इंटरसेक्शनलहिंसा आखिर क्यों घरेलू हिंसा को सही ठहराती हैं महिलाएं?

आखिर क्यों घरेलू हिंसा को सही ठहराती हैं महिलाएं?

घरेलू हिंसा को सही ठहराने से इसका एक चक्र बन जाता है, अर्थात जिस घर में घरेलू हिंसा सामान्यीकृत कर दी जाती है उस घर के बच्चे इसे उसी रूप में आत्मसात कर लेते हैं। भविष्य में गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर वे भी उसी प्रकार के व्यवहारों को दोहराते हैं, जिसे जैसा वे अपने माता-पिता को करते हुए देखते हैं। घरेलू हिंसा से ग्रस्त घरों के माहौल में एक क़िस्म का तनाव बना रहता है।

एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के लिए घरेलू हिंसा को लेकर 18 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों की महिलाओं का सर्वेक्षण किया गया। उनसे सवाल किया गया कि क्या आप पति द्वारा महिलाओं को पीटने को सही मानती हैं? सर्वेक्षण के नतीजों में इन 18 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में से 14 की महिलाओं ने इस सवाल का जवाब ‘हाँ’ में दिया। हम अक्सर इस तरह के सर्वेक्षणों के नतीजों से दो-चार होते हैं और हर बार हमें यही नज़र आता है कि पत्नियां खुद पति द्वारा पिटने को सही ठहराती हैं। लेकिन जब भी महिलाओं द्वारा इसे सही ठहराने पर बात होती है, तो अक्सर उन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारणों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिनकी वजह से महिलाएं खुद के साथ और दूसरी महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा होने को सही ठहराने लगती हैं। 

घरेलू हिंसा को सही ठहराने पर क्या कहती हैं महिलाएं 

घरेलू हिंसा के दौरान एक महिला के साथ उसका साथी और परिवार के सदस्यों द्वारा शारीरिक हिंसा के अलावा, अपमानजनक टिप्पणियां करना, साथी के विचारों को खारिज करना, उसे नजरअंदाज करना, सामाजिक दायरे में उसके प्रति तिरस्कारपूर्ण और अपमानजनक व्यवहार करना, उसकी बुद्धिमत्ता पर टिप्पणी करना और आर्थिक रूप से उसको कमजोर करना भी दुर्व्यवहार की श्रेणी में आते हैं। महिलाओं द्वारा घरेलू हिंसा को सही ठहराने के पीछे क्या वजहें होती हैं। इसे समझने के लिए फेमिनिज़म ऑफ इंडिया ने कुछ महिलाओं से बात की और घरेलू हिंसा को सही ठहराने पर उनकी क्या सोच है इसे जानने की कोशिश की।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के 2019-2021 के अनुसार, 18 से 49 वर्ष की आयु वर्ग की 29.3 प्रतिशत विवाहित भारतीय महिलाओं ने घरेलू या यौन हिंसा का अनुभव किया है; वहीं, 3.1 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं ने अपनी गर्भावस्था के दौरान शारीरिक हिंसा का सामना किया है।

आर्थिक निर्भरता है इसकी जड़ 

घरेलू हिंसा के बारे में बात करने वाली तमिलनाडु की रहनेवाली महालक्ष्मी कहती हैं, “महिलाएं, पति पर अपनी आर्थिक निर्भरता की वजह से ऐसा कहती हैं। इसके अलावा वे बचपन से ही अपने आसपास महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता हुआ देखती हैं, जिसकी वजह से उनके लिए यह एक सामान्य सी बात हो जाती है। हमारे समाज में महिलाओं को परिवार की तरफ से भी ज़्यादा समर्थन नहीं मिलता, अगर वे दुर्व्यवहार की बात अपने घरों में करती भी हैं तो उनसे यही कहा जाता है कि वे इसे बर्दाश्त करें। इसके अलावा कई बार छोटे बच्चे होने पर और अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी भी महिलाएं अपने ख़िलाफ़ हो रहे दुर्व्यवहार को सही ठहराती है।”

