इंटरसेक्शनलजेंडर रसोई, पितृसत्ता और गोल रोटियां बनाने का श्रम

रसोई, पितृसत्ता और गोल रोटियां बनाने का श्रम

रोटियों और उन्हें बनानेवाली महिलाओं के बारे में एक अजीब सी नियमितता है। इस प्रकार, रोटी बनाना "कुछ ऐसा है जो कोई भी आसानी से कर सकता है" से लेकर "आप छोड़ो, मैं करूंगी" तक घूमता रहता है। रोटियां बनाना भारतीय पितृसत्तात्मक समाज की अपेक्षाओं के सामने आत्मसमर्पण करना था और मैंने इतने लंबे समय तक इसका विरोध किया।

अमरीकी शो ‘क्वीर आई’ में जाने-माने फैशन डिज़ाइनर टैन फ़्रांस के रोटी बनाने के ट्यूटोरियल पर यह टॉप कमेंट है: “मेरी माँ को कितना गुस्सा आएगा जब उन्हें पता चलेगा कि मैंने टैन फ़्रांस की वजह से रोटियां बनाना शुरू की थीं न कि उनकी वजह से।” फ्रांस, जो कि ब्रिटिश-पाकिस्तानी परिवेश से आते हैं, कबूल करते हैं कि एक दक्षिण एशियाई परिवार में लड़के के लिए रोटी बनाना सीखना असाधारण था। मैंने किसी फ़ुर्सत की दोपहर को अपने कंबल में सोते हुए यूट्यूब पर वह अमेरिकी वीडियो इसलिए देख लिया होगा क्योंकि मुझे दिख गया था। मुझे अचानक फिर उस वीडियो का ख़्याल आया जब मैं पसीने से लैस चकले पर दोहरी हुई रोटियां बेल रही थीं, दूसरी ओर चूल्हे पर तवे का लोहा गर्म हो रहा था। 

दफ़्तरी रोज़गार से महीने भर का वक़्फ़ा मिला था। उस महीने की शुरुआत में मैंने माँ से मज़ाक में कहा, “सोचो अगर आप मुझे रोटियां नहीं बनाने दोगी तो मेरे ससुराल वाले क्या कहेंगे।” इस बात पर हम दोनों खिलखिला उठे थे और इस तरह मैं उस रसोई में खड़ी हुई जिससे मुझे बरी कर दिया गया था। मैं उस बिन दरवाज़े की रसोई में अपना घर करना चाहती थी। हर दिन सुबह उठकर, मैं अपने कानों में ब्लूटूथ इयरफ़ोन ठूंसती, कोई लेक्चर या पॉडकास्ट लगाती और फिर रसोई में पक रही अलग-अलग चीज़ों के बीच अपना हाथ आज़माती। माँ बार-बार किचन में झांकती और ‘कम से कम’ रोटियां बनाने की दरख़्वास्त करतीं। मैं चिढ़ने का अभिनय करके उन्हें कमरे में आराम करने के लिए कहती। अपने नये संकल्प में, मैं असुरक्षित और नाजुक महसूस कर रही थी। मैं अभी निरीक्षण के लिए तैयार नहीं थी। इस प्रकार, जब मेरी रोटी भुरभुरी और पापड़ जैसी बनती, तो मैं माँ से सलाह लेने के बजाय छिपकर कुक विद मनाली के सुझावों को देखती।

“गोल रोटियां बनाना वास्तव में बहुत कठिन है”, फ़्रांस वीडियो में स्वीकार करते हैं। जब मैं अपनी गोल रोटी में भाप भरते हुए देखती तो मन में एक अपूर्व आनंद की अनुभूति उठती। मैंने गोल रोटियां बनाना तब शुरू किया जब मैंने उनकी गोलाई की परवाह करना बंद कर दिया। मैं इसे गोल बनावट देने के लिए कटोरी का उपयोग नहीं करती, जिसे यूं भी औपचारिक रोटी बनाने की प्रक्रिया में ठीक नहीं माना जाता। जैसा कि कार्थिगा का कमेंट था, “गोल रोटियां न बनाना पितृसत्तात्मक अपेक्षाओं को ललकारने का एक शानदार तरीका है।”

