इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ सामाजिक भेदभाव और चिकित्सकीय असमानताओं के बीच क्वीयर समुदाय की स्वास्थ्य चुनौतियां

सामाजिक भेदभाव और चिकित्सकीय असमानताओं के बीच क्वीयर समुदाय की स्वास्थ्य चुनौतियां

अधिकांश स्वास्थ्य कर्मियों को एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय की विशेष आवश्यकताओं की जानकारी नहीं होती। समाज में क्वीयर समुदाय के अधिकारों और स्वास्थ्य समस्याओं पर चर्चा भी बेहद कम होती है।

हमारे समाज में बच्चों का सेक्स मेल, फीमेल या अन्य के रूप में निर्धारित होता है, लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में उन्हें जेन्डर के बक्सों में बांध दिया जाता है। क्वीयर समुदाय के लोग, जो इन बक्सों में फिट नहीं होते, समाज में भेदभाव का सामना करते हैं, खासकर स्वास्थ्य सुविधाओं के संदर्भ में। सामाजिक मान्यताओं, लैंगिक असमानताओं और स्वास्थ्य प्रणाली की खामियों के कारण क्वीयर समुदाय के लोग अपनी स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने में असहाय महसूस करते हैं, जिसका मानसिक, सामाजिक और आर्थिक प्रभाव पड़ता है। भारत में अधिकांश अस्पताल और क्लीनिक केवल पुरुषों और महिलाओं के लिए सेवाएं प्रदान करते हैं।

ट्रांसजेंडर और अन्य गैर-बाइनरी व्यक्तियों के लिए अलग से कोई सुविधा नहीं होती। डॉक्टर और अन्य स्वास्थ्यकर्मी अक्सर क्वीयर समुदाय के प्रति संवेदनशील नहीं होते, और कभी-कभी उनकी समस्याओं को हल्के में लेते हैं। इस विषय पर दिल्ली की रहने वाली गीत जो क्वीयर समुदाय से ताल्लुक रखती हैं कहती हैं, “जब भी मैं अस्पताल जाती हूं और जब पेशेंट की पर्ची बनाई जाती है तो उस समय जेन्डर  पुछा जाता है कि किस जेंडर को बिलॉन्ग करते हो। पर्ची में अमूमन महिला या फिर पुरुष  लिखा होता है। तब खुद के लिए बहुत बुरा महसूस होता है। उस समय मुझे सोचना पड़ता है कि मैं क्या जबाब दूँ। कई बार इस डर की वजह से भी मैं हॉस्पिटल नहीं जा पाती।”

जब भी मैं अस्पताल जाती हूं और जब पेशेंट की पर्ची बनाई जाती है तो उस समय जेन्डर  पुछा जाता है कि किस जेंडर को बिलॉन्ग करते हो। पर्ची में अमूमन महिला या फिर पुरुष  लिखा होता है। तब खुद के लिए बहुत बुरा महसूस होता है। उस समय मुझे सोचना पड़ता है कि मैं क्या जबाब दूँ। कई बार इस डर की वजह से भी मैं हॉस्पिटल नहीं जा पाती।”

