नीरज घायवान की “गीली पुच्ची” एक ऐसी फिल्म है जो समाज के हाशिए पर खड़े समुदाय के लोगों की कहानियों को न केवल सामने लाती है, बल्कि उनपर गहनता से विचार करने का मौका भी देती है। यह फिल्म जाति, जेंडर, और यौनिकता जैसे संवेदनशील विषयों को बेहद सटीक और गहराई से उजागर करती है। 2021 में रिलीज़ हुई इस शॉर्ट फिल्म ने भारतीय सिनेमा में एक नई लहर पैदा की, जहां व्यक्तिगत और सामाजिक संघर्षों के बीच छिपी परतों को उकेरा गया। कोंकणा सेन शर्मा और आदिति राव हैदरी के दमदार अभिनय ने इस कहानी को और भी प्रभावशाली बना दिया है। यह केवल एक कहानी नहीं, बल्कि सामाजिक असमानता और पितृसत्तात्मक ढांचे के खिलाफ एक महत्वपूर्ण विमर्श है।
फिल्म की कहानी मुख्य रूप से दो महिलाओं के इर्द-गिर्द घूमती है- भारती मोंडल (कोंकणा सेन शर्मा) और प्रिया शर्मा (आदिति राव हैदरी)। भारती एक दलित महिला है जो एक फैक्ट्री में काम करती है। वह बेहद कुशल और मेहनती है। लेकिन उसकी जाति उसके करियर और व्यक्तिगत जीवन में एक दीवार बनकर खड़ी है। दूसरी ओर, प्रिया एक ब्राह्मण महिला है, जो उसी फैक्ट्री में नौकरी शुरू करती है। भारती और प्रिया के बीच एक असमान मित्रता पनपती है। यह रिश्ता न केवल उनकी व्यक्तिगत पृष्ठभूमियों की टकराहट को उजागर करता है, बल्कि समाज में जाति और लैंगिक असमानता के गहरे घावों को भी उभारता है।
जातिगत भेदभाव के पहलुओं को बताती फिल्म
फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण पहलू जातिगत भेदभाव है। भारती, जो दलित है, अपनी योग्यता और मेहनत के बावजूद फैक्ट्री में प्रमोशन से वंचित रह जाती है। उसका सुपरवाइजर स्पष्ट रूप से उसके दलित होने के कारण उसे मौका देने से इंकार करता है। इसके विपरीत, प्रिया को केवल उसकी जाति और ‘साफ-सुथरी’ शारीरिक छवि के कारण प्राथमिकता मिलती है। यह कहानी न केवल कार्यस्थल पर जातिगत भेदभाव को दिखाती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे जाति हमारी निजी और सामाजिक ज़िंदगी को प्रभावित करती है। भारती के पास अपने अनुभव और कड़ी मेहनत के बावजूद उच्च जाति के लोगों जैसे समान अवसर नहीं हैं। यह जातिगत असमानता का एक मार्मिक चित्रण है।
फिल्म जेंडर के मुद्दों पर भी गंभीरता से बात करती है। दोनों महिलाएं भले ही अलग-अलग जातियों से हैं, लेकिन पितृसत्ता की चपेट में हैं। प्रिया को अपने पति और ससुराल वालों की उम्मीदों के अनुसार व्यवहार करना पड़ता है। वहीं, भारती एक एकल महिला है, जो समाज के नियमों से परे अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही है। प्रिया का किरदार पितृसत्तात्मक समाज के भीतर एक ‘आदर्श’ महिला का प्रतीक है, जो बाहर से खुश और संतुष्ट दिखती है।
लेकिन अंदर से गहरी असुरक्षा और बेचैनी से भरी हुई है। इस वजह से वह अपने जीवन में वास्तव में क्या पसंद करती है, उसे व्यक्त नहीं कर पाती। वहीं, भारती का किरदार, जो एक दलित है, समाज उसे स्वीकार नहीं करता,भारती इस व्यवस्था के खिलाफ खड़ी होती है और अपने तरीके से अपनी जगह बनाने की कोशिश करती है। उसने खुद को स्वीकार कर लिया है। वह अपनी यौनिकता को तलाश सकती है और अपनी शर्तों पर जीने की आजादी रखती है।
कोंकणा सेन शर्मा ने भारती के किरदार को यादगार बना दिया है। उनकी आँखों में छिपा दर्द, उनकी आवाज़ में छुपी मजबूती और उनके हाव-भाव हर दृश्य में प्रभावी हैं। “गीली पुच्ची” मेरे लिए केवल एक फिल्म नहीं है, बल्कि यह उन अनुभवों का प्रतिबिंब है, जो मैंने अपने जीवन में महसूस किए हैं। भारती के किरदार से जुड़ते हुए, मैंने देखा कि कैसे जातिगत पहचान हमारे व्यक्तिगत और पेशेवर रिश्तों को प्रभावित करती है। इस फिल्म ने मुझे गहराई से सोचने पर मजबूर किया कि हमारे समाज में असमानता कितनी जटिल और गहराई तक जमी हुई है। कोंकणा सेन शर्मा का प्रदर्शन न केवल भारती के संघर्षों को उजागर करता है, बल्कि यह मेरे अपने अनुभवों को भी आवाज़ देता है। खासतौर पर जब किसी स्वर्ण जाति के मित्र का व्यवहार मेरी जाति का पता चलने पर बदल जाता है वह दर्द और अस्वीकार्यता मैंने खुद महसूस की है। यह फिल्म मेरे लिए एक दर्पण है, जो पितृसत्ता और जातिगत पूर्वाग्रहों की सच्चाई को सामने रखती है।
फिल्म यह सवाल उठाती है कि क्या महिलाएं, चाहे वे किसी भी जाति से हों, वास्तव में समानता का अनुभव कर सकती हैं? क्या जाति और पितृसत्ता की जकड़न से परे जाकर महिलाओं के बीच सच्ची दोस्ती संभव है? ये सवाल दर्शकों को झकझोरते हैं और उन्हें सोचने पर मजबूर करते हैं। इस फिल्म को केवल मनोरंजन के एक साधन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए; इसका उद्देश्य भारतीय समाज में विद्यमान जातिगत और लैंगिक असमानताओं पर एक संवेदनशील संवाद को स्थापित करना है। “गीली पुच्ची” दर्शकों को यह संदेश देती है कि वास्तविक परिवर्तन की प्रक्रिया सतही स्तर पर नहीं हो सकती।
इसके लिए जरूरी है कि समाज की जड़ों की गहराई में धंसी हुई उन संरचनाओं को चुनौती दी जाए, जो इन असमानताओं को बनाए रखती हैं। इसके अलावा, यह फिल्म उन आवाज़ों को मंच प्रदान करती है जो आमतौर पर मुख्यधारा के विमर्श में दबकर रह जाती हैं। “गीली पुच्ची” यह स्पष्ट करती है कि परिवर्तन की प्रक्रिया की शुरुआत व्यक्ति की अपनी स्वीकृति तथा अपने पूर्वाग्रहों को चुनौती देने से होती है। इस संदर्भ में, यह प्रश्न उठता है कि क्या एक ऐसा समाज संभव है, जहां जाति, लिंग, और यौन पहचान से परे, मानवता के आधार पर संबंध विकसित किए जा सकें? यही सोच फिल्म देखने के बाद दर्शकों के मन में गूंजता रहता है।