भारत में जलवायु परिवर्तन से आज कोई भी अछूता नहीं है। सिर्फ नई दिल्ली ही नहीं, बल्कि देश के सभी राज्य गंभीर परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहे हैं। हालांकि अक्सर घर से बाहर काम कर रहे लोगों विशेषकर महिलाओं और बच्चों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के विषय पर चर्चाएं होती हैं। लेकिन, हम उन लोगों को खासकर महिलाओं को भूल जाते हैं, जो घर पर ही रहती हैं या दूसरे के घरों में काम करती हैं या घर से ही काम करती हैं। संयुक्त राष्ट्र महिला द्वारा COP28 में जारी की गई एक रिपोर्ट बताती है कि 2050 तक जलवायु परिवर्तन के कारण 158 मिलियन से अधिक महिलाएं और लड़कियां गरीबी में चली जाएंगी और 232 मिलियन को खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ सकता है। तूफ़ान, बाढ़ या गर्मी जैसे चरम मौसम की स्थितियां बढ़ रही हैं, जिससे दुनिया भर में हज़ारों लोगों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। वहीं दुनिया भर में महिलाएं घरों में पुरुषों की तुलना में ज्यादा अवैतनिक कामों का बोझ ज्यादा उठाती हैं। वैश्विक स्तर पर महिलाएं अवैतनिक देखभाल और घरेलू कामों में पुरुषों की तुलना में 2.8 घंटे ज़्यादा समय बिताती हैं।
मौजूदा स्थिति के अनुसार, अवैतनिक देखभाल पर महिलाओं और पुरुषों द्वारा बिताए जाने वाले समय के बीच का अंतर थोड़ा कम हो जाएगा। लेकिन 2050 तक, वैश्विक स्तर पर महिलाएं अभी भी पुरुषों की तुलना में अवैतनिक देखभाल कामों पर 9.5 फीसद ज़्यादा समय या प्रतिदिन 2.3 घंटे ज़्यादा खर्च करेंगी। अक्सर महिलाओं पर घरेलू काम जैसे साफ पीने के पानी का इंतेज़ाम, घरों में पालतू पशु, बूढ़े-बुजुर्ग और बच्चों की देखभाल जैसे कामों की जिम्मेदारी होती है। चरम मौसम में उनका रोजाना का मुश्किल भरा समय की मांग करता काम और भी थका देने वाला और समय लेने वाला हो सकता है। हाल के अध्ययनों से पता चला है कि भारतीय महिलाएं पुरुषों की तुलना में अत्यधिक तापमान के प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं, जिससे स्वास्थ्य, आर्थिक अवसर और शिक्षा तक पहुंच में मौजूदा लैंगिक असमानताएं और अधिक गंभीर हो गई हैं।
मुझे कम से कम सुबह 5.30 बजे घर से निकलना पड़ता है। चूंकि मुझे घर के कुछ काम निपटा कर ही काम पर जाना होता है, इसलिए मुश्किल और ज्यादा होती है। ठंड के दिनों में लेट होता है और नियोक्ता गुस्सा करते हैं।
कैसे चरम तापमान कर रहा है महिलाओं को प्रभावित
डाउन टू अर्थ में छपी खबर में सिग्निफिकेंस मैगज़ीन में प्रकाशित एक विश्लेषण के अनुसार, 2005 से, डेटा ने भारत में महिलाओं के बीच गर्मी से संबंधित मौतों में धीरे-धीरे वृद्धि हुई है। उन्होंने ग्लोबल बर्डन ऑफ़ डिसीज़ (GBD) और भारत के मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के दर्ज 1990-2019 के दैनिक तापमान डेटा (औसत, अधिकतम और न्यूनतम) से मृत्यु दर और जनसंख्या डेटा निकाला। उनके विश्लेषण से पता चला कि पुरुषों में तापमान से जुड़ी कुछ वृद्धि के साथ मृत्यु दर में धीरे-धीरे कमी आई, जबकि महिलाओं के लिए, 2005 से मृत्यु दर में धीरे-धीरे वृद्धि देखी गई। वर्ष 2000 से 2010 तक पुरुषों के लिए मृत्यु दर में प्रतिशत में तुलनामूलक परिवर्तन में 23.11 प्रतिशत की कमी आई, और साल 2010 से 2019 तक 18.7 प्रतिशत की कमी आई। वहीं महिलाओं के लिए मृत्यु दर में प्रतिशत परिवर्तन में साल 2000 से 2010 तक 4.63 प्रतिशत और साल 2010 से 2019 के बीच 9.84 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