दुर्व्यवहार करनेवालों का एक पैटर्न 

बैंगलोर की रहनेवाली स्नेह सुब्रह्मण्यम कहती हैं, ‘दुर्व्यवहार करनेवाले लोगों में एक पैटर्न होता है, उनके दुर्व्यवहार की शुरुआत अक्सर अत्यधिक प्रेम प्रदर्शन से होती है। इसके तहत वे अपने पार्टनर को यह महसूस करवाते हैं कि वह उनके लिए सबसे खास है। इसे ही लव बॉम्बिनग कहा जाता है। दुर्व्यवहार करनेवाले दुर्व्यवहार के बाद भी दोबारा ऐसा प्रेम प्रदर्शन करने दुर्व्यवहार झेल रही महिला को यह एहसास दिला देते हैं कि उनके दुर्व्यवहार की वजह महिला का बर्ताव है। वह महिला खुद भी इस बात को सही मानने लगती है कि ज़रूर उसने कोई ग़लती की होगी। अगर उसे समझ भी आता है कि उसके साथ दुर्व्यवहार हो रहा है तो भी वह अपनी ही सोच पर शक करने लगती है और दुर्व्यवहार को सही ठहराने लगती है।

महिलाएं किसी भी प्रकार की हिंसा को सही न ठहराएं और उसका सामना करना सीख सकें, इसके लिए ज़रूरी है कि उन्हें न केवल हिंसा के प्रकारों से अवगत कराया जाए, बल्कि उनका आर्थिक सशक्तिकरण भी किया जाए।

“जैसा भी है तुम्हारा पति है”

बैंगलोर की रहने वाली चित्रकार श्वेता का कहना है, “तमिल में एक कहावत है कि तुम्हारा पति चाहे पत्थर जैसा हो, या फिर घास जैसा, तुम्हें उसे वैसे ही स्वीकार करना होगा। इस तरह की सोच कि पत्नी अपने बिगड़ैल पति के साथ अच्छा सलूक करके उसे सुधार सकती है। इन्हीं सब धारणाओं की वजह से पत्नियां, पति के दुर्व्यवहार को न सिर्फ बर्दाश्त करती हैं, बल्कि इसे सही भी साबित करती हैं।” 

क्या कहती हैं काउंसलर? 

दिल्ली की रहनेवाली काउंसलर पल्लवी अग्रवाल कहती हैं, “घरों में महिलाओं के साथ होनेवाला दुर्व्यवहार आमतौर पर उनके पुरुष पार्टनर द्वारा किया जाता है क्योंकि उनके पास ताक़त होती है। दुख की बात यह है कि जब कोई महिला दुर्व्यवहार का सामना करती है, तो समाज उसी की ओर उंगली उठाता है, जिस वजह से वह महिला खुद भी यह मानने लगती है कि ज़रूर उसकी कोई ग़लती रही होगी।” वह आगे कहती है कि इस दुर्व्यवहार के जारी रहने में बच्चे एक बड़ी भूमिका निभाते हैं क्योंकि वे नहीं चाहतीं कि उनके बच्चों को पिता की अनुपस्थिति का सामना करना पड़े। इन्हीं सब वजहों से वे यह स्थिति को जस का तस स्वीकार करने लगती हैं और यह सोचने लगती हैं कि इसे बदलने के लिए वे कुछ नहीं कर सकतीं।” 