लेकिन जब रोटी बनाने के बारे में बात की जाती  है तो उसे कोई तुच्छ काम माना जाता है। मेरे आसपास किसी भी महिला ने कभी भी बहुत खराब रोटी नहीं बनाई। मुझे अक्सर आश्चर्य होता है कि उन्होंने ये सब कब सीखा? मैं जवाब भी जानती हूं, पूरे जीवन।

जब मैं बड़ी हो रही थी, तो मुझसे रसोई में खटने की उम्मीद नहीं की गई थी। मेरी भी आकांक्षाएं अलग थीं। मैं जो अपना ख़ुद का कमरा चाहती थी, अपना स्पेस चाहती थी। फिर जब कुछ भी अपना नहीं रहा तो मैंने इस संस्था में प्रवेश लेने का निर्णय लिया। रसोई जो मेरी पूर्वजाओं की विरासत है, मेरा मातृक कर्म है। मुझे लगता था कि अपने परिवार को भ्रमित करना एक अच्छा तरीका होगा। मैं जताना चाहती थी कि देखो मैं कितनी उत्सुकता से घर संभालना चाहती हूं (ऐसा नहीं है कि मैं हिंदी टीवी शो की पांच भुजावाली देवी थी)। साथ ही, मैंने वैवाहिकता के आधिपत्य के खिलाफ अपनी मुखर आलोचना को बरकरार रखा।

घर की रसोई में बिताए गए उन चिंतनशील घंटों ने मुझे जेंडर और घरेलू श्रम के बारे में बहुत कुछ सिखाया। रोटी के साथ कई ज़मानों का भार जुड़ा हुआ है। जब मैंने रोटियां बनानी शुरू कीं तो मुझे एहसास हुआ कि यह एक हुनर है। इसको सीखने-समझने में कुछ वक़्त, बहुत अभ्यास और धीरज लगेगा। लेकिन जब रोटी बनाने के बारे में बात की जाती  है तो उसे कोई तुच्छ काम माना जाता है। मेरे आसपास किसी भी महिला ने कभी भी बहुत खराब रोटी नहीं बनाई। मुझे अक्सर आश्चर्य होता है कि उन्होंने ये सब कब सीखा? मैं जवाब भी जानती हूं, पूरे जीवन। रोटियों और उन्हें बनानेवाली महिलाओं के बारे में एक अजीब सी नियमितता है। इस प्रकार, रोटी बनाना “कुछ ऐसा है जो कोई भी आसानी से कर सकता है” से लेकर “आप छोड़ो, मैं करूंगी” तक घूमता रहता है। रोटियां बनाना भारतीय पितृसत्तात्मक समाज की अपेक्षाओं के सामने आत्मसमर्पण करना था और मैंने इतने लंबे समय तक इसका विरोध किया।

जब छोटी थी तो अक्सर आदमियों को रोटी का मज़ाक उड़ाते हुए देखा, शिकायतें करते देखा, कभी रोटी समय से नहीं बनी, कभी उसका आकार ठीक नहीं था, कितने आदमियों ने उन रोटियों के लिए थालियां फ़ेंक दीं, कई ने थालियां छोड़ दीं। 

रोटी, कपड़ा और मकान के साथ, भारतीय जरूरत की बुनियादी संरचना का एक अभिन्न हिस्सा है। यह हमारे देश में लैंगिक भूमिकाओं और राष्ट्रीय पहचान की धुरी पर स्थित है। मेरे परिवार की बड़ी-बूढ़ी महिलाएं अपने जवान बेटों की बहुओं से गर्म रोटियों की उम्मीद करती हैं। उस रोटी-श्रम के बदले में जो सालों उन्होंने अपने बेटों में लगाया था। एक नवविवाहित बहन अपने ससुराल से लौटकर हमें कई सौ रोटियों के बारे में बताती है जो वह खेत में काम करनेवाले घर के आदमियों के लिए बनाती। मैं कभी अपने रोटी करियर में आगे भी पहुंची, तो भी मैं पितृसत्ता के एहसान फ़रामोश प्रतीकों के लिए सौ रोटियां नहीं बनाऊंगी। रोटी बनाने की शारीरिक क्रिया महिलाओं को बदल देती है। एक प्रकार की सुन्नता, थकावट, ठंडक उनके जिस्म में बैठ जाती है। मुझे याद है कि एक भाभी ने एक बार शिकायती अंदाज़ में कहा था, “दीदी, मैं कुछ भी फैंसी इसलिए नहीं पकाती क्योंकि अंत में वे रोटी की भी उम्मीद करते हैं।” एक उत्तर भारतीय घर में आप रोटियों से दूर जाएंगे, तो क्या खाएंगे?

