इंटरसेक्शनलजाति एनसीडब्ल्यूएल की रिपोर्ट: भारत के 10 राज्यों में 1985-2021 तक जाति आधारित यौन हिंसा पर एक नजर

एनसीडब्ल्यूएल की रिपोर्ट: भारत के 10 राज्यों में 1985-2021 तक जाति आधारित यौन हिंसा पर एक नजर

रिपोर्ट के 12 मामलों में से तीन नरसंहार थे जो आंध्र प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में कथित उच्च जाति समूहों द्वारा बड़े पैमाने पर दलित समुदाय के खिलाफ किए गए थे। इनमें से प्रत्येक मामले में, जाति-आधारित यौन हिंसा के आरोपों पर या तो विचार नहीं किया गया या सबूतों की कमी का हवाला देते हुए मनमाने ढंग से प्रसारित किया गया।

पिछले दिनों हाथरस सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले की वर्षगांठ के अवसर पर, नैशनल काउंसिल ऑफ वूमेन लीडर्स (NCWL) ने ‘1985-2021 तक जाति-आधारित यौन हिंसा के ऐतिहासिक मामले’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट में 10 राज्यों में 35 वर्षों की अवधि में दलित महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ यौन हिंसा के बारह मामलों का दस्तावेजीकरण किया गया है। यह रिपोर्ट न्यायपालिका का मामले को अदृश्य करने, कार्यपालिका की निष्क्रियता और दलित महिलाओं के खिलाफ़ कथित उच्च जाति की क्रूरता के सामान्य विषयों का विवरण देती है जो आज भी पूरे भारत में जारी है।रिपोर्ट सबसे पहले यही सवाल करती है कि इतने सालों में क्या बदला है? हाथरस मामले ने जाति आधारित यौन हिंसा के मुद्दे को सुर्खियों में ला दिया था।

लेकिन फिर भी, अमूमन लोग आज भी यही पूछते हैं कि सर्वाइवर की जाति के बारे में बात क्यों कर रहे हैं? इन अत्याचारों की स्पष्ट जाति-आधारित प्रकृति के बावजूद, इन मामलों में जनता, सरकार और अदालतें जाति को अदृश्य करते हुए इन मामलों को देखती है, जिसमें प्रमुख जाति समूहों द्वारा दलित महिलाओं और लड़कियों को चुप कराने, प्रतिशोध लेने के लिए, अपने और अपने अधिकारों का दावा करने और प्रचलित जाति, वर्ग और सामाजिक पदानुक्रम को बनाए रखने के लिए उनके खिलाफ़ ‘बलात्कार’ को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। रिपोर्ट में देश में दलित बहुजन समुदाय के लोगों के साथ हुए नरसंहारों का हवाला दिया गया है। 

इन मामलों में जनता, सरकार और अदालतें जाति को अदृश्य करते हुए इन मामलों को देखती है, जिसमें प्रमुख जाति समूहों द्वारा दलित महिलाओं और लड़कियों को चुप कराने, प्रतिशोध लेने के लिए, अपने और अपने अधिकारों का दावा करने और प्रचलित जाति, वर्ग और सामाजिक पदानुक्रम को बनाए रखने के लिए उनके खिलाफ़ ‘बलात्कार’ को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

