बीते साल भारतीय महिला पहलवानों ने यौन शोषण के ख़िलाफ़ आंदोलन किया। दुनिया में देश का नाम रोशन करने वाली इन महिला पहलवानों को सड़क पर घसीटा गया। दिल्ली पुलिस द्वारा उनके साथ बदसलूकी और हिंसा की गई, हिरासत में लिया गया और जंतर-मंतर से उनका सामान उठाकर जबरदस्ती धरना खत्म कर दिया गया। खेल जगत में लैंगिक भेदभाव और हिंसा का यह इकलौता मामला नहीं है। स्पेन की फुटबॉल महासंघ के पूर्व प्रमुख लुइस रुबियालेस ने स्पेनिश फुटबॉल स्टार जेनिफर हेरमोसो के साथ उनकी सहमति के बगैर उन्हें सार्वजनिक मंच पर उन्हें किस किया गया। सत्ता और पुरुषों के वर्चस्व के कारण दुनिया भर में महिला खिलाड़ियों को लैंगिक आधार पर हिंसा और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। इन दुर्व्यवहार में जबरदस्ती नियंत्रण, निगरानी, शारीरिक हिंसा, शारीरिक दंड, मौखिक दुर्व्यवहार, धमकाना आदि शामिल हैं। खेलों में महिलाएं और लड़कियां आर्थिक हिंसा का भी सामना करती हैं। उदाहरण के लिए, जब महिला एथलीटों के पास अपनी कमाई पर नियंत्रण नहीं होता, या उन्हें शोषणकारी अनुबंधों पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया जाता है।
खेलों की दुनिया में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध करने वाले अपराधियों को सत्ता का समर्थन मिलने की वजह से उन्हें बहुत ही चुनिंदा मामलों में जिम्मेदार ठहराया जाता है और लंबे समय तक इस तरह के मामले चलते देखें गए। इस वजह से लंबे समय तक आरोपी अपने पदों पर बने रहते हैं। खेलों के तंत्र को पुरुष के द्वारा चलाया जा रहा है। इसी वजह से अधिकतर मामलों में, वे बिना किसी डर या सज़ा के सर्वाइवर के साथ दुर्व्यवहार जारी रखने के लिए स्वतंत्र होते हैं। खेल जगत में पितृसत्तात्मक कानून और नियम महिलाओं को इन समस्याओं को हल करने के किसी भी विकल्प से रोकते हैं, जिससे खेलों में उनकी भागीदारी सीमित या अवरुद्ध हो जाती है। इतना ही नहीं किसी देश के राजनीति, सरकार भी खेलों में लैंगिक आधार पर होने वाले भेदभाव का कारण बन सकती हैं। वर्तमान समय का ऐसा सबसे बड़ा उदाहरण अफगानिस्तान में तालिबान ने महिलाओं और लड़कियों की किसी भी तरह की खेलकूद गतिविधि पर पाबंदी लगा रखी है।
दुनिया में खेल जगत में बढ़ती लैंगिक हिंसा
सयुंक्त राष्ट्र की ‘टेक्लिंग वायलेंस अगेस्ट वीमन एंड गर्ल इन स्पोर्ट्स’ रिपोर्ट के मुताबिक़ खेलों की दुनिया में महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ हिंसा का जोखिम अस्वीकार्य रूप से अधिक है। लगभग 21 प्रतिशत पेशेवर महिला एथलीटों ने बचपन में खेलों के दौरान यौन शोषण का सामना किया है। यह दर पुरुष एथलीटों के मुकाबले लगभग दोगुनी है। विश्व स्तर पर, घरेलू हिंसा की पुलिस रिपोर्ट्स में मेगा-खेल आयोजनों जैसे फीफा वर्ल्ड कप के दौरान चिंताजनक रूप से वृद्धि होती है- कुछ समुदायों में यह एक तिहाई से अधिक बढ़ जाती है।
