आदिवासी जीवन की कहानियां हम सबने कभी न कभी पढ़ी या सुनी हैं। इनमें अक्सर आदिवासी संस्कृति, परंपरा और उनके जीवन के संघर्षों की झलक मिलती है, लेकिन इन कहानियों में हमें अक्सर वह सच्चाई नहीं दिखती जो उनकी पहचान, भाषा और गरिमा के लगातार छीने जाने की दर्दनाक प्रक्रिया को उजागर कर सके। खासतौर पर संथाल आदिवासी समुदाय, जिनकी अपनी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर, भाषा और पहचान है, आज मुख्यधारा के समाज और व्यवस्था द्वारा उपेक्षा और शोषण का सामना कर रहा है।
संथाल आदिवासी महिलाओं की स्थिति और भी कठिन है। वे न केवल एक महिला होने के कारण, बल्कि एक हाशिए पर खड़े समुदाय से ताल्लुक रखने के कारण, दोहरे शोषण और चुनौतियों का सामना करती हैं। उनकी स्थिति समाज और परिवार दोनों के दमनकारी ढाँचों के बीच पिसने की त्रासदी को बयां करती है। हंसदा सोभेन्द्र शेखर की किताब “आदिवासी नहीं नाचेंगे” इस छुपी हुई सच्चाई को बेबाकी से उजागर करती है। यह किताब उन कहानियों का संग्रह है, जो विशेष रूप से संथाल आदिवासी समाज की गहराई में जाकर उनके संघर्षों और उनकी उपेक्षित वास्तविकता को सामने लाती हैं। खासतौर पर संथाल आदिवासी महिलाओं के दर्द, उनकी लड़ाई और उनकी अस्मिता को बेहद संवेदनशील और तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है। किताब आदिवासी समाज को केवल सांस्कृतिक प्रतीक या लोकनृत्य तक सीमित देखने वाली धारणाओं को तोड़ने का काम करती है और उनकी असल आवाज को मंच देती है।
“आदिवासी नहीं नाचेंगे” झारखंड की पृष्ठभूमि पर आधारित कहानियों का संग्रह है, जो पितृसत्तात्मक समाज की जड़ें हिलाने का साहस करती है और साथ ही सत्ता और राजनीति की दमनकारी ताकतों पर तीखा प्रहार करती है। यह पुस्तक आदिवासी समाज के शोषण, उनकी पहचान और गरिमा को दबाने की व्यवस्थागत कोशिशों को उजागर करती है। खासकर, यह आदिवासी महिलाओं के संघर्षों को केंद्र में लाती है, जो एक ओर महिला होने के कारण पितृसत्तात्मक दमन का शिकार होती हैं, और दूसरी ओर एक हाशिए पर खड़े समुदाय से होने के कारण दोहरी मार झेलती हैं। यह कहानियां सत्ता संरचना और सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देती हैं, जो आदिवासी जीवन को मात्र एक तमाशे और उनकी सांस्कृतिक पहचान को मनोरंजन का साधन बनाने का प्रयास करती हैं।
“सिर्फ मजदूर नहीं, एक आदिवासी महिला होना भी यहां अपराध लगता है”, यह लाइन आदिवासी महिलाओं की दोहरी मार और समाज में उनके प्रति गहरे भेदभाव को व्यक्त करती है। यह आदिवासी महिलाओं के संघर्षों को उजागर करती है, जो केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान के स्तर पर भी हैं। आदिवासी समुदाय को उनकी संस्कृति, भाषा और परंपराओं के कारण मुख्यधारा के समाज में हाशिए पर रखा जाता है। विशेष रूप से, आदिवासी महिलाएं, जो पहले से ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था और गरीबी से जूझ रही होती हैं, शहरों और कामकाजी स्थानों पर दोहरे भेदभाव का सामना करती हैं। एक ओर, वे एक आदिवासी होने के कारण अपमानित होती हैं, और दूसरी ओर, एक महिला होने के कारण उन्हें कमजोर और असुरक्षित समझा जाता है। उनके श्रम को महत्व नहीं दिया जाता, और उनकी अस्मिता को बार-बार चोट पहुंचाई जाती है। यह पंक्ति समाज की उस कड़वी सच्चाई को उजागर करती है, जहां आदिवासी महिलाओं को उनके अस्तित्व और पहचान के कारण ही अलग-थलग कर दिया जाता है। यह न केवल उनकी सुरक्षा और अधिकारों की अनदेखी का प्रतीक है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कैसे उनके जीवन को ही अपराध के समान माना जाता है। यह उनके संघर्ष और पीड़ा की कहानी है, जो समाज की संवेदनहीनता पर गंभीर सवाल उठाती है।
“यह सिर्फ मेरा संघर्ष नहीं, बल्कि हर आदिवासी का दर्द है। हमारी कहानियां सिर्फ आंकड़े नहीं, हमारे अस्तित्व की लड़ाई हैं” जैसी पक्ति आदिवासी समुदाय के सामूहिक संघर्ष को व्यक्त करती है। यह दिखाती है कि आदिवासियों का दर्द केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि यह पूरे समुदाय का साझा अनुभव है। उनका संघर्ष अपनी पहचान, संस्कृति, और भूमि को बचाने के लिए है। उनकी कहानियां सिर्फ आंकड़ों में नहीं समाहित होतीं; यह उनकी गरिमा और अस्तित्व की रक्षा की जंग हैं। आदिवासियों के संघर्ष को समझने और सुनने की आवश्यकता है, क्योंकि यह एक सांस्कृतिक और सामाजिक लड़ाई है।
इस किताब में शरीर, यौनिकता और व्यक्तिगत संबंधों को बहुत बारीकी और खुलेपन के साथ चित्रित किया गया है, जो कभी-कभी पाठकों का ध्यान असली मुद्दों से हटा सकता है। लेखक ने इन संवेदनशील और जटिल पहलुओं को विस्तार से प्रस्तुत किया है, लेकिन यह भी संभव है कि इस विश्लेषण के चलते आदिवासी समाज के मूल संघर्षों जैसे भूमि अधिकार, पहचान, और उनके अस्तित्व की रक्षा को उतनी गहराई से नहीं देखा जाए। इन विषयों की अत्यधिक चर्चा, जो कभी-कभी उपन्यास की प्रमुख कथा से भटकती है, आदिवासी समुदाय के दुखों और चुनौतियों को सही संदर्भ में समझने में बाधा डाल सकती है। इस प्रकार, किताब में यौनिकता के विषय पर अधिक फोकस, आदिवासी संघर्ष के अन्य पहलुओं को धुंधला कर सकता है।
किताब “आदिवासी नहीं नाचेंगे” संथाल आदिवासी समुदाय के संघर्षों और उनके दर्द को बेबाकी से सामने लाती है। यह आदिवासी महिलाओं की दोहरी मार को उजागर करती है, जो पितृसत्तात्मक और सांस्कृतिक शोषण का शिकार हैं। किताब में यौनता और शारीरिक संबंधों पर अधिक ध्यान केंद्रित करने से कभी-कभी असली मुद्दों, जैसे आदिवासी पहचान, भूमि अधिकार और अस्तित्व की रक्षा, पर ध्यान भटक सकता है। फिर भी, यह पुस्तक आदिवासी समाज के संघर्षों को समर्पित है और उनकी आवाज़ को प्रमुख मंच देती है, जो सत्ता और सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देती है।