वहीं मुंबई की रहने वाली निश क्वीयर समुदाय से  हैं। वह अपने आस-पास के परिवेश के बारे में बताती हैं, “जिस ऑफिस में मैं काम करती हूं, वहां हाल ही में मैंने एक स्टेटमेंट सुना कि दो ही चीजें होती हैं। जैसे  एक लड़का है और एक लड़की है, या मर्द है और औरत। इन दोनों को ध्यान में रखकर हमें काम  करना है। वहां पर ट्रांस को कहीं भी आईडेंटिफाय  ही नहीं कर रहे हैं। अगर स्वास्थ की बात करूँ तो जब प्राइवेट पार्ट्स में  इन्फेक्शन होते हैं, तब डॉक्टर  को बताना बहुत मुश्किल होता है।  मैंने बहुत बार असहज  महसूस किया  है। अभी तक मैं एक अच्छा डॉक्टर नहीं ढूंढ पाई हूं जो मुझे समझे।” निश अपना अनुभव शेयर करते हुए आगे  बताती हैं, “क्वीयर व्यक्ति डर के कारण सरकारी अस्पताल में बहुत कम जाते हैं। हमें अगर एक  एचआईवी का टेस्ट भी करवाना हो तो उसके लिए भी कोई निजी अस्पताल और भरोसेमंद डॉक्टर ढूँढना पड़ता है। इसके लिए बहुत पैसे भी खर्च हो जाते हैं। मैं अच्छी जॉब कर रही हूं तो ये खर्च उठा सकती हूं। लेकिन बहुत से ऐसे व्यक्ति  हैं  जिनके पास इतना पैसा नहीं होता। कभी-कभी उनके लिए बहुत ही  समस्याजनक परिस्थिति हो जाती है।”

चिकित्सकीय चुनौतियों के कारण इलाज की कमी

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए सुश्रिता

आंकड़ों पर ध्यान दें, तो पता चलता है कि स्वास्थ्य सेवा में समुदाय द्वारा सामना की जाने वाली कई असमानताएं और चुनौतियां हैं। ट्रेवर प्रोजेक्ट का 2022 एलजीबीटीक्यू युवा मानसिक स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय सर्वेक्षण अनुसार 93 फीसद ट्रांसजेंडर और नॉन बाइनरी युवाओं ने कहा है कि वे इस बात से चिंतित हैं कि राज्य या स्थानीय कानूनों के कारण ट्रांसजेंडर लोगों को लिंग-पुष्टि चिकित्सकीय देखभाल तक पहुंच से वंचित किया जा रहा है। 7 फीसद ट्रांसजेंडर और नॉन बाइनरी युवाओं ने बताया कि उनकी लैंगिक पहचान के कारण उन्हें शारीरिक रूप से धमकाया गया है या नुकसान पहुंचाया गया है। यौन स्वास्थ्य समस्याओं या हार्मोन उपचार की अनुपलब्धता से उनके स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ता है। सुरक्षित यौन संबंधों के बारे में जागरूकता और सेवाओं की कमी के कारण एचआईवी/एड्स और यौन संचारित रोगों का खतरा बढ़ जाता है।

क्वीयर व्यक्ति डर के कारण सरकारी अस्पताल में बहुत कम जाते हैं। हमें अगर एक  एचआईवी का टेस्ट भी करवाना हो तो उसके लिए भी कोई निजी अस्पताल और भरोसेमंद डॉक्टर ढूँढना पड़ता है। इसके लिए बहुत पैसे भी खर्च हो जाते हैं।

झारखंड की हिमांशी, जो क्वीयर समुदाय से हैं, पिछले पांच सालों से ट्रांस और क्वीयर व्यक्तियों के मुद्दों पर काम कर रही हैं। ट्रांस महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े भेदभाव पर वे कहती हैं, “समाज ट्रांस महिलाओं को हीन दृष्टि से देखता है। ट्रांस समुदाय के लोग अक्सर स्वास्थ्य सुविधाओं का उपयोग नहीं करते। एचआईवी जैसी गंभीर स्थिति में भी वे इलाज से बचते हैं, क्योंकि उन्हें जानकारी नहीं होती। अस्पतालों में असमान व्यवहार और असहजता के कारण वे इलाज अधूरा छोड़ देते हैं। अमूमन एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के अधिकतर लोगों को यह भी नहीं पता होता कि एचआईवी के अलावा अन्य बीमारियां, जैसे एसटीआई (यौन संचारित संक्रमण), भी हो सकती हैं। कम्युनिटी में कई लोग यौन रूप से सक्रिय होते हैं, जिससे एसटीआई होना आम बात है।”