चरम तापमान में काम करने की समस्या पर बात करते हुए पश्चिम बंगाल की साउथ 24 परगना की घरेलू कामगार कल्पना बैद्य बताती हैं कि वो सुबह और शाम मिलाकर 6 से 8 घरों में खाना बनाती है। गर्मी, ठंड या बरसात में काम के अनुभव के बारे में वो बताती हैं, “जब भी मौसम खराब होता है, तो दिक्कत होती है। गर्मी या ज्यादा ठंडी में लगता है कि काम करना मुश्किल है। आम दिन में मैं सुबह 6 बजे या उससे भी पहले काम शुरू कर देती हूं। इसके लिए मुझे कम से कम सुबह 5.30 बजे घर से निकलना पड़ता है। चूंकि मुझे घर के कुछ काम निपटा कर ही काम पर जाना होता है, इसलिए मुश्किल और ज्यादा होती है। ठंड के दिनों में लेट होता है और नियोक्ता गुस्सा करते हैं। लेकिन इतना कोहरा होता है कि सामने देख पाना मुश्किल है। इसलिए लेट करना पड़ता है।”
गर्मी और प्रदूषण बढ़ने से गृहिणियों पर असर
गर्मी और प्रदूषण बढ़ने से गृहिणियों को रसोई में काम करने के दौरान अधिक गर्मी सहन करनी पड़ती है। खुले चूल्हे पर खाना बनाने वाली महिलाओं को अधिक धुएं और प्रदूषण का सामना करना पड़ता है, जिससे सांस संबंधी बीमारियां बढ़ रही हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण सूखा, बारिश के पैटर्न में बदलाव और जल संसाधनों की कमी बढ़ रही है। इसका सीधा असर गृहिणियों पर पड़ता है क्योंकि उन्हें पानी लाने और ईंधन की व्यवस्था करने में अधिक समय और मेहनत लगानी पड़ती है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह समस्या और गंभीर हो जाती है, जहां महिलाएं पानी और लकड़ी के लिए मीलों चलती हैं। फसल उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से खाद्य सामग्री महंगी हो रही है। अमूमन गृहिणियों को सीमित संसाधनों में परिवार का पेट भरने और पोषण सुनिश्चित करने के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है।
इस विषय पर पश्चिम बंगाल में रहने वाली रिटायर्ड स्कूल शिक्षिका मौमिता बनर्जी (नाम बदला हुआ) कहती हैं, “ज्यादा गर्मी में बेहद समस्या होती है। मैं निम्नमध्यम परिवार से हूं। मेरा घर मूल रूप से मेरे पेंशन से चलता है। ज्यादा ठंड या गर्मी या बरसात में साग-सब्जियां महंगी मिलती है। पोषणयुक्त खान-पान मुश्किल होता है। हमारे घर में एसी नहीं है। गर्मियों में तो घर में खाना बनाना भी मुश्किल होता है। हम कई बार खासकर रात में कोशिश करते हैं कि खाना न बनाना पड़े।” वहीं ठंड के बारे में बात करते हुए वह कहती हैं, “आजकल कुछ समझ नहीं आता। कई साल ठंड ज्यादा होती है। मेरी उम्र लगभग 80 साल है और ठंड में अक्सर बीमार होती हूं। ऐसे में मुझे अस्पताल में भर्ती रहना पड़ता है।”
मेरा घर मूल रूप से मेरे पेंशन से चलता है। ज्यादा ठंड या गर्मी या बरसात में साग-सब्जियां महंगी मिलती है। पोषणयुक्त खान-पान मुश्किल होता है। हमारे घर में एसी नहीं है। गर्मियों में तो घर में खाना बनाना भी मुश्किल होता है। हम कई बार खासकर रात में कोशिश करते हैं कि खाना न बनाना पड़े।
जलवायु परिवर्तन का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर असर
महिलाएं अपनी लैंगिक भूमिकाओं और जिम्मेदारियों के कारण मानसिक स्वास्थ्य के मामले में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होती हैं। अपने परिवारों की देखभाल के लिए जिम्मेदार होने के कारण, उन्हें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण अतिरिक्त चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसमें गर्मियों के दिनों में पानी लाने जैसे कार्यभार में बढ़ोतरी, खाद्य असुरक्षा, या जब उनके पति या घर का कथित तौर पर कमाऊ व्यक्ति नौकरी के लिए शहरों में चले जाते हैं तो सामाजिक सुरक्षा की कमी शामिल है जो पर्यावरणीय कारकों से बढ़ती है।