साल 2020 टोक्यो ओलंपिक खेलों के दौरान महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक ट्वीट्स में से 87 प्रतिशत महिला एथलीटों को लक्षित किया गया। जमीनी स्तर से लेकर पेशेवर खेलों तक, महिलाएं और लड़कियां एथलीट, कोच, रिपोर्टर, चिकित्सक, रेफरी और प्रशंसकों के रूप में हिंसा का अनुभव करती हैं। साल 2016 के यूएसए जिमनास्टिक्स यौन शोषण वाली घटनाओं और खेलों में लगातार बढ़ते उत्पीड़न मामलों ने खेलों में महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ पुरुष हिंसा पर चुप्पी तोड़ने में मदद की है। सर्वाइवर, व्हिसलब्लोअर और पत्रकार बार-बार यह दिखा चुके हैं कि अपराधियों ने अपनी शक्तिशाली स्थिति का दुरुपयोग करते हुए बिना सजा के हिंसा की है, जबकि खेल महासंघों ने खेल प्रतिभागियों की भलाई की तुलना में आर्थिक लाभ और सार्वजनिक छवि को प्राथमिकता दी है।
खेलों को हमेशा महिलाओं की समानता और सशक्तिकरण माना जाता है, लेकिन अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि खेलों के क्षेत्र में लैंगिक हिंसा कितने उच्च स्तर पर है। यूरोपियन जर्नल ऑफ स्पोर्ट्स साइंस में छपी जानकारी के मुताबिक़ मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और यौन हिंसा के रूप में 26 फीसदी से 75 फीसदी तक पाई गई है। शोध में शामिल चौथाई सीनियर एथलीटों ने मनोवैज्ञानिक हिंसा का अनुभव किया है, लगभग एक तिहाई ने यौन हिंसा का, और दो-तिहाई से अधिक ने भावनात्मक हिंसा का सामना किया है। 13 फीसदी एथलीटों ने तीनों प्रकार की व्यक्तिगत हिंसा (मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और यौन) का अनुभव होने की बात कही। खेलों में व्यक्तिगत हिंसा विभिन्न रूपों में होती है, जैसे भावनात्मक दुर्व्यवहार, अधिक प्रशिक्षण, धमकाना, शारीरिक आक्रामकता, दबाव डालकर दंड देना और यौन शोषण।
पुराने और मौजूदा समय के कई ऐसे मामलों से यह बात भी सामने आती है कि अपराधी लंबे समय तक कैसे दुरुपयोग जारी रख पाए। द कनवरशेसन में छपे शोध के मुताबिक़ सिस्टमेटिक तरीके से उन महिलाओं की सामूहिक आवाज़ों को विश्लेषित किया गया है जिन्होंने खेलों में लैंगिक हिंसा का अनुभव किया है। इसका उद्देश्य उनके अनुभवों को बेहतर ढंग से समझना और भविष्य में रोकथाम और प्रतिक्रिया संबंधी पहलों को सूचित करना था। प्रतिभागियों में वर्तमान और पूर्व एथलीट, कोच, अंपायर और प्रबंधक शामिल थे। शोध में पाया गया कि खेल में महिलाओं को कई प्रकार की हिंसा (यौन, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक) का सामना करना पड़ता है, और अक्सर यह हिंसा एक से अधिक अपराधियों द्वारा की जाती है। सबसे आम अपराधी कोच या अन्य अधिकारी व्यक्ति होते हैं, इसके बाद पुरुष एथलीट या आम जनता के सदस्य आते हैं।
हिंसा के माहौल बनाने के कारण
पारंपरिक रूप से खेलों को पुरुषों का क्षेत्र माना जाता है। यहां दुर्व्यवहार करने वालों को अक्सर कोई दंड नहीं मिलता, जबकि दुर्व्यवहार का समाना करने वाले लोग अपनी लड़ाई भी नहीं लड़ पाते हैं। हिंसा, असमानता और दुर्व्यवहार की वजह से वे अपना खेल तक छोड़ देते हैं। शीर्ष पदों और नेतृत्व में बैठे लोगों द्वारा टीम या खेल की प्रतिष्ठा को बचाने की कोशिश ज्यादा रहती है। उनके द्वारा यौन हिंसा, दुर्व्यवहार को कम करके दिखाने या नजरअंदाज किया जाता है। अमेरिका के कोच लैरी नासर द्वारा युवा महिला जिमनास्टों का यौन शोषण का