इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ क्वीयर अधिकारों की बहस से कोसों दूर क्यों है ग्रामीण परिवेश

क्वीयर अधिकारों की बहस से कोसों दूर क्यों है ग्रामीण परिवेश

ग्रामीण भारत में रहने वाले ट्रांस समुदाय के लोगों की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आ पाया क्योंकि गांवों में हालात महानगरों के मुकाबले इस मामले में एकदम भिन्न है। गाँव-जवार के कुछ एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों की बातचीत से ये बात निकलकर आयी कि गाँव में होमोसेक्सुअल संबंधों को लेकर लोगों का नज़रिया बदलने में अभी बहुत समय लगेगा।

भारतीय गांवों में ख़ासकर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश आदि क्षेत्रों के गांवों में आम तौर पर आधुनिकता का अर्थ बाजार से आई चीजों से लिया जाता है। बाजार की सुविधाएं जितनी ज्यादा पहुंचती हैं माना जाता है कि आधुनिकता का यही सब आधार है। वहां जाति, धर्म सम्प्रदाय, नस्ल सारी रूढ़िवादी व्यवस्था जस की तस बनी हुई है बल्कि कुछ दशकों में उनका उभार ही हुआ है। ग्रामीण क्षेत्रों में अंतरजातीय प्रेम संबंधों से जो अंतरजातीय विवाह संबंध स्थापित हो जाते हैं उनके साथ आए दिन हिंसा की ख़बरें आती रहती हैं। इस लिहाज से आधुनिकता की जिस सतह पर क्वीयर अधिकारों की बहस है वह गांव-जवार से काफी दूर दिखती है।

अभी जब शादी की समानता को कानूनी मान्यता देने के सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई को पूरे देश में सराहा गया था तो पढ़े-लिखे आधुनिक, मन-मिज़ाज के लिए लोगों ने इसे बहुत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक फैसला कहकर सराहना की थी। महानगरों और कुछ छोटे शहरों में भी रहने वाले ट्रांस समुदाय के लोगों ने इसे अपनी लंबी और कठिन लड़ाई में एक अहम पड़ाव भी माना। उनका कहना था कि सुप्रीम कोर्ट की ये सुनवाई उनके लिए एक नये युग की शुरुआत है।

गाँव-देहात की स्त्रियों में होमोसेक्सुअलिटी को लेकर कोई बहस नहीं है। ऐसा नहीं है कि गाँव-देहात में इस तरह के रिश्ते नहीं होते लेकिन उसपर पुरुषों में भले कोई चर्चा रही हो, स्त्रियों में इस तरह की कोई हलचल नहीं दिखती। स्त्रियों के लिए ये बेहद वर्जित क्षेत्र है।

कोई भी व्यक्ति नस्ल और लिंग के भेदभाव से समाज में अलग-थलग पड़ जाए तो यह उस समाज की बहुत बड़ी असफलता है। लेकिन शहरों में हो रही इस हलचल के बीच ग्रामीण भारत में रहने वाले ट्रांस समुदाय के लोगों की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आ पाया क्योंकि गांवों में हालात महानगरों के मुकाबले इस मामले में एकदम अलग है। गाँव-जवार के कुछ एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों की बातचीत से ये बात निकलकर आई कि गाँव में होमोसेक्सुअल संबंधों को लेकर लोगों का नज़रिया बदलने में अभी बहुत समय लगेगा। वे अभी क्वीयर संबंधों को किसी नई दुनिया की बात मानते हैं। 

ऐसा नहीं है कि इस सच से उनका साक्षात्कार नहीं है लेकिन अशिक्षा और अवैज्ञानिक सोच उन्हें उसे स्वस्थ मन से स्वीकार करने नहीं देती। इसी सोच के कारण ग्रामीण परिवेश में क्वीयर संबंधों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। कमोबेश यही स्थिति शहरों में भी दिखती है। होमोसेक्सुअलिटी पर जब ‘अलीगढ़’ फ़िल्म आई थी तो एकबार ये बहस पढ़े-लिखे, आधुनिक विचारों के लोगों में भी उठी। फ़िल्म में होमोसेक्सुअलिटी को संवेदनशीलता से इतने गहरे और मानवीय मूल्यों से जोड़कर दिखाया गया कि बहुत सारे ऐसे लोग जो क्वीयर संबंधों को अप्राकृतिक कहते थे वे फ़िल्म देखने के बाद एक हद तक संवेदनशील ज़रूर दिखे।

