नारीवाद मेरा फेमिनिस्ट जॉयः सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती देना ही मेरी खुशी और आत्मविश्वास!

मेरा फेमिनिस्ट जॉयः सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती देना ही मेरी खुशी और आत्मविश्वास!

मैंने यह तय किया है कि जिन्हें जो कहना है, करना है; कहते-करते रहें लेकिन मैं इस समाज की रूढ़ियों को तोड़ती रहूंगी और अपने अस्तित्व, जिसे सिरे से नकारा जाता रहा है उसकी मौजूदगी को दर्ज करती रहूंगी। हो सकता है कुछ ऐसे दिन होंगे जिस दिन दुखी रहूं, उदास रहूं, परेशान रहूं, या एक बार के लिए डर जाऊं लेकिन समझौता नहीं करूंगी इस पितृसत्तात्मक समाजिक ढांचे को जीतने नहीं दूंगी।

मेरे छोटे भाई का जन्म मेरे जन्म के दस साल बाद हुआ, और हमारे जन्म के बीच के फासले वाले वे साल ऐसे थे जिन्होंने मेरे बाल मन पर बेहद गहरा प्रभाव डाला। उन दिनों जब भी मेरी माँ किसी बुजुर्ग रिश्तेदार या पड़ोसी के पांव छूती, सब यही आशीष देते कि “भगवान तुम्हें संतान दे” या “तुम भी पंच बराबर हो जाओ” जैसे मैं और मेरी बहन संतानें नहीं थीं, हमारा कोई अस्तित्व नहीं था, हमारी माँ पंचों से कमतर थी, केवल इसलिए क्योंकि वो बेटे की माँ नहीं थी। ये आशीष जब भी कोई देता, मेरे दिल में एक टीस उठती, जिसके कारण मैंने उन्हीं दिनों मन ही मन ठान लिया कि अपनी माँ और पापा के लिए वह सब करूंगी जिसकी उम्मीद में यह समाज बेटा चाहता है। मेरे मन में बेटों से बेहतर होने की एक होड़ थी। आज यह सब याद करके मैं चकित रह जाती हूं कि कैसे एक दस साल से भी कम उम्र की बच्ची को ये भेदभाव साफ-साफ महसूस होते थे, फिर हमारे समाज को यह भेदभाव क्यों नहीं चुभता? क्यों इक्कीसवीं सदी में भी आधी आबादी के अस्तित्व पर सवालिया निशान है?

मेरे आस-पास के लोगों ने मेरे होने को जितना अधिक नकारा मैंने उतनी ही मजबूती से अपने होने का एहसास कराने की कोशिश की। मेरे लिए ये सफर मेरे माता-पिता ने थोड़ा आसान बनाया। इत्तेफाक से मेरी माँ (जो एक मेहनती छात्रा थीं और खूब पढ़ना चाहती थीं लेकिन उनकी शादी नौवीं कक्षा के बाद ही कर दी गई) वो मुझे हर हाल में पढ़ा-लिखा के इस काबिल बनाना चाहती है कि मुझे अपनी ज़रूरतों के लिए किसी पर निर्भर न होना पड़े। मेरे पिता इकलौते ऐसे इंसान से थे जिन्हें मेरे पैदाइश की खुशी थी, जिन्होंने कभी मेरे साथ लिंग आधारित कोई भेदभाव नहीं किया। हमारे मतभेद भी रहें लेकिन वे कभी मन के भेद नहीं बने क्योंकि उन्होंने मुझसे निस्वार्थ प्रेम और अटूट भरोसा किया। मेरी आजादी और आत्मविश्वास की पहली नींव मेरे पापा ने ही रखी थी। कहते हैं ना बुनियाद मजबूत हो तो लड़ाई आसान हो जाती है।

घर तो घर बल्कि यूनिवर्सिटी स्पेस में भी कम पितृसत्तात्मक नहीं हैं, अपनेआप को खूब प्रगतिशील स्थापित करने वाले घेरों में भी स्त्रियों द्वारा उठाए सवाल स्वीकार्य नहीं हैं, यहां भी स्त्रियां अगर सवाल उठा दें तो चालाक और मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार दोनों एक साथ हो जाती हैं।