मुझे औपचारिक रूप से रोटी-श्रम में दीक्षित होना याद नहीं है लेकिन यह धीरे-धीरे हुआ। बचपन में माँ से साये की तरह लगी रहती थी, मुझे बर्तनों की टोकरी से चिमटा (प्रेमचंद की ईदगाह से परिवर्तनकारी चरित्र) खोजने का काम दिया जाता। जल्द ही, मेरा प्रमोशन हुआ और मैं आटे की लोई बनाने लगी। कुछ और बड़ी हुई तो माँ को परेशान करने की कीमत पर भी रसोई में कई उलटे-सीधे प्रयोग किए। लेकिन घर छोड़ने से पहले रोटी बनाने की साधारण उम्मीद से मैं ग़ाफ़िल ही रही। जब हॉस्टल गई तो घर की रोटी की अहमियत समझ आई। मैं हॉस्टल के मेस में बैठकर घोषणा करती कि अब से मैं बस चावल ही खाऊंगी। छुट्टियों में घर आती तो माँ की गर्म, गोल, फूली हुई रोटियां पातीं। माँ हमेशा भाई के लिए गर्मागर्म रोटियां बनाने के लिए तैयार रहती। हम एतराज़ करते तो वह दलील देतीं, “वह कुछ कहता नहीं लेकिन जब गर्म होती है तो एक रोटी ज़्यादा खा लेता है।”

रोटियों और उन्हें बनानेवाली महिलाओं के बारे में एक अजीब सी नियमितता है। इस प्रकार, रोटी बनाना “कुछ ऐसा है जो कोई भी आसानी से कर सकता है” से लेकर “आप छोड़ो, मैं करूंगी” तक घूमता रहता है। रोटियां बनाना भारतीय पितृसत्तात्मक समाज की अपेक्षाओं के सामने आत्मसमर्पण करना था और मैंने इतने लंबे समय तक इसका विरोध किया।

रिश्तेदारों के घर जाती तो भाइयों के साथ के लिए एक रोटी ज़्यादा खा लेती, भाभियों द्वारा निर्विवाद रूप से दिए जानेवाले मुफ्त रोटी-श्रम का लाभ उठाते हुए। साथ रहनेवाली लड़कियों की नेकी के प्रति अपना आभार जताने के लिए और उनके साथ खाना बनाने के लिए मैंने ठीक से रोटी बनाना सीखने का निर्णय लिया। मेरे परिवार की महिलाएं अक्सर बिना हवादार रसोई में खड़ी होतीं, उनका सिंदूर और पसीना उनकी नाक पर लाल रेखा खींचता। उनके घुटने और पीठ अब किसी न किसी रोग से ग्रस्त थे। जब छोटी थी तो अक्सर आदमियों को रोटी का मज़ाक उड़ाते हुए देखा, शिकायतें करते देखा, कभी रोटी समय से नहीं बनी, कभी उसका आकार ठीक नहीं था, कितने आदमियों ने उन रोटियों के लिए थालियां फ़ेंक दीं, कई ने थालियां छोड़ दीं। 

ये शायद वे स्मृतियां थीं, रोटी श्रम के प्रति अश्लील एहसान फ़रामोशी। उस पीढ़ी ने जो ज़हर का घूंट पिया उसकी कड़वाहट आज भी मेरी जीभ पर है। मैं जानती हूं कि हम रसोई से क्यों निकले थे। जब भी इसके बारे में सोचती हूं तो कांप जाती हूं, यूं भी नहीं कि सब बीत ही गया। मैं रोटियों के बारे में पुरुषों से कोई भी अवांछित मज़ाक स्वीकार नहीं कर सकती। मेरे ज़ख्म पूरी तरह भरे नहीं हैं। यहां तक कि मां के हाथ की रोटी के इर्द-गिर्द बुनी हुई नेकनीयत रूमानियत भी मुझे गुस्सा दिलाती है। अब मेरी सहेलियां, बहनें और भतीजियां रसोई में नहीं जाना चाहतीं।