तस्वीर साभारः PBS/REUTERS/Brendan McDermid

क्वीयर अधिकारों की बहस से गायब स्त्रियां

गाँव-देहात की स्त्रियों में होमोसेक्सुअलिटी या क्वीयर को लेकर कोई बहस या चर्चा नहीं है। ऐसा नहीं है कि गाँव-देहात में इस तरह के रिश्ते नहीं होते लेकिन उस पर पुरुषों में भले कोई चर्चा रही हो, स्त्रियों में इस तरह की कोई हलचल नहीं दिखती। स्त्रियों के लिए ये बेहद वर्जित क्षेत्र है। आज जब होमोसेक्सुअलिटी को वैध मानकर कानून बन रहे हैं तो ख़ासकर ग्रामीण स्त्रियां उसे कैसे देखती-जानती हैं मैंने यह समझने की कोशिश की लेकिन ज्यादातर स्त्रियां इससे बिल्कुल अनभिज्ञ दिखीं। उन्होंने बताया कि ये हमारे समाज में हमेशा से रहा है लेकिन इसे कभी मान्यता नहीं मिली। लोग इसे अंधविश्वास के कारण अप्राकृतिक मानकर इससे घृणा करते रहे तो उन्होंने पहले तो इसका मज़ाक उड़ाया लेकिन फिर समझने की कोशिश की और अपने अनुभव बताए।

हालांकि उन्होंने अपने आसपास, बचपन के अनुभव आदि को लेकर बताया तो कि क्वीयर संबंध समाज में हमेशा रहे लेकिन वे सारी स्त्रियां इन संबंध को बीमारी ही मानती रहीं। वहीं, कुछ पहले की स्त्रियां इसे भूत-प्रेत बाधा का चक्कर मानती हैं और इसी तरह के अनुभव को बताती हैं कि परिवार में गाँव घर में किसको ये बीमारी हुई और झाड़-फूक से ठीक हो जाती है।

“चाचा झाड़-फूंक के बाद ठीक हो गए”

करीब पचपन साल की गीता देवी बताती हैं कि उनके चाचा को ये ‘रोग’ था। जब उनकी आजी को पता चला तो चाचा को लेकर एक बाबा के यहाँ जाती थीं। बाबा झाड़-फूंक करके इसतरह के रोगों को ठीक करता था। गीता देवी याद करते हुए बताती हैं, “आजी, चाचा को लेकर हर रविवार, मंगलवार को बाबा के यहां जाती थीं। सालों तक चाचा की झाड़-फूंक हुई और वह बाद में ठीक हो गए। उनका ब्याह हुआ और बच्चे भी हुए।”

इसी तरह स्त्रियां कुछ-कुछ खुलने लगीं तो पता चला कि ग्रामीण समाज के पुरुषों में ही नहीं स्त्रियों में भी क्वीयर संबंध रहे हैं। पुरवहवा गाँव की रेखा देवी ने बताया कि उनके मायके के गाँव में एक सास और बहू का संबंध था जिसे लेकर लोग तरह-तरह की अनर्गल बातें करते थे, सास को भला-बुरा कहते थे। कई दूसरी बुजुर्ग स्त्रियों ने ऐसी बातें बताईं। हालांकि किसी भी स्त्री ने अपने आसपास जैसे कि परिवार या रिश्तों में ऐसी बातों को या क्वीयर संबंध को स्वीकार नहीं किया।

आज जब होमोसेक्सुअलिटी को वैध मानकर कानून बन रहे हैं तो ख़ासकर ग्रामीण स्त्रियां उसे कैसे देखती-जानती हैं मैंने यह समझने की कोशिश की लेकिन ज्यादातर स्त्रियां इससे बिल्कुल अनभिज्ञ दिखीं। उन्होंने बताया कि ये हमारे समाज में हमेशा से रहा है लेकिन इसे कभी मान्यता नहीं मिली।

होमोसेक्सुअलिटी को लेकर कोई बहस उनके बीच नहीं दिखती या कोई सहजता भी नहीं बल्कि कोई बहुत अनहोनी जैसी बात इसको वहां माना जाता है। वैसे इस विषय पर उनसे वैज्ञानिक आधार पर बात करने से कुछ लचीलापन जरूर दिखता है जैसे अक्सर वे यह कह देतीं हैं जब ईश्वर ने उन लोगों को ऐसा बनाया है तो फिर उनकी क्या गलती लेकिन फिर भी होमोसेक्सुअलिटी, क्वीयर अधिकारों को एक गलती ही मानती हैं, ईश्वर से हुई गलती। उनकी धारणा क्वीयर संबंधों को लेकर जस की तस दिखी बस प्रकृतिजन्य समझकर थोड़ी सी वो मानवीय हो गई हैं। 

तस्वीर साभारः NCB News

गांव में बदलाव की एक ख़बर लेकिन तस्वीर बदलनी बाकी है!

क्वीयर अधिकारों के विषय में ये सिर्फ ग्रामीण इलाकों की स्थिति नहीं है। कस्बों या छोटे शहरों में भी क्वीयर अधिकारों को लेकर लगभग यही स्थिति है। अभी कुछ दिन पहले मैरिज इक्विलिटी को लेकर एक रिपोर्टिंग हुई थी जिसमें एक गाँव में दो लड़कियों ने आपस में विवाह किया था। यह वीडियो खूब वायरल हुआ था। उत्तर प्रदेश के हमीरपुर के जेठखरी गाँव की दो लड़कियां शादी करती हैं। किसी गाँव में शादी का ऐसा दृश्य जीवन में पहली बार देखा गया। वहां पूरा घर-परिवार और विवाह में बंधा जोड़ा खुश और सहज लग रहे थे उससे पता चलता है कि उनके लिए वहां परिवेश काफी हद तक समावेशी है।

