समाजकार्यस्थल आखिर योग्य होने के बावजूद भी महिलाएं नौकरी में खुद को कम क्यों आंकती हैं?

आखिर योग्य होने के बावजूद भी महिलाएं नौकरी में खुद को कम क्यों आंकती हैं?

ह्यूलिट-पैकर्ड इंटरनल रिपोर्ट कहती है कि पुरुष तब नौकरी के लिए आवेदन करते हैं जब वे पात्रता मानदंडों का 60 प्रतिशत पूरा करते हैं, जबकि महिलाएं केवल तभी आवेदन करती हैं जब वे सभी मानदंडों का 100 प्रतिशत पूरा करती हैं।

सदियों से चली आ रही पितृसत्ता को बचाये और बनाए रखने की बुनियाद में ऐसी अनेक सामाजिक धारणाएं मौजूद हैं, जो एक तरह का भ्रम फैलाती हैं कि महिलाएं मानसिक और शारीरिक रूप से पुरुषों से कमजोर हैं। अपने अधिकारों के लिए महिलाओं के किए गए संघर्षों ने उन्हें कागजों पर नीतिगत और कानूनी बराबरी तो दिला दी, लेकिन आज भी ज़मीनी हकीक़त कुछ और है। इसकी झलक हमें आए दिन महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों के साथ-साथ पुलिस, न्यायपालिका और सरकारी तंत्र से जुड़े लोगों के बयानों और नीतियों में बड़ी आसानी से देखने को मिल जाती है। यह भेदभाव केवल इन राजनीतिक और राजकीय क्षेत्रों तक सीमित ना होकर सामाजिक व्यवस्था में गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। स्त्रियों की महत्वाकांक्षाओं को ‘मर्यादा’, ‘संस्कारों’ और ‘मानसिक और शारीरिक सीमाओं’ की आड़ में सीमित कर दिया गया है, जिससे वे अपनी क्षमता का पूरा इस्तेमाल करने से पहले ही अपनेआप पर संदेह करने लगती हैं।

हाल ही में ‘एलिजेबल बट शाई’ नाम से जारी रिपोर्ट में अलग-अलग अध्ययनों और रिपोर्टों के हवाले से बात करते हुए यह दिखाया गया है कि कैसे महिलाएं योग्य होने के बावजूद, अपनेआप को कमतर आंकती हैं। वे ज्यादातर वरिष्ठ पद, पारंपरिक रूप से पुरुष प्रधान माने जाने वाले या अधिक भुगतान वाले कार्यस्थलों पर आवेदन करने से बचतीं हैं। इसके साथ-साथ रिपोर्ट में, वैतनिक भेदभाव पर भी बात की गई है, और यह भी बताया गया है कि महिलाएं अक्सर कम वेतन वाली नौकरियों के लिए आवेदन करती हैं, जबकि उनके पास वही योग्यताएं होती हैं जो पुरुषों के पास होती हैं।

नंदिनी ऐसा अपने बारे में महसूस करती हैं कि उनमें अपने पुरुष सहपाठियों के मुकाबले आत्मविश्वास की कमी है। और इसका जिम्मेदार वो घर-परिवार में महिलाओं के व्यवहार पर लगातार होने वाले पुलिसिंग को मानती हैं।

द टेलीग्राफ में छपी रिपोर्ट के मुताबिक ह्यूलिट-पैकर्ड इंटरनल रिपोर्ट कहती है कि पुरुष तब नौकरी के लिए आवेदन करते हैं, जब वे पात्रता मानदंडों का 60 प्रतिशत पूरा करते हैं। वहीं महिलाएं केवल तभी आवेदन करती हैं जब वे सभी मानदंडों का 100 प्रतिशत पूरा करती हैं। 2024 में हार्वर्ड बिजनेस स्कूल की वेबसाइट पर एक लेख में, कैथरीन कॉफमैन के सह-लिखित शोध जो महिलाओं के नौकरी के अवसरों से कतराने के बारे में है, उसके जिक्र के साथ-साथ 2018 में फिजिक्स में नोबेल पुरस्कार जीतने वाली डोना स्ट्रिकलैंड, के साक्षात्कार का जिक्र भी किया गया है, जिसमें डोना स्ट्रिकलैंड ने माना है कि वो पूर्ण प्रोफेसर नहीं बन पाई क्योंकि उन्होंने कभी आवेदन ही नहीं किया।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

अध्ययनों में पाया गया है कि महिलाओं के नौकरी के लिए किए जाने वाले आवेदनों में विज्ञापनों की भाषा भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कनिका महाजन, सुगत चतुर्वेदी और ज़हरा सिद्धीकी के किया गया एक शोध ‘Words Matter: Gender, Jobs and Applicant Behaviour’, शीर्षक के साथ 2022 में प्रकाशित हुआ था। इसमें 2018 से 2020 के बीच नौकरी के लिए एक भारतीय नौकरी पोर्टल पर 1,57,888 पोस्ट के लिए दिए गए विज्ञापन, जिसके लिए 6.45 मिलियन आवेदन प्राप्त हुए, उनका विश्लेषण किया गया। इस अध्ययन के अनुसार, महिलाएं समान शिक्षा, आयु और निवास स्थान होने के बावजूद पुरुषों की तुलना में 3.7 प्रतिशत कम वेतन वाली नौकरियों के लिए आवेदन करती हैं। अध्ययन में बताया गया है कि साफ तौर पर लिंग आधारित नौकरियों के लिए आवेदन करने से जेंडर पे गैप यानी लिंग आधारित वेतन में अंतर 7 प्रतिशत तक बढ़ता है। साथ ही, मौजूदा लैंगिक पक्षपात और स्पष्ट लिंग अनुरोध मिलकर इस अंतर को 17 प्रतिशत तक पहुंचा देते हैं।

