना बनातीं थीं फिर बाद में उन्होंने कुछ महिलाओं को लेकर एक स्वयं सहायता समूह बनाया। आगे चलकर उन्हीं में से कुछ महिलाओं के लेकर अपना एक समूह बनाकर वो आयोजनों में खाना बनाने लगीं पहले तो आयोजनों के ठेके मिलने में उन्हें दिक्कत का सामना करना पड़ा। तब उन्होंने बहुत छोटे-छोटे घरेलू आयोजनों में खाना आदि बनाने का कार्य किया। फिर इस तरह लोगों का उनपर विश्वास बना उनके समूह पर विश्वास बना और वे बड़े-बड़े आयोजनों के ठेके लेकर केटरिंग का अपना व्यवसाय करने लगीं। 

उत्तर भारत में महिलाओं की स्थिति खासकर महिला मजदूरों की स्थिति पुरुषों की अपेक्षा इसलिए भी कमज़ोर है कि यहां स्त्री अधिकारों को लेकर बड़े आंदोलन नहीं हुए। अपने अधिकारों को लेकर यहां स्त्रियों में वो जागरूकता नहीं बन पाई जो महिलाओं की स्थिति में जो जागरूकता महाराष्ट्र जैसी जगहों पर बन पाई। हालांकि, इस व्यवसाय में वहां भी पुरुषों का वर्चस्व अधिक है लेकिन उन क्षेत्रों में अब कई महिलाएं इस व्यवसाय में दिखने लगीं हैं और बहुत ज़िम्मेदारी से वे अपनी भूमिका का निर्वहन भी कर रही हैं। 

जिस तरह से समाज बदला महिलाओं की स्थिति में जो कुछ बदलाव आया वहां स्त्रियां कुछ हद तक इस कार्य में पुरुष वर्चस्व को समझने लगी हैं। वे काफी हद तक जानने लगी हैं इस कार्य में उनका दोहन होता है लेकिन वे सब स्त्रियां जैसे हताश होकर कहतीं हैं ये काम पुरुषों का है।

प्रतापगढ़ जिले के पट्टी तहसील की रहने वाली अंजू स्नातक के अंतिम वर्ष की छात्र हैं। अंजू की माँ मीरा देवी निर्माण मजदूर हैं। अंजू कहती हैं, ” सिर्फ़ रसोई के व्यवसाय में ही क्यों समाज हर तरह के व्यवसायिक कामों महिलाओं की यही स्थिति है। मेरी माँ निर्माण के काम में बहुत एक्सपर्ट हैं लेकिन उन्हें दिहाड़ी भी पुरुष मजदूर जितनी नहीं मिलती। गाँव के लिहाज से तो यहां स्त्री कोई भी काम पुरुषों की तरह नहीं कर सकती। अगर आप काम करना चाहें तो आप पर बहुत सारे आरोप लगा दिए जाते हैं। पहली बात तो इन कार्यों में समाज स्त्री पर विश्वास नहीं करेगा कि वह पुरुषों से बेहतर काम कर सकती है। यहां कोई भी ऐसे कामों में स्त्री का सहयोग नहीं करता।

अगर समाज में स्त्री को कमतर देखने की दृष्टि को देखा जाए तो इस पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को स्थापित होना आज भी एक कठिन संघर्ष है। प्रश्न सिर्फ गवईं समाज का नहीं है बड़े- बड़े रेस्टोरेंट आदी में भी मुख्य शेफ में ज्यादातर पुरुषों का ही नाम आता है। समाज में आय के साधन के जो काम हैं उसमें प्रधान भूमिका में पुरुष दिख जाते हैं। जिस तरह से स्त्रियों के श्रम उनकी गुणवत्ता को समाज मे आंका जाता तो इससे एक ये प्रश्न भी उठता है कि क्या अगर स्त्रियां इस तरह के व्यवसाय में उतरती हैं अर्थात उनके मालिकाने में सारा प्रबंधन हो रहा है तो समाज में लोग किसे वरीयता देंगे। जितना अभी तक बड़ी आबादी में स्त्री को लेकर संदेह उससे तो यही तय होता है कि वे पुरुषों को वरीयता देगें।

हमारे पारम्परिक भारतीय समाज में तो रसोई की पूरी व्यवस्था में स्त्री को ही अनिवार्य भूमिका में रखा गया है लेकिन उसी व्यवस्था में जब आय की बात आती है तो पुरुष ज्यादा समझदार ज्यादा विशेषज्ञ बनकर बैठ जाते हैं और सदियों से घर में अनिवार्य रूप से भोजन बनाती स्त्री की भूमिका दोयम दर्जे की हो जाती है।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content