संस्कृतिसिनेमा जातिवादी व्यवस्था को आईना दिखाती छत्तीसगढ़ की पहली फ़िल्म ‘कहीं देबे संदेश’

जातिवादी व्यवस्था को आईना दिखाती छत्तीसगढ़ की पहली फ़िल्म ‘कहीं देबे संदेश’

अंतरजातीय प्रेम संबंधों को लेकर समाज का नकारात्मक रवैया भी फ़िल्म में उभरकर आता है। रूपा, जो ब्राह्मण लड़की है, अंतरजातीय शादी के कारण चरित्रहीन होने का आरोप लगाया जाता है। फ़िल्म में यह भी दिखाया गया है कि कैसे शादी न करने वाली लड़की को समाज बोझ मानता है।

आज भी लोकतांत्रिक देश में जाति के आधार पर कितने ही लोगों को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता है। पिछले कुछ दशकों की बात करें तो साफ़-साफ़ देखने या सुनने को मिलता है कि दलित या कथित नीची जाति के लोगों को ब्राह्मणवादी समाज के मानदंडों के कारण अपमान, तिरस्कार शोषण और उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है। समय-समय पर अनेक साहित्यकार और कलाकारों ने जाति के विषय पर प्रमुखता से बात की है और भारतीय जाति व्यवस्था की आलोचना भी की है।

इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी बनी पहली फ़िल्म जिसमें समाज के जातिभेद और दो अलग वर्गों के बीच अंतरजातीय प्रेम विवाह को दिखाया गया। इस फ़िल्म को सन 1965 में प्रदर्शित किया गया और इस फ़िल्म का लेखन और निर्देशन छत्तीसगढ़ के मनुनायक द्वारा किया गया। यह फ़िल्म 1965 दशक के दौरान समाज के प्रमुख जाति संरचना, छुआछूत और निरक्षरता को दिखाने वाली फ़िल्म थी। मनुनायक की फिल्म को उल्लेखनीय बनाती है इसकी कहानी जो अनतर्जातीय विवाह के मुद्दे पर बात करती है, जिसे आज भी देश के कई हिस्सों में नापसंद किया जाता है। 

यह फ़िल्म 1965 दशक के दौरान समाज के प्रमुख जाति संरचना, छुआछूत और निरक्षरता को दिखाने वाली फ़िल्म थी। मनुनायक की फिल्म को उल्लेखनीय बनाती है इसकी कहानी जो अनतर्जातीय विवाह के मुद्दे पर बात करती है, जिसे आज भी देश के कई हिस्सों में नापसंद किया जाता है। 

समाज को आइना दिखाती फ़िल्म की कहानी 

यह फ़िल्म छत्तीसगढ़ के एक गांव पर आधारित है, जहां उच्च जाति और दलित समुदाय के बीच नियमित संघर्ष होता है। कहानी की शुरुआत एक पंचायत सभा से होती है, जिसमें गांव का ज़मींदार और पुजारी समाज को भड़काने के लिए कहते हैं कि ब्राह्मण भगवान के मुख से और दलित उनके पैरों से जन्म लेते हैं। इस कारण समाज में कभी बराबरी नहीं हो सकती। गांव में शिवप्रसाद, जो ज़मींदार है, और चरणदास, जो दलित समुदाय के मुखिया हैं, के बीच ज़मीन को लेकर विवाद चलता रहता है। चरणदास इस विवाद को अदालत तक ले जाना चाहते हैं, लेकिन आख़िरकार अदालत ज़मींदार के पक्ष में फैसला सुनाती है।

तस्वीर आभार: Wikipedia

गांव के बच्चों को स्कूल में जातिगत भेदभाव पर सवाल उठाते और इस पर चर्चा करते हुए दिखाया गया है। कुछ वर्षों बाद चरणदास का बेटा नयनदास उच्च शिक्षा के लिए कृषि विश्वविद्यालय जाता है। वहां नयनदास को यह पता चलता है कि ज़मींदार की बहन रूपा, उसकी बचपन की दोस्त थी। नयनदास अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद गांव लौटता है और समुदाय की खेती में मदद करने लगता है। इस दौरान, वह और रूपा फिर से दोस्त बन जाते हैं। उनकी दोस्ती धीरे-धीरे प्यार में बदल जाती है, लेकिन उन्हें यह भी पता है कि उनका अलग-अलग समुदायों से होना एक बड़ी समस्या है।

कहानी की शुरुआत एक पंचायत सभा से होती है, जिसमें गांव का ज़मींदार और पुजारी समाज को भड़काने के लिए कहते हैं कि ब्राह्मण भगवान के मुख से और दलित उनके पैरों से जन्म लेते हैं। इस कारण समाज में कभी बराबरी नहीं हो सकती।

