सावित्रीबाई फुले हमारे देश की पहली महिला शिक्षिका हैं। उन्होंने देश में लड़कियों और औरतों के शिक्षा के अधिकारों के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ीं। अंग्रेजी शासन के दौर में जब अंग्रेज भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कर रहे थे तब भी भारतीय समाज में महिलाओं को केवल घर के कामों तक सीमित रखा जा रहा था। ऐसे समय में सावित्री बाई ने लड़कियों की शिक्षा के लिए काम किया। इतना ही नहीं उन्होंने विधवा विवाह, गर्भवती बलात्कार सर्वाइवरों का पुनर्वास और छुआछूत मिटाने के लिए भी लड़ाई लड़ी।
सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने 1848 में पुणे में पहला स्कूल खोला। इस स्कूल की शुरुआत 25 लड़कियों से हुई थी। उसकी प्रधानाध्यापिका सावित्रीबाई और शिक्षिका सगुनबाई, फातिमा शेख़ थीं। उनके स्कूल में सभी वर्ग, धर्म, जाति की लड़कियां पढ़ने आती थीं। साल 1848 से 1852 के बीच फुले दंपत्ति ने कुल 18 स्कूल खोले थे। सावित्री बाई फुले ने शिक्षा हासिल कर अपने जीवन का लक्ष्य अन्य लोगों को शिक्षित करना चुना। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे हर वर्ग, धर्म, जाति की लड़कियों को पढ़ाने के लिए आगे आईं।
हर साल तीन जनवरी को सावित्री बाई फुले का जन्मदिवस मनाया जाता है। अनेक जगहों पर कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। भोपाल शहर में स्थित सावित्री बाई फुले, फातिमा शेख लाईब्रेरी और सेंटर्स पर इस दिन को बड़े उत्साह से मनाया जाता है। किशोर और किशोरियां सावित्रीबाई की कविताएं पढ़ते हैं। सावित्रीबाई और फातिमा शेख की दोस्ती को दिखाने के लिए नुक्कड़ नाटक किए जाते हैं। कोई सावित्रीबाई की तरह कपड़े पहनता है। शिक्षा जगत में उनके योगदान के बारे में किशोर और किशोरियों के बीच चर्चा होती है। युवा लड़कियों में खूब जोश दिखाई देता है। इन सेंटरों पर अधिकतर हाशिये के समुदाय की लड़कियां आती हैं जो अलग-अलग समय पर सावित्रीबाई के संघर्षों उनके कामों को याद कर खुद में ताकत महसूस करती हैं। सावित्रीबाई “यानि हमारी पुरखिन“ कैसे हमारी प्रेरणाओं का स्त्रोत हैं और पुस्तकालय आने वाली किशोरियों और युवाओं के लिए उनका होना क्या मायने रखता है यह हमने जाना।
“तो मैं क्यों सोचूं, कि पढ़ाई की उम्र निकल गई”
लाइब्रेरी आने वाली अधिकतर लड़कियां हाशिये के समुदाय से ताल्लुक रखती हैं जिनमें से कई पढ़ाई छूटने के बाद दोबारा पढ़ रही हैं। वे तमाम मुश्किलों को पीछे धकेलते हुए आगे निकल कर पढ़ रही है। लाइब्रेरी आने वाली तैयबा सावित्रीबाई को अपना आदर्श मानती हैं। उनका कहना है, “सावित्रीबाई भी पहले पढ़ी-लिखी नहीं थीं, उन्होंने शादी के बाद पढ़ाई शुरू की। तो मैं क्यों सोचूं कि पढ़ाई की उम्र निकल गई। मेरा सपना पढ़ना भी है और पढ़ाना भी! तो मैं आगे खूब पढ़ूंगी और पढ़ाती रहूंगी।” सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं और दलितों की शिक्षा के लिए विशेष तौर पर काम किया। उन्होंने अपने काम से न सिर्फ़ ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को चुनौती दी थी बल्कि शिक्षा पर ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए पहला कदम उठाया।
जया सूर्यवंशी सेंटर पर आने वाली लड़कियों में से एक हैं। वह सावित्रीबाई को लेकर अपने विचार रखते हुए कहती है, “मैंने यह भी पढ़ा है कि उस समय छुआछूत के चलते दलित वंचित लोगों को सार्वजनिक कुएं से पानी नहीं लेने दिया जाता था। ऐसे में सावित्रीबाई ने दलित वंचित लोगों के लिए अपने घर का कुआं खोल दिया था। आज डेढ़ सौ वर्ष बाद भी हमारे दलित समाज के पानी के नल अलग हैं। हमारी बस्तियां अलग हैं। मैं सोचती हूं हम कितने धीरे चल रहे हैं। अपने लिए “एक समान घर”, “एक समान नल- पानी” का हक लेने का संघर्ष आज भी चल रहा है। जो रोज हमारी बस्तियों में दिखता है, हमारी बस्तियां अलग हैं।” सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवन में हमेशा छूआछूट और जातिगत भेदभाव का विरोध किया।