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

देश में घरेलू हिंसा के मामले

देश में घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत 4.7 लाख से अधिक मामले लंबित है। 2005 में पारित महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम (PWDV) का उद्देश्य घरेलू हिंसा का सामना कर रहीं महिलाओं के लिए सुरक्षित आश्रय और संरक्षण अधिकारियों की व्यवस्था सुनिश्चित करना था। आंकडों और सामाजिक स्थिति से पता चलता है कि कि घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना महिलाओं के कितना मुश्किल फैसला होता है। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में घरेलू हिंसा को घर का मामला कह कर टाल दिया जाता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के 2019-2021 के अनुसार, 18 से 49 वर्ष की आयु वर्ग की 29.3 प्रतिशत विवाहित भारतीय महिलाओं ने घरेलू या यौन हिंसा का अनुभव किया है; वहीं, 3.1 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं ने अपनी गर्भावस्था के दौरान शारीरिक हिंसा का सामना किया है। यह आंकड़ा केवल उन मामलों का है जो महिलाओं द्वारा रिपोर्ट किए गए हैं; अक्सर कई ऐसे मामले होते हैं जो कभी पुलिस तक नहीं पहुंच पाते।

सही ठहराने के नतीजे

घरेलू हिंसा को सही ठहराने से इसका एक चक्र बन जाता है, अर्थात जिस घर में घरेलू हिंसा सामान्यीकृत कर दी जाती है उस घर के बच्चे इसे उसी रूप में आत्मसात कर लेते हैं। भविष्य में गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर वे भी उसी प्रकार के व्यवहारों को दोहराते हैं, जिसे जैसा वे अपने माता-पिता को करते हुए देखते हैं। घरेलू हिंसा से ग्रस्त घरों के माहौल में एक क़िस्म का तनाव बना रहता है। ऐसे माहौल में रहनेवाले व्यक्तियों को पता तक नहीं चलता कि वे कब हिंसा के वाहक बन गए, उनमें एक क़िस्म की आक्रामकता घर कर जाती है। कभी-कभी ऐसी आक्रामकता उनके व्यवहारों में सीधे झलकती है, तो कभी वे निष्क्रिय आक्रामकता का प्रदर्शन करते हैं। उन्हें स्वस्थ रिश्ते बनाने में काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यही नहीं उन्हें कई क़िस्म की मानसिक परेशानियां भी हो जाती हैं। 

तमिलनाडु की रहनेवाली महालक्ष्मी कहती हैं, “वे पति पर अपनी आर्थिक निर्भरता की वजह से ऐसा कहती हैं। इसके अलावा वे बचपन से ही अपने आसपास महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता हुआ देखती हैं, जिसकी वजह से उनके लिए यह एक सामान्य सी बात हो जाती है।”

महिला सशक्तिकरण से होगा इसका समाधान 

महिलाएं किसी भी प्रकार की हिंसा को सही न ठहराएं और उसका सामना करना सीख सकें, इसके लिए ज़रूरी है कि उन्हें न केवल हिंसा के प्रकारों से अवगत कराया जाए, बल्कि उनका आर्थिक सशक्तिकरण भी किया जाए। एक आर्थिक रूप से सशक्त महिला के पास फिर भी हिंसा के चक्र से बाहर निकलने के विकल्प होते हैं। लेकिन आर्थिक सशक्तिकरण के साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि उन्हें वह माहौल मिलें, जहां वे इसके बारे में बात कर सकें और इसका समाधान सोच सकें। साथ ही एक समाज के तौर पर हमें भी यह संवेदनशीलता बरतनी होगी कि किसी समस्याजनक रिश्ते से बाहर आई महिला को ‘घर तोड़नेवाली’ जैसे ताने न सुनाए जाएं। साथ ही मायके पक्ष के लोगों को भी विवाहित बेटियों के प्रति संवेदनशीलता बरतनी होगी। ‘जिस घर में बेटी की डोली जाती है, वहां से उसकी अर्थी बाहर आती है’ जैसी घिसी-पिटी उक्तियों को चुनौती देनी होगी। उन्हें अपनी बेटियों को इतना सशक्त करना होगा कि उनके पास समस्याजनक रिश्ते से बाहर आकर घर लौटना या फिर अपना एक नया आशियाना बनाना उनके लिए संभव हो सके। 


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