मैं उस रसोई में फिर अपनी इच्छा से खड़ी हो गई हूं। श्रम और पितृसत्ता के बारे में इतना कहने के बावजूद, मुझे पता है कि कमतरी के एहसास से मैं आज़ाद नहीं हूं। सही रोटियां न बना पाने की विफलता। जब रोटियां ठीक नहीं बनतीं, उन दिनों, मैं रोटी के डब्बे से सबसे कम सफल रोटी खोजकर अपनी थाली में रख लेती हूं और सबसे अच्छी बनी रोटियां अपने पिता की थाली में रख देती हूं।

एक भतीजी कहती है, “बुआ, जब वह मेरे भाई से ऐसा करने के लिए नहीं कहते हैं, तो मैं क्यों करूँ?” एक बहन बताती है, “दीदी, यदि आप एक बार रसोई में घुस गई तो फिर सब शादी की ही बात होती है।” इस पर मैं कहती हूं, “मैं समझ सकती हूं।” मैं समझ तो सकती ही हूं जिस क्षण मैंने रसोई में प्रवेश किया, मुझे पता था कि यह मेरी है। मैंने जब भी रोटी बनाई, मैंने अपनी दादी-नानी के हाथों को आदर से याद किया। रसोई में उनके लंबे करियर के नाम एक साधारण सम्मान। कोई मुझसे क्यों कहे कि मेरी पूर्वजाओं ने जो जीवनभर किया उसमें कोई कौशल नहीं है या उसका कोई आर्थिक मूल्य नहीं है? मैंने इससे बहुत ज़्यादा सामाजिक और आर्थिक विज्ञान पढ़ा है। 

पीढ़ी दर पीढ़ी निखारी गई मेरी पूर्वजाओं की विद्या को मैं आधुनिकता के भरोसे कैसे शून्य होने दूं? खाना बनाना, मेरा मानना है कि यह केवल एक जीवन कौशल या शौक नहीं है बल्कि श्रम है। इस प्रकार मैं उस रसोई में फिर अपनी इच्छा से खड़ी हो गई हूं। श्रम और पितृसत्ता के बारे में इतना कहने के बावजूद, मुझे पता है कि कमतरी के एहसास से मैं आज़ाद नहीं हूं। सही रोटियां न बना पाने की विफलता। जब रोटियां ठीक नहीं बनतीं, उन दिनों, मैं रोटी के डब्बे से सबसे कम सफल रोटी खोजकर अपनी थाली में रख लेती हूं और सबसे अच्छी बनी रोटियां अपने पिता की थाली में रख देती हूं।

इटालियन नारीवादी सिल्विया फेदरेची ‘वेजेस अगेंस्ट हाउसवर्क’ (गृहकार्य का मेहनताना) में कहती हैं, “हम इस सार्थक प्रयास को ‘काम करनेवाली महिला’ के लिए छोड़ देते हैं, वह महिला जो अपने उत्पीड़न से एकता और संघर्ष की शक्ति के माध्यम से नहीं, बल्कि शोषण की शक्ति के माध्यम से, दमन करने की शक्ति के माध्यम से बच जाती है। आमतौर ये शक्ति अन्य महिलाओं पर ही प्रयुक्त होती है।” क्या यह एक घरेलू कामगार का सस्ता श्रम है या परिवार की अन्य महिलाओं का बेहिसाब श्रम है? वास्तव में एक स्वतंत्र, कामगार महिला किस हवाले से बनती है? मेरे संवैधानिक कानून के प्रोफेसर ने एक बार क्लास में कहा था, “रोटी आपको स्वतंत्र बनाती है” लेकिन इसका क्या मतलब है?


यह लेख मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखा गया था, पढ़ने के लिए क्लिक करें।

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