क्या बताती है रिपोर्ट

रिपोर्ट के 12 मामलों में से तीन नरसंहार थे जो आंध्र प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में कथित उच्च जाति समूहों द्वारा बड़े पैमाने पर दलित समुदाय के खिलाफ किए गए थे। इनमें से प्रत्येक मामले में, जाति-आधारित यौन हिंसा के आरोपों पर या तो विचार नहीं किया गया या सबूतों की कमी का हवाला देते हुए मनमाने ढंग से प्रसारित किया गया। रिपोर्ट में उल्लिखित पहला मामला 1985 का है, जो आंध्र प्रदेश में करमचेडु नरसंहार की घटना है। यहां, उच्च जाति के पुरुषों के एक सशस्त्र समूह ने करमचेडु में एक निहत्थे दलित बस्ती  पर हमला किया था, जिसमें कम से कम तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार और छः दलित पुरुषों की हत्या कर दी गई थी। एक महीने बाद आरोपियों ने उस महिला की भी हत्या कर दी थी, जो इस हत्याकांड की गवाह थी।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि नरसंहार को भ्रामक रूप से ‘दंगा’ करार दिया गया, और जाति-आधारित भेदभाव और ऑपरेशन के तत्वों को मुद्दे से बाहर कर दिया गया था। इस घटना के बाद काफी आक्रोश फैल गया और दलितों समुदाय के माध्यम से दलितों के लिए व्यापक आंदोलन की शुरुआत हुई। प्रारंभ में, 1994 में गुंटूर की एक निचली अदालत ने हत्या के आरोप में 46 लोगों को 3 साल जेल और 5 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। उच्च न्यायालय में अपील होने पर उच्च न्यायालय ने 1998 में सभी आरोपियों को बरी कर दिया। आखिरकार 2008 में, नरसंहार के 20 साल बाद, सुप्रीम कोर्ट ने 29 लोगों को ‘घातक हथियार से लैस होकर दंगा करने’ और एक व्यक्ति को हत्या का दोषी ठहराया। हालांकि  किसी को भी बलात्कार का दोषी नहीं ठहराया गया। 

रिपोर्ट में उल्लिखित पहला मामला 1985 का है, जो आंध्र प्रदेश में करमचेडु नरसंहार की घटना है। यहां, उच्च जाति के पुरुषों के एक सशस्त्र समूह ने करमचेडु में एक निहत्थे दलित बस्ती  पर हमला किया था, जिसमें कम से कम तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार और छः दलित पुरुषों की हत्या कर दी गई थी।

पानखान अत्याचारों का उल्लेख

रिपोर्ट में साल 1999 के पानखान अत्याचारों का उल्लेख किया गया है, जहां गुजरात के उच्च जाति के राजपूत समुदाय ने 100 दलितों के खिलाफ क्रूर हमला किया था, जिसमें 40 लोग घायल हो गए थे। घटना में एक दलित महिला के साथ 13 पुरुषों ने सामूहिक बलात्कार किया था और उसपर क्रूरता से हमला किया था। लेकिन अत्याचार की क्रूर प्रकृति के बावजूद, राज्य के अधिकारियों ने प्रतिक्रिया करने में देरी की। एफआईआर में लगभग 80 आरोपियों के नाम शामिल थे। हालांकि अधिकांश को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन मुश्किल से एक महीने के बाद उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया। गैंग रेप मामले के 3 मुख्य आरोपी 2 महीने में रिहा हो गए थे। आरोपियों ने सर्वाइवर पर समझौता करने के लिए दबाव डालने की उम्मीद से उसे रिश्वत देने की कोशिश भी की थी। लेकिन वह उनके दबाव के आगे नहीं झुकी। रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग 140 गवाहों को सुना गया। मामला 2004 से ट्रायल कोर्ट में जाने में विफल रहा है। इसे हाल ही में जूनागढ़ अदालत से केशोद अदालत में स्थानांतरित किया गया था, जहां यह पिछले 3 वर्षों से लंबित है।