सावित्रीबाई फुले एक कवयित्री भी थीं जिन्होंने मराठी साहित्य में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज को बदलने का काम किया। उन्होंने अपनी कविताओं में समाजिक कुरीतियों पर बात की। सावित्रीबाई फुले की कविताओं से प्रेरणा लेने वाली समीक्षा विश्वकर्मा का कहना है, “सावित्रीबाई की लिखी कविताएं हम अपने लाइब्रेरी के पोस्टर में लिखकर लगाते हैं, पोस्टर से वह कविताएं बच्चे और बड़े पढ़ते हैं। उनकी लिखी कविता, मुझे असल ज़िंदगी की कविता लगती है। जैसे उनकी एक कविता जो काव्य फुले किताब से है- ‘जाओ जाकर पढ़ो-लिखो बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती, काम करो- ज्ञान और धन इकट्ठा करो, ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं इसलिए, खाली ना बैठो, जाओ, जाकर शिक्षा लो, दमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अंत करो, तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है, इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो।’ उनकी कविताओं को पढ़कर मुझे हिम्मत मिलती है।”
भोपाल में बनी इन लाइब्रेरी में आने वाली हर लड़की खुद में सावित्रीबाई को महसूस करती है। वे उनकी बातों को अपने जीवन में उतारते हुए आगे बढ़ रही हैं। मदारी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली सानिया खान लाइब्रेरी में पढ़ती और पढ़ाने दोनों काम करती हैं। वह कहती हैं, “सावित्रीबाई फुले ने जिस तरह महिला शिक्षा के लिए, महिलाओं की बेहतरी के लिए काम किए उनका योगदान देखकर मुझे प्रेरणा मिलती है। अपने समुदाय के लोगों की ज़िंदगियां बदलने के लिए अब हमारी बारी है। समाज में योगदान देने की और खूब मेहनत करने की। मैं मेडिकल की पढ़ाई कर रही हूं, जिससे कम से कम पैसे में समुदायों के लोगों का इलाज कर सकूं। साथ ही दूसरी लड़कियों को बस्तियों में जा जाकर सावित्रीबाई के बारे में पढ़कर सुनाती हूं।” सावित्रीबाई फुले से प्रेरणा लेती हर सेंटर और लाइब्रेरी आने वाली सभी लड़कियां आगे बढ़ने का जुनून थामे हुए है। उनकी बातों में सावित्री बाई हैं, उनके जवाबों में उनकी कविताएं हैं।
“सावित्री माई से मुझे हिम्मत मिलती है”
हुरीया खान कहती हैं, “मुझे हिम्मत मिलती है सावित्री माई के बारे में पढ़कर, इतने साल पहले भी कोई औरत थीं जो दूसरे लोगों के लिए आवाज़ उठा रही थी। आज मेरा भी तो यही फ़र्ज़ बनता है मैं खुद के लिए और दूसरों के लिए काम करूं, आवाज़ उठाऊं।” वहीं नैंसी विश्वकर्मा कहती हैं, “पिछले साल मैंने नाटक में सावित्रीबाई का रोल किया था। मैं सोच रही हूं, सावित्रीबाई का रोल तो हम सबको रोज निभाना ही चाहिए। सावित्रीबाई हमारी आदर्श हैं।” दलितों, वंचितों, स्त्रियों को तालीम देने की वजह से फुले दंपती और ख़ासकर सावित्रीबाई को काफ़ी बाधाएं, विरोध, परेशानियां और बेइज़्ज़ती का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने हर बाधाओं को पार किया। उन्होंने हमेशा समस्याओं का हल निकालने की ओर ध्यान दिया।
सावित्रीबाई फुले को लेकर दरअसल ये सभी बातें जिससे युवतियां और किशोरियां प्रेरित है, वे आज शिक्षा के सीमित ढांचों को तोड़कर शिक्षा की समग्रता के बारे में हमें बताती है। शिक्षा कितनी बहुआयामी है ये समुदाय की लड़कियों से हमें समझने को मिलता है। वे सावित्रीबाई के जीवन के तौर तरीक़ों को कहीं न कहीं अपनाने की भावना अपने भीतर पनपा रही हैं और वे स्वयं इसको केवल अपनी तालीम का हिस्सा नहीं मानती हैं बल्कि वे खुद स्वयं के लिए और समाज में नयापन लाने के लिए इसके प्रयासों में उतरना अपनी जिम्मेदारी के तौर पर लेती हैं।
ये किशोरियां अपने जीवन के हर पहलू में सावित्रीबाई के कदमों और विचारों से प्रेरित है। चाहे उनकी लिखी कविता हो या उनकी जीवनी आधारित नाटक उससे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ रही हैं। उनके कदमों पर चलकर ये आसानी से समुदाय के बच्चों, किशोर, किशोरियों और अन्य युवाओं को जोड़ रही है। इतना ही नहीं सावित्रीबाई और उनसे जुड़े अध्याय समुदाय में, पाठकों में उनके अपने अध्याय की तरह है। जिसकी स्वीकार्यता हमें सिखाती है कि समाज के ऐसे नायक जिनके जीवन संघर्ष हाशिये के लोगों, वंचित और उत्पीड़ितों के लिए रहे, वे समाज में न सिर्फ़ सामाजिक बदलाव की भूमिका निभा रहे हैं बल्कि वे आज भी ऐतिहासिक अध्याय बनकर सतत संघर्ष कि राह बने हुए हैं।