हमारे यहां एक कहावत प्रचलित है कि ‘बेटी परिवार की ना होकर पूरे समाज की होती है’ सुनने में तो यह विचार बहुत सुंदर लग सकता है कि सब बेटियों को सामान रूप से अपनाते है, दुलारते है लेकिन इस कहावत का सच कुछ और ही है। परिवार लड़कियों के प्रति थोड़ा उदार हो भी जाए तो समाज की जान जाने लगती है। मौहल्ले को लगता है कि उनकी जिम्मेदारी है कि वो लड़की को आजादी देने वाले परिवार के पथ प्रदर्शक बनें और उन्हें ये अनर्थ करने से किसी भी तरह बचा लें।

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

पहली बार मैंने यह टीनएज के शुरुआती सालों में महसूस किया, एक बार मैं स्कूल से वापस आते हुए अपने एक क्लासमेट से गांव के ही सड़क पर खड़े होकर बात करने लगी थी जिसके बाद मेरे पिता के चचेरे भाई ने मेरी माँ से इतना कुछ कह दिया कि मुझे मार पड़ी सिर्फ इसलिए क्योंकि वो क्लासमेट एक लड़का था। दसवीं में मैं जब कोचिंग क्लास के लिए नजदीकी कस्बा जाने लगी, तो ऐसे ही मेरे एक पड़ोसी ने मेरे घर आकर मेरे जींस पहनने पर आपत्ति जताई जिसके बाद मेरी माँ के साथ मेरी खूब बहस हुई। लेकिन आखिरकार न मैंने लड़कों से दोस्ती खत्म की, न ही जींस पहनना बंद किया क्योंकि मुझे पता था कि मैं गलत नहीं हूं। यह मेरी नई-नई जीत थी जिसने कुछ महीनों के मानसिक, भावनात्मक उथल-पुथल के बाद न सिर्फ शांति मिली बल्कि एक नए तरह का आत्मविश्वाव का एहसास कराया, जिसके बाद मैं और दृढ़ होती गई।

बी.एच.यू. में बी.ए. करने के दौरान जब यूनिवर्सिटी के घेरे में होने वाली बहसों में, मैं अपनी बात रखती तो कुछ लोग सकारात्मक रूप से और कुछ लोग तंज कसते हुए मुझे नारीवादी कहते और इस तरह मेरा नारीवाद से परिचय हुआ। मैंने ढूंढ-ढूंढकर नारीवादी रचनाएं पढ़नी शुरू की जिनसे मेरे कई सवालों के जवाब मिलें, जो बातें मुझे हमेशा से चुभती थीं आखिर वो गलत क्यों और कैसे थीं इसका तर्क मिला। स्नातक के आखरी दिनों में मार्क्सवाद से परिचय ने मुझे कई मायनों में स्पष्टता प्रदान की, मैं और अधिक निडर और जुझारू होती गई और इसी ने मुझे अब तक शादी जाने से बचाए रखा, इस काबिल बनाया कि अपनी मर्जी से अपने चुने हुए संघर्षों में शामिल हूं।

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

मास्टर्स के दौरान जब मैंने अपने बाल छोटे करवाए तब मेरे पापा और मेरी बहन के अतिरिक्त मेरे परिवार के अन्य सदस्यों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों को अच्छा खासा दुख हुआ। यही नहीं कुछ लोगों ने सामने और कुछ ने पीठ पीछे तरह-तरह के अपशब्दों का इस्तेमाल किया, जबकि इसमें कुछ ऐसा था ही नहीं जिसके लिए मुझे गालियां दी जाए। मेरे अपने बाल थे मेरी अपनी मर्जी थी। बात बस इतनी है कि इन लोगों को ये डर है कि इनके बनाए फ्रेम को कोई तोड़ ना दें। छह महीने पहले मेरे पिता नहीं रहे। उनके आखिरी दिनों में, मैं अपनी एक फेलोशिप के सिलसिले में मध्य प्रदेश में थी। लेकिन घर आते ही न केवल मैंने उन्हें कंधा दिया बल्कि श्मशान भी गई। मैं शायद श्मशान जाने वाली अपने गाँव की पहली लड़की हूं l लोगों ने बहुत कुछ कहा, अब तक कह रहे हैं। लेकिन मैं गई क्योंकि अपने पिता के आखिरी यात्रा में शामिल होना मेरा हक था और मेरे हक मैं किसी को मारने नहीं दूंगी! न किसी दकियानूसी परंपरा के नाम, न अच्छी या समझदार स्त्री होने के नाम पर। लुभावने चासनी में डूबे ये शब्द प्रेम नहीं छलावा हैं और कम से कम मुझे तो ये समाज अब इनसे नहीं छल पाएगा।