जातिगत भेदभाव और समाज की हकीकत

फ़िल्म के कुछ दृश्यों में कथित नीची जाति के लोगों पर हो रहे भेदभाव को मार्मिक रूप से दर्शाया गया है। गांव लौटने के बाद नयनदास समुदाय की भलाई के लिए एक ग्राम सहकारी समिति स्थापित करने की कोशिश करता है। इस बीच, कमलनारायण पांडे, जो रूपा और नयनदास के रिश्ते से ईर्ष्या करता है, गांव में अफ़वाह फैलाता है कि ज़मींदार की बहनें शादी की उम्र पार कर रही हैं। इस अफ़वाह से गांव में चर्चाएं तेज़ हो जाती हैं। ज़मींदार अपनी बहनों के लिए योग्य वर ढूंढने की कोशिश करता है। कमल, रूपा और नयनदास के प्रेम संबंध को लेकर पूरे गांव में हंगामा खड़ा कर देता है। अलग जातियों के बीच प्यार को समाज के लिए भूकंप जैसा बताया जाता है। कई मुसीबतों के बावजूद, नयनदास और रूपा मंदिर में जाकर शादी कर लेते हैं। इस शादी से गुस्साए कमल और पुजारी गांव में आग लगा देते हैं। शादी के बाद, नयनदास और रूपा समाज को संदेश देते हैं कि जातिगत भेदभाव को मिटाना बेहद ज़रूरी है। वे यह भी कहते हैं कि समाज को लोगों को परिभाषित नहीं करना चाहिए, बल्कि लोगों को समाज को परिभाषित करना चाहिए।

पितृसत्ता और जातिवाद पर फ़िल्म का दृष्टिकोण

तस्वीर आभार: The Caravan

फ़िल्म “कहीं देबे संदेश” में जातिवाद के साथ-साथ पितृसत्ता को भी संवेदनशील ढंग से दिखाया गया है। फ़िल्म यह स्पष्ट रूप से बताती है कि कैसे अक्सर ब्राह्मण और उच्च जाति के लोग झूठे विचारों को बढ़ावा देते हैं। फिल्म में ब्राह्मण किरदार कहता है कि भगवान के मुख से वे और दलित उनके पैरों से जन्मे हैं। वहीं गरीबों की ज़मीन को पैसे और ताकत के बल पर हड़प लिया जाता है। स्कूलों में दलित बच्चों के साथ भेदभाव और दुर्व्यवहार के बावजूद वे पढ़ाई में आगे निकलते हैं और अपने गांव के विकास में योगदान देते हैं। इन सबके बावजूद, ऊंची जाति के लोग दलित समुदाय के लोगों की तरक्की को स्वीकार नहीं कर पाते। फ़िल्म में दिखाया गया है कि नयनदास द्वारा इस्तेमाल किए गए गिलास को पानी पीने के बाद जला दिया जाता है।

फ़िल्म में यह भी दिखाया गया है कि कैसे शादी न करने वाली लड़की को समाज बोझ मानता है। फ़िल्म में चरणदास और शिवप्रसाद की पत्नियों को समझदार और बिना भेदभाव के दिखाया गया है। वे हमेशा चीजों को सुलझाने की कोशिश करती हैं। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज उन्हें दबा देता है।

अंतरजातीय प्रेम संबंधों को लेकर समाज का नकारात्मक रवैया भी फ़िल्म में उभरकर आता है। रूपा, जो ब्राह्मण लड़की है, अंतरजातीय शादी के कारण चरित्रहीन होने का आरोप लगाया जाता है। फ़िल्म में यह भी दिखाया गया है कि कैसे शादी न करने वाली लड़की को समाज बोझ मानता है। फ़िल्म में चरणदास और शिवप्रसाद की पत्नियों को समझदार और बिना भेदभाव के दिखाया गया है। वे हमेशा चीजों को सुलझाने की कोशिश करती हैं। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज उन्हें दबा देता है। एक दृश्य में फूलमती अपने पति को सलाह देती है, लेकिन उसका पति कहता है कि तुम चुप रहो, डऊका जात (पुरुषों) के बीच तुम्हें बोलने का अधिकार नहीं है और उसे धक्का दे देता है।

अलग जातियों के बीच प्यार को समाज के लिए भूकंप जैसा बताया जाता है। कई मुसीबतों के बावजूद, नयनदास और रूपा मंदिर में जाकर शादी कर लेते हैं। इस शादी से गुस्साए कमल और पुजारी गांव में आग लगा देते हैं।

1965 से अब तक का सफर

1965 के समय और वर्तमान में बड़ा अंतर देखा जा सकता है, लेकिन जातिवादी व्यवस्था में बहुत ज़्यादा बदलाव नहीं आया है। आज भी समाज के लोग जातिगत भेदभाव और शोषण का सामना कर रहे हैं। संयुक्त यहूदी परोपकार (cjp.org) की रिपोर्ट के अनुसार, दलितों के खिलाफ हिंसा घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। संवैधानिक सुरक्षा और कानूनी संरक्षण के बावजूद, भारत में दलितों को शोषण और बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। हाल के दिनों में भी दलितों के साथ होने वाली घटनाएं जैसे किसी व्यक्ति पर पेशाब करना, उनका घर उजाड़ना, महिलाओं के साथ यौन हिंसा, शारीरिक हिंसा या बलात्कार जैसी घटनाएं सोशल मीडिया पर लगातार सामने आ रही हैं। लेकिन दुख की बात ये है कि ऐसे मामलों में कोई सख्त कार्रवाई नहीं होती है।

फ़िल्म का ऐतिहासिक महत्व

‘कहीं देबे संदेश’ उस दौर की पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म थी, जो जातिवादी और पितृसत्तात्मक समाज से आज़ादी का संदेश देती है। फ़िल्म का नाम इस संदेश को सार्थक रूप से प्रस्तुत करता है। हालांकि फ़िल्म को ब्राह्मण समुदाय और मंत्रिमंडल के विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी और विधायक मिनीमाता के हस्तक्षेप से यह रिलीज़ हो सकी थी। वर्तमान समय में भी फ़िल्म की प्रासंगिकता बनी हुई है। यह दोनों समय की सामाजिक स्थिति को उजागर करती है और समाज को सुधारने के लिए प्रेरित करती है।

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