अगर होमोसेक्सुअलिटी और क्वीयर को लेकर ग्रामीण परिवेश में उनके बसर पर बात की जाएं तो यही लगता है कि गाँव में उनका जीवन बहुत कठिन होता है। गाँव और शहर इसको लेकर भले ही बहुत भिन्न नहीं हैं लेकिन गाँव में लोगों का जीवन बेहद सामाजिक होता है। पीढ़ियों से लोग एक-दूसरे के परिवारों को जानते और समझते रहते हैं और ग्रामीण जीवन इन चीजों को लेकर बहुत कठोर सामाजिक बहिष्कार होता है।

भारत जैसे देश और इस तरह के अन्य देशों के लिए भी ये तस्वीर बहुत सुखद है। उस दृश्य में दोनों जोड़े विवाह कर चुके हैं। घर के आंगन में एक खटिया पर वे दोनों बैठे हैं। पत्रकार उनसे उनके रिश्ते को लेकर बातचीत कर रहा है। बहुत तरह के सवाल हैं कि कैसे पता चला कि तुम दोनों होमोसेक्सुअल हो, कब महसूस हुआ कि तुम दोनों को प्रेम हो गया, आसपास के लोगों की तुम दोनों के रिश्ते को लेकर किस तरह की प्रतिक्रिया है आदि। पत्रकार के सारे सवालों का वे लड़कियां बहुत सहजता से जवाब देती रहीं और आंगन में पास ही बैठी उनकी माँ मिट्टी का चूल्हा बना रही होती है। वह बहुत ही सहजता और उल्लास से वे दोनों के रिश्ते को लेकर बातें कर रही हैं उनकी मुस्कुराहट से ही पता चल रहा था कि उन्होंने अपने बच्चों के रिश्ते को पूर्ण रूप से स्वीकार किया है। 

जिस तरह की खबरें ग्रामीण क्षेत्रों से आती रहती हैं उस लिहाज से किसी गाँव से आई ये तस्वीर एकतरह का सुखद अपवाद है। क्वीयर अधिकारों को लेकर यहां तरह-तरह के आडंबर और अंधविश्वास की बातें मान्यता में हैं। क्वीयर रिश्तों को ज्यादातर यहां भूत-पिशाच और चुड़ैल आदि का प्रकोप कहते हैं। जागरूकता और अवैज्ञानिक सोच के कारण ट्रांस समुदाय के लोगों का अपमान या उनका भद्दा मजाक बनाते हैं। लोगों की संवेदनहीनता इस हद तक है कि उनके साथ हिंसा की जाती है। अश्लील गालियां देना और यौन शोषण करना जैसे उनका अधिकार है। रूढ़िवादी जड़ समाज में ऐसे लोगों को एहसास नहीं होता कि जो वे कर रहे हैं मनुष्यता के लिए वो अपराध है। इससे ट्रांस समुदाय के लोगों के मनोबल, मन मष्तिष्क पर क्या प्रभाव पड़ेगा, वे कैसे इस तरह के क्रूर सामाजिक परिवेश में रहेंगे जहां इतनी संवेदनशीलता नहीं है।

गाँव-जवार के कुछ एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों की बातचीत से ये बात निकलकर आई कि गाँव में होमोसेक्सुअल संबंधों को लेकर लोगों का नज़रिया बदलने में अभी बहुत समय लगेगा। वे अभी क्वीयर संबंधों को किसी नई दुनिया की बात मानते हैं। 

अगर होमोसेक्सुअलिटी और क्वीयर को लेकर ग्रामीण परिवेश में उनके बसर पर बात की जाएं तो यही लगता है कि गाँव में उनका जीवन बहुत कठिन होता है। गाँव और शहर इसको लेकर भले ही बहुत भिन्न नहीं हैं लेकिन गाँव में लोगों का जीवन बेहद सामाजिक होता है। पीढ़ियों से लोग एक-दूसरे के परिवारों को जानते और समझते रहते हैं और ग्रामीण जीवन इन चीजों को लेकर बहुत कठोर सामाजिक बहिष्कार होता है। किसी सामान्य मनुष्य का सामाजिक बहिष्कार बहुत बड़ी पीड़ा होती है। घृणा की बहुत सी निगाहें हमेशा टिकी रहती हैं जो लोग आपको जन्म से जानते-मानते रहते हैं और आपको भी वे सब अपने लगते हैं। एकदिन आप देखते हैं कि वो आपसे बहुत घृणित वर्ताव करते हैं तो जीवन बड़ा जटिल हो जाता है। इस सामाजिक असहिष्णुता और कट्टरता के खिलाफ एलजीबीटीक्यू+ समुदाय अपनी लड़ाई बहुत धैर्य और साहस से लड़ रहे हैं और धीरे-धीरे ही सही उम्मीद की जा सकती है कि न्याय और समानता की रोशनी गाँवों तक जरूर पहुंचेगी।


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