मामला सामने आने के लंबे समय तक वह अपने पद पर बने रहे। नासर के खिलाफ पहली शिकायत 1997 में दर्ज की गई थी। इसके बाद में कई शिकायतों के बावजूद, नासर 2015 तक अमेरिका जिमनास्टिक्स और मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी में अपने कोचिंग पद पर बने रहे। दिसंबर 2017 में उन्हें नाबालिगों के यौन शोषण के कई मामलों में दोषी ठहराया गया। लगभग 20 साल तक ऐसा व्यक्ति खेलों की दुनिया में शीर्ष पद पर तैनात रहा जिसने यौन शोषण किया।
खेल संस्थाओं की जवाबदेही और परिणामों की कमी बड़े स्तर पर देखने को मिलती है। खेल संस्थानों द्वारा की गई जांचों के परिणाम अक्सर गोपनीय रखे जाते हैं। उदाहरण के लिए, 2017 में फ्रेमेंटल डॉकर्स और एएफएल की आलोचना हुई थी, जब उन्होंने यौन उत्पीड़न मामले को निपटाने के लिए “गोपनीयता समझौते” का उपयोग किया। यह दंडहीनता जवाबदेही की भारी कमी को दर्शाती है। साथ ही खेल जगत में होने वाले हिंसा और दुर्व्यवहार की रिपोर्टिंग में भी कमी है। महिला खिलाड़ियों की ही एक तरह की शेमिंग की जाती है। उनसे अनेक तरह के सवाल पूछे जाते है। विक्टिम ब्लेमिंग की जाती है। उनके खेल और आर्थिक तौर पर उनको परेशान किया जाता है। भारत में महिला पहलवानों ने पूर्व कुश्ती संघ के ख़िलाफ़ यौन शोषण पर चुप्पी तोड़ी और आंदोलन किया गया तो मीडिया में उन महिला खिलाड़ियों और उनके साथ खड़े अन्य खिलाड़ियों का मीडिया ट्रायल किया गया। उनके देर से बोलने तक पर सवाल किये गए। महिला एथलीटों को डर होता है कि दुर्व्यवहार की रिपोर्ट करने से उनकी फंडिंग और प्रायोजन भी छिने जाते हैं। दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट भी यह बताती है कि एथलीट अक्सर दुर्व्यवहार के शुरुआती संकेतों को पहचानने में असहज महसूस करते हैं और उनके पास उपलब्ध सहायता के बारे में जानकारी की कमी होती है।
खेलों में लैंगिक हिंसा को बढ़ावा देने वाले सामाजिक दृष्टिकोण
खेलों की दुनिया में पुरुषों का वर्चस्व है और पितृसत्तात्मक विचार हावी है। शारीरिक शक्ति और प्रभुत्व जैसे हाइपर मैस्कुलिनिटी यानी अति पौरूष के प्रभुत्व को महत्व दिया जाता है। खेलो में शारीरिक टकराव, वर्चस्व, शौर्य को न केवल स्वीकार किया जाता है बल्कि इसे बढ़ावा देने का काम भी किया जाता है। अक्सर खेलों की प्रतिस्पर्धा को टीम, नियम से अलग टकराव और जंग तक मान लिया जाता है। इस तरह की सोच खेलों में पुरुष वर्चस्व और उनकी विचारधारा को बढ़ावा देते हैं। खेल मनुष्य के विकास में साहयक है, एक समाज को समावेशी और प्रगतिशील बनाने के लिए हमें खेलों के क्षेत्र को समावेशी बनाना बहुत ज़रूरी है। खेलों के माध्यम से सामाजिक बाधाओं और मान्यताओं को तोड़ने के लिए इस्तेमाल करना ज़रूरी है न कि इसके ज़रिये से रूढ़िवाद को बढ़ावा दिया जाए। खेलों के क्षेत्र से लैंगिक भेदभाव और हिंसा को खत्म करने के लिए हर स्तर पर तेजी से प्रयास होने आवश्यक है। यौन शोषण और हिंसा के मामलों को पूरी पारदर्शिता और तेजी से पब्लिक डोमेन में रखे जाने ज़रूरी है ताकि आरोपी को कठोर सजा और कड़े नियम लागू हो सकें।
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