महाराष्ट्र के खैरलांजी में हुए दलितों पर अत्याचार

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

रिपोर्ट एक अन्य नरसंहार की बात करती है जोकि महाराष्ट्र में हुआ था। 29 सितंबर 2006 को, महाराष्ट्र के खैरलांजी गांव में कथित उच्च जाति की भीड़ ने एक दलित महिला और उसके 3 बच्चों पर हमला किया। वह अपने जमीनी अधिकारों के लिए उन उच्च जातियों के खिलाफ लड़ रही थी जिन्होंने उसकी कृषि भूमि के छोटे से टुकड़े पर अतिक्रमण कर लिया था। एक दलित महिला की मुखरता से क्रोधित होकर, प्रमुख जातियों ने उसे, उसकी बेटी और दो बेटों को उनके घर से बाहर खींच लिया, उन्हें नग्न घुमाया, उनके साथ बलात्कार किया और उन सभी को सार्वजनिक रूप से पीट-पीट कर उनकी हत्या कर दी। सरकार द्वारा कभी भी बलात्कार का आरोप नहीं लगाया गया, जिसमें सबूतों की कमी का भी दावा किया गया था। जब साल 2008 में भंडारा विशेष अदालत ने हत्या के मामले में फैसला सुनाया, तो उसने 8 लोगों को हत्या का दोषी ठहराया और 3 को बरी कर दिया। अदालत ने एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम लागू करने से इनकार कर दिया और माना कि हत्या बदला लेने के लिए की गयी थी और जाति से प्रेरित नहीं था।

साल 1999 के पानखान अत्याचारों का उल्लेख किया गया है, जहां गुजरात के उच्च जाति के राजपूत समुदाय ने 100 दलितों के खिलाफ क्रूर हमला किया था, जिसमें 40 लोग घायल हो गए थे। घटना में एक दलित महिला के साथ 13 पुरुषों ने सामूहिक बलात्कार किया था और उसपर क्रूरता से हमला किया था।

इसके कारण दलित अधिकार संगठनों और एकमात्र जीवित बचे भैयालाल ने भारी विरोध प्रदर्शन किया। भैयालाल ने बहुत पहले ही चपरासी के रूप में काम करते हुए गांव छोड़ दिया था। यह नौकरी उसे इस नरसंहार के बाद ‘मुआवजे’ के रूप में दी गई थी। 20 जनवरी 2017 को उनकी भी मृत्यु हो गई। हत्या के 8 आरोपियों की सजा की 2019 में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय द्वारा पुष्टि की गई। लेकिन सर्वाइवर के बलात्कार को पहचानने में संस्थागत विफलता, अदालतों और सरकारी अधिकारियों द्वारा जाति की अदृश्यता यह प्रश्न उठाता है कि क्या वास्तव में न्याय प्राप्त हुआ।

भंवरी देवी का मामला

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इन नरसंहार के अलावा रिपोर्ट कुछ अन्य मामलों का भी उल्लेख करती है। 1991 में राजस्थान के भंवरी देवी का मामला जोकि न्याय प्रशासन प्रणाली पर जातिगत पूर्वाग्रह के प्रभाव और महिला अधिवक्ताओं की आवाज़ को चुप कराने के लिए यौन हिंसा का उपयोग करने का विशिष्ट उदाहरण है। हालांकि इस घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका के कारण कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के रोकथाम के लिए विशाखा दिशानिर्देश तैयार किए गए। लेकिन आज भी असंगठित क्षेत्र के लिए कोई समान कानून नहीं बनाया गया जहां आर्थिक सामाजिक तौर पर वंचित और निम्न मध्यम परिवारों की महिलाएं बड़े पैमाने पर कार्यरत हैं।

2002 में, दलित कलाकार और कार्यकर्ता बंत सिंह की बेटी, नौवीं कक्षा की छात्रा, के साथ पंजाब के मनसा में उच्च जाति के लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया गया था। अपराधियों और ग्राम पंचायत की धमकियों के बावजूद, बंत सिंह ने न्यायपालिका के समक्ष न्याय की गुहार लगाई और 2004 में अपराधियों को आजीवन कारावास की सजा हुई। प्रतिशोध में, ऊंची जाति के लोगों ने बंत सिंह को बेरहमी से पीटा, जिसमें उन्होंने दोनों पैर और एक हाथ खो दिए।