घर तो घर बल्कि यूनिवर्सिटी स्पेस में भी कम पितृसत्तात्मक नहीं हैं, अपनेआप को खूब प्रगतिशील स्थापित करने वाले घेरों में भी स्त्रियों द्वारा उठाए सवाल स्वीकार्य नहीं हैं। यहां भी स्त्रियां अगर सवाल उठा दें तो चालाक और मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार दोनों एक साथ हो जाती हैं। इसलिए, घर के साथ-साथ यूनिवर्सिटी में भी सफर जारी है। फिलहाल मैं अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए तमाम कोशिशें कर रही हूं। साथ ही बनारस और दिल्ली जैसे शहर जहां मैं पढ़ाई के कारण रही उन्हें अकेले एक्सप्लोर करने के साथ अब जयपुर और आगरा जैसे शहर भी सोलो ट्रैवलर के तौर पर देख आई हूं। ये तो बस शुरुआत है क्योंकि जब कभी मैं किसी नई जगह या शहर अकेले जाती हूं तो लगता है मेरी आजादी को नए मुकाम मिल रहे हैं, मैं अपनी सारी चिंताएं सारी थकान भूल जाती हूं। हर ट्रिप के बाद मैं कुछ बढ़िया तस्वीरें, खूबसूरत यादें, नए अनुभव और खूब सारी ताजगी के साथ लौटती हूं।

लोगों ने बहुत कुछ कहा, अब तक कह रहे हैं। लेकिन मैं गई क्योंकि अपने पिता के आखिरी यात्रा में शामिल होना मेरा हक था और मेरे हक मैं किसी को मारने नहीं दूंगी! न किसी दकियानूसी परंपरा के नाम, न अच्छी या समझदार स्त्री होने के नाम पर। लुभावने चासनी में डूबे ये शब्द प्रेम नहीं छलावा हैं और कम से कम मुझे तो ये समाज अब इनसे नहीं छल पाएगा।

ऐसी जगहें जहां लड़कियों के जाने की मनाही होती है (क्योंकि वे लड़कियों के लिए अनसेफ हैं), वहां जाकर मुझे लगता है मैंने कोई माइलस्टोन पूरा किया हो। जब तक इस तरह की जगहों पर हम लड़कियां होंगी नहीं तब तक ये हमारे लिए सुरक्षित कैसे होंगे? खुद हमें असुरक्षित महसूस करा कर हमें ही कैद करने के इस षड्यंत्र को आखिर कब तक हमें चुपचाप स्वीकारना चाहिए और क्यों स्वीकारें, किसके लिए, इस समाज के लिए जिसने हमारा श्रम, हमारे अधिकार, हमारी संपत्ति सब कुछ डकार लिया और अगर हमने सवाल किया तो हमें डायन, मानसिक रोगी, बेवकूफ और ना जाने क्या-क्या कहा। इसलिए मैंने यह तय किया है कि जिन्हें जो कहना है, करना है; कहते-करते रहें लेकिन मैं इस समाज की रूढ़ियों को तोड़ती रहूंगी और अपने अस्तित्व, जिसे सिरे से नकारा जाता रहा है उसकी मौजूदगी को दर्ज करती रहूंगी। हो सकता है कुछ ऐसे दिन होंगे जिस दिन दुखी रहूं, उदास रहूं, परेशान रहूं, या एक बार के लिए डर जाऊं लेकिन समझौता नहीं करूंगी इस पितृसत्तात्मक समाजिक ढांचे को जीतने नहीं दूंगी। किसी को ये हक नहीं दूंगी की वो मुझे ऐसे तोड़ जाए कि मैं दोबारा खड़ी ना हो सकूं। यही मेरा फेमिनिस्ट जॉय है।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content