वह बताती हैं, “ट्रांजिशन के लिए हॉर्मोन डॉक्टर जरूरी होते हैं, जो छोटे शहरों में उपलब्ध नहीं हैं। बड़े शहरों में भी सरकारी अस्पतालों में एन्ड्रियोकोलॉजिस्ट नहीं मिलते, और निजी अस्पतालों की फीस बहुत ज्यादा होती है। छोटे शहरों में डॉक्टर और लोग ट्रांस समुदाय के बारे में जानकारी नहीं रखते। सरकार को अस्पताल के स्टाफ को सेंसेटाइज करना चाहिए। जानकारी के अभाव में लोग बिना डॉक्टर की सलाह के हॉर्मोनल थेरेपी शुरू कर देते हैं, जिससे उनकी सेहत और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।” एक रिपोर्ट अनुसार ट्रांसजेंडर महिलाओं में एचआईवी होने की संभावना सामान्य आबादी की तुलना में 66 गुना अधिक होती है।

समाज ट्रांस महिलाओं को हीन दृष्टि से देखता है। ट्रांस समुदाय के लोग अक्सर स्वास्थ्य सुविधाओं का उपयोग नहीं करते। एचआईवी जैसी गंभीर स्थिति में भी वे इलाज से बचते हैं, क्योंकि उन्हें जानकारी नहीं होती। अस्पतालों में असमान व्यवहार और असहजता के कारण वे इलाज अधूरा छोड़ देते हैं।

क्वीयर समुदाय के साथ सामाजिक भेदभाव

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए सुश्रिता

बचपन से ही ट्रांस समुदाय को संघर्षों का सामना करना पड़ता है। परिवार, दोस्तों और समाज से बहिष्कृत होने के कारण वे अवसाद, चिंता और आत्महत्या जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का शिकार हो जाते हैं। उन्हें अक्सर “असामान्य” या “बीमार” समझा जाता है, जिससे न केवल उन्हें सामाजिक स्वीकृति से वंचित किया जाता है, बल्कि उनकी स्वास्थ्य जरूरतों की भी अनदेखी होती है। समाज का डर उनके दिलो-दिमाग में ऐसा घर कर जाता है कि वे अपनी स्वास्थ्य समस्याओं पर खुलकर चर्चा नहीं कर पाते। स्वास्थ्य सेवाओं में भेदभाव क्वीयर समुदाय को समाज से और अलग-थलग कर देता है। यह असमानता उनके लिए सामाजिक न्याय और समानता के अधिकार पाना मुश्किल बना देती है।

आर्थिक चुनौतियों का स्वास्थ्य पर असर

अमूमन परिवार से बेदखल होने के बाद ट्रांस व्यक्तियों के पास न तो परिवार होता है और न ही आय का कोई स्थिर साधन। जेंडर एफरमिंग सर्जरी और हार्मोन थेरेपी जैसे महंगे उपचार आर्थिक कारणों से उनकी पहुंच से बाहर होते हैं। इससे कई बार वे सस्ते और असुरक्षित तरीकों का सहारा लेते हैं, जो उनके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। उत्तराखंड की दीपिका, ट्रांसजेंडर समुदाय से हैं। इस विषय पर वह बताती हैं, “भारत में ब्रेस्ट और बॉटम सर्जरी कराने के लिए शहरों का रुख करना पड़ता है, क्योंकि गांवों में ऐसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। सर्जरी में जोखिम भी बहुत होता है। अगर सर्जरी सही तरीके से न हो, तो दोबारा करवानी पड़ सकती है। ब्रेस्ट सर्जरी में सिलिकॉन और जेल के दो विकल्प होते हैं। जेल महंगा है और सिलिकॉन सस्ता, लेकिन सिलिकॉन से हार्ट अटैक का खतरा रहता है और इसे हर एक-दो साल में बदलवाना पड़ता है। कुछ लोग सस्ते सिलिकॉन का उपयोग करते हैं, जिससे संक्रमण, कैंसर या अन्य गंभीर समस्याएं हो सकती हैं। मेरी एक दोस्त, सीमा (नाम बदला हुआ) बिना डॉक्टर की सलाह के सर्जरी करवाने के कारण अपनी जान गंवा बैठी। सर्जरी के बाद दवाइयां भी बहुत महंगी होती हैं। इसलिए सही डॉक्टर से सलाह लेना बेहद जरूरी है।”