बंट सिंह की बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार मामला  

2002 में, दलित कलाकार और कार्यकर्ता बंत सिंह की बेटी, नौवीं कक्षा की छात्रा, के साथ पंजाब के मनसा में उच्च जाति के लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया गया था। अपराधियों और ग्राम पंचायत की धमकियों के बावजूद, बंत सिंह ने न्यायपालिका के समक्ष न्याय की गुहार लगाई और 2004 में अपराधियों को आजीवन कारावास की सजा हुई। प्रतिशोध में, ऊंची जाति के लोगों ने बंत सिंह को बेरहमी से पीटा, जिसमें उन्होंने दोनों पैर और एक हाथ खो दिए। इसके बावजूद बंत सिंह ने हार नहीं मानी। आज दोनों के सहस के कारण पिता और बेटी दोनों दलित प्रतिरोध के प्रतीक बन गए हैं। रिपोर्ट में ओडिशा के पाटन सामूहिक बलात्कार का भी उल्लेख किया गया है, जहां 2008 में पाटन में प्राथमिक शिक्षक प्रमाणपत्र कॉलेज के छह प्रोफेसरों द्वारा एक 17 वर्षीय दलित लड़की के साथ 14 बार सामूहिक बलात्कार किया गया था। जब सर्वाइवर ने अदालतों में न्याय पाने की गुहार लगाई, तो उसपर अदालत से बाहर समझौता स्वीकार करने का दबाव डाला गया और उसे अपने घर से बाहर जाने के लिए मजबूर किया गया।

रिपोर्ट की अन्य मुख्य बातें 

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

रिपोर्ट के अंत में हाथरस सामूहिक बलात्कार और हत्या मामले का उल्लेख किया गया है, जिसे शुरू में ऑनर किलिंग मामले के रूप में पेश किया गया था। भारत में दलित महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ़ बलात्कार और हत्या के कई हालिया मामलों ने मीडिया के साथ-साथ राजनेताओं का भी ध्यान आकर्षित किया है। लेकिन अक्सर, दलित महिलाओं के खिलाफ हिंसा दर्ज ही नहीं की जाती। रिपोर्ट में दिए सभी मामले जातिगत भेदभाव का स्पष्ट तत्व होने के बावजूद जाति के अदृश्य होने को दिखाते हैं। मामलों से पता चलता है कि दलित महिलाओं को उनके अधिकारों का दावा करने के प्रतिशोध के रूप में चुप कराने के लिए उच्च प्रभावशाली जाति द्वारा अक्सर बलात्कार को उनके खिलाफ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा जाता है।  

अक्सर, दलित महिलाओं के खिलाफ हिंसा दर्ज ही नहीं की जाती। रिपोर्ट में दिए सभी मामले जातिगत भेदभाव का स्पष्ट तत्व होने के बावजूद जाति के अदृश्य होने को दिखाते हैं।

मामलों को दर्ज करने या समय पर कार्रवाई करने में राज्य अधिकारियों की विफलता भी एक आम बात है। कई मामलों में, पुलिस ऐसे अपराधों के सर्वाइवर या उनके जीवित रिश्तेदारों के न्याय के संघर्ष में बाधा के रूप में भी काम करती है। ये भयावह मामले भारतीय समाज में व्याप्त दलित लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ़ यौन उत्पीड़न के अनगिनत मामलों में से एक हैं। दलित महिलाओं को उनकी जाति, लिंग और निम्न शैक्षिक या आर्थिक स्थिति के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ता है। भारत में दलित महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ़ अत्याचार लगातार जारी है।

लेकिन इसके बावजूद दलित महिला कार्यकर्ता तेजी से अपने अधिकारों के लिए खड़ी हो रही हैं। कई अभियान समूह दलित महिलाओं के पक्ष में विरोध मार्च आयोजित करते हैं, अत्याचारों का दस्तावेजीकरण करते हैं, प्रचार करते हैं, और दलित महिलाओं को अपना समर्थन देते हैं। ऐसी गतिविधियां जोखिम से खाली नहीं हैं क्योंकि अपने मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले दलितों के खिलाफ कथित उच्च जातियों की प्रतिक्रिया क्रूर हो सकती है। हजारों कानून के बावजूद, आज भी दलित महिलाओं का संघर्ष जारी है।

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