आम तौर पर महिलाओं को हर उम्र में सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाओं का भी सामना करना पड़ता है। यह जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण होने वाले मानसिक स्वास्थ्य की संवेदनशीलता को और बढ़ा देता है। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश जलवायु घटनाओं के प्रति बेहद संवेदनशील है। पिछले एक दशक में, यहां जलवायु परिवर्तन के कारण घटनाएं लगातार बढ़ी हैं। देश में 60 फीसद से अधिक आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है और धीमी गति से होने वाली घटनाओं से काफी प्रभावित होती है। देश अब मानसिक स्वास्थ्य संकट के उभरने के साथ दोहरे संकट का सामना कर रहा है।
हाल के अध्ययनों के अनुसार बांग्लादेश में 2019 में आबादी में मानसिक विकारों का औसत प्रसार 16.8 फीसद तक पहुंच गया था। 2020 में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि 20 फीसद ग्रामीण महिलाओं की एक प्रमुख अवसाद विकार के लिए जांच की गई थी। गर्भवती और बुजुर्ग महिलाओं को गर्मी के तनाव से बहुत ज़्यादा जोखिम का सामना करना पड़ता है, जिससे समय से पहले प्रसव, स्वास्थ्य की स्थिति खराब होना और स्टिल बर्थ रेट में बढ़ोतरी जैसी जटिलताएं हो सकती हैं। एशियाई विकास बैंक के अध्ययनों के अनुसार 1°C तापमान वृद्धि समय से पहले जन्मों में 6 प्रतिशत की वृद्धि के साथ संबंधित है, जो हीटवेव के दौरान 16 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। वहीं, हर 1°C वृद्धि के लिए स्टिल बर्थ रेट की संभावना 5 प्रतिशत बढ़ जाती है।
भारत में लगभग 54 प्रतिशत महिलाएं घर के अंदर रहती हैं, जो अत्यधिक गर्मी से बचने में कारगर है। लेकिन, ओआरएफ की एक रिपोर्ट बताती है कि घर के अंदर रहना अपर्याप्त वेंटिलेशन और कूलिंग तंत्र की कमी को सामना करने के मौके को बढ़ाता है। इसके अलावा अध्ययनों के अनुसार घर के अंदर का बढ़ा हुआ तापमान महिलाओं की कार्य क्षमता को भी कम करता है, जिसके कारण देश में घर से काम करने वाले श्रमिकों की आय में 30 प्रतिशत तक की कमी आती है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव किसी एक वर्ग या क्षेत्र तक सीमित नहीं है, लेकिन यह महिलाओं पर विशेष रूप से गहरा और बहुआयामी प्रभाव डालता है।
घर और समाज में उनकी भूमिका, पारंपरिक जिम्मेदारियां और लैंगिक असमानताएं उन्हें जलवायु संकट के प्रभावों के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनाती हैं। इस स्थिति से निपटने के लिए, नीति-निर्माताओं, नागरिक समाज और परिवार को घरेलू महिलाओं की विशेष चुनौतियों और समस्याओं के बारे में सोचने और नीति निर्माण करने की जरूरत है। घरेलू कामगारों और गृहिणियों के लिए सुरक्षित और अनुकूल वातावरण तैयार करना, जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बुनियादी ढांचे का विकास, स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान पहुंच, और महिलाओं को जलवायु-संबंधित नीतियों में शामिल करना प्रमुख कदम हो सकते हैं। जलवायु परिवर्तन को रोकने और उसके प्रभावों से निपटने के प्रयास में महिलाओं की आवाज़ और भागीदारी सुनिश्चित करना समय की मांग है।