भारत में ब्रेस्ट और बॉटम सर्जरी कराने के लिए शहरों का रुख करना पड़ता है, क्योंकि गांवों में ऐसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। सर्जरी में जोखिम भी बहुत होता है। अगर सर्जरी सही तरीके से न हो, तो दोबारा करवानी पड़ सकती है।

कानूनी और प्रशासनिक बाधाएं

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

ट्रांसजेंडर और गैर-बाइनरी व्यक्तियों को अक्सर अपनी पहचान साबित करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। भेदभावपूर्ण कानून और सामाजिक बाधाएं स्वास्थ्य असमानताओं को बढ़ाती हैं और प्रगति में बाधा डालती हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में सहमति से बने होमोसेक्शूएलिटी को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। लेकिन इसकी विरासत आज भी भेदभाव, स्वास्थ्य सेवा की पहुंच और सामाजिक-आर्थिक समावेशन में बाधा बन रही है। ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019 स्वास्थ्य सेवाओं में गैर-भेदभाव और समावेशन पर जोर देता है। सरकार ने राज्यों को तृतीयक सरकारी अस्पतालों में जेंडर सपोर्टिव चिकित्सकीय सुविधाएं स्थापित करने और राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना में जेंडर सपोर्टिव प्रक्रियाओं को शामिल करने के निर्देश दिए हैं, लेकिन इनका पूर्ण क्रियान्वयन अभी बाकी है।

ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता की कमी और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव

ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति और भी खराब है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) में डॉक्टर, दवाइयाँ और उपकरणों की भारी कमी है। छोटे शहरों और गाँवों में क्वीयर समुदाय के लोग अपनी पहचान छिपाने को मजबूर होते हैं, क्योंकि समाज में उनका मज़ाक उड़ाया जाता है। अधिकांश स्वास्थ्य कर्मियों को एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय की विशेष आवश्यकताओं की जानकारी नहीं होती। समाज में क्वीयर समुदाय के अधिकारों और स्वास्थ्य समस्याओं पर चर्चा भी बेहद कम होती है। स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से क्वीयर समुदाय के शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

छोटे शहरों और गाँवों में क्वीयर समुदाय के लोग अपनी पहचान छिपाने को मजबूर होते हैं, क्योंकि समाज में उनका मज़ाक उड़ाया जाता है। अधिकांश स्वास्थ्य कर्मियों को एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय की विशेष आवश्यकताओं की जानकारी नहीं होती।

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान के सर्वेक्षण के अनुसार, एलजीबीटीक्यू+ समुदाय में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम अधिक है, जिसमें 36.7 फीसद अवसाद और 21.4 फीसद चिंता से ग्रस्त पाए गए। समाज से बहिष्करण, भेदभाव और स्वास्थ्य सेवाओं में दुर्व्यवहार इनके आत्मसम्मान और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। दुर्व्यवहार के डर से कई क्वीयर व्यक्ति सहायता मांगने से बचते हैं। समाधान के लिए जागरूकता बढ़ाना, समावेशी स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना, और लैंगिक व यौन विविधता के प्रति चिकित्सकों को संवेदनशील बनाना आवश्यक है। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए विशेष स्वास्थ्य योजनाएं, बीमा, आर्थिक सहायता, और भेदभाव-मुक्त क्लीनिक स्थापित किए जाने चाहिए। स्कूल-कॉलेजों में अधिकारों और जरूरतों पर अभियान चलाना भी जरूरी है।

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