महिलाओं को कमतर माना जाता है

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

इस संबंध में और स्पष्टता के लिए फेमिनिज़म इन इंडिया ने दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में रहने वाली कुछ महिलाओं से बातचीत की। दिल्ली की रहने वाली सत्ताईस साल की खुशी (बदला हुआ नाम) पिछले छह-सात साल से कामकाजी हैं। उन्होंने ट्यूशन देने से लेकर कंटेंट राइटिंग तक का काम किया है। फिलहाल वे एक इंश्योरेंस कंपनी में काम कर रही हैं। खुशी कहती हैं, “यह सच है कि महिलाएं कई बार खुद को कम आंकती हैं, साथ ही लड़कियां पारंपरिक रूप से पुरुषों के माने जाने वाले कार्यक्षेत्र में समर्थ होते हुए भी आवेदन नहीं करती हैं और आत्म-संकोच करती हैं। लेकिन उनके इस व्यवहार में परिवार, आस-पास के वातावरण, फ़िल्मों और स्कूली शिक्षा अहम भूमिका रखते हैं। ये सारे कारक मिलकर बचपन से ही महिलाओं को कमतर होने का एहसास कराते हैं। साथ ही यह भ्रम स्थापित करते हैं कि प्राकृतिक रूप से ही कुछ काम महिलाओं के होते हैं और कुछ पुरुषों के होते हैं।”

सिस्टम में मौजूद रूढ़िवाद और वैतनिक भेदभाव

खुशी आगे कहती हैं, “मैंने मानसिक स्तर पर पूरी तरह आत्मविश्वासी हूँ लेकिन शारीरिक मजबूती के मामले में मुझे लगता है कि मैं ऐसा काम नहीं कर पाऊँगी जिसमें शारीरिक मजबूती की ज़रूरत हो। इसका मुख्य कारण सामाजिक धारणाएं और मुझे एक उम्र के बाद इस तरह के काम से काट देना है। कई बार क्लाइंट्स मेरे सवालों पर महिला कर्मचारी द्वारा दिए गए उत्तरों से संतुष्ट नहीं होते हैं और बहाने से पुरुष कर्मियों से बात करने की जिद्द करते हैं। साथ ही दफ्तर में इस तरह के मजाक आमतौर पर खुलेआम किए जाते हैं कि तुम तो लड़की हो तुम्हारे पास दिमाग कहां होगा। यह सब कुछ एक साथ मिलकर महिला को मजबूर कर देते हैं कि वो अपने ऊपर संदेह करे!”

साथ ही उनके दफ्तर में होने वाले लिंग आधारित वैतनिक भेदभाव पर बात रखते हुए वह कहती हैं कि जब भी वो अपने सीनियर से इस बारे में शिकायत की कि उन्हें समान काम के लिए अपने पुरुष सहकर्मी के बराबर वेतन क्यों नहीं मिलता तो कभी उनके सीनियर ने या तो हंसी में टाल दिया या ये कहा कि तुम्हारे परिवार में तो और लोग भी कमाते होंगे। यह बात पूरी तरह से उस पितृसत्तात्मक धारणा को दिखाती है जो मानता है कि घर के लिए रोटी कमाना पुरुषों का काम है और महिलाओं द्वारा किया जाने वाला वैतनिक काम अतिरिक्त कमाई है। यह धारणा न सिर्फ पुरुषों के किए जाने वाले समान काम को अधिक महत्व देने का काम करता है बल्कि महिलाओं के काम को गैर-जरूरी और शौकिया साबित करने की पुरजोर कोशिश करता है।

तस्वीर साभारः Forbes India

क्यों काबिल होने पर भी महिलाओं की छटनी आसान है

कीर्ति नगर के एक फैक्ट्री में सिलाई का काम करने वाली सैंतालीस वर्षीय बबीता (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “मेरे फैक्ट्री में महिला और पुरुष दोनों ही को समान वेतन मिलता है। लेकिन जब काम कम होता है तब सबसे पहले महिलाओं की छटनी की जाती है। साथ ही सुपरवाइजर पुरुषों से तो ढंग से बात करते हैं लेकिन महिलाओं के साथ ज्यादा बदतमीजी करते हैं। कई बार महिलाओं के सामने आपस में जानबुझ के गाली गलौज करते हैं, जिससे महिलाएं असहज महसूस करती हैं। लेकिन इन सब के बावजूद महिलाओं को कभी अपनेआप को कम नहीं आंकना चाहिए और दुनिया वाले चाहे जो कहे ये उनकी अपनी सोच को दिखाता है। इसलिए हमें उनके नजरिए से अपनेआप को देखने की गलती नहीं करनी चाहिए।” कामकाज के दौरान इतनी मुश्किलें झेलने के बावजूद बबीता की हिम्मत उनके जीवन के प्रति जज्बे और समर्पण को दिखाती है।

आत्मविश्वास की कमी में समाज और परिवार की भूमिका

नारायणा गांव में रहने वाली, तेईस साल की नंदिनी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. किया है। नंदिनी ऐसा अपने बारे में महसूस करती हैं कि उनमें अपने पुरुष सहपाठियों के मुकाबले आत्मविश्वास की कमी है। इसका जिम्मेदार वो घर-परिवार में महिलाओं के व्यवहार पर लगातार होने वाले पुलिसिंग को मानती हैं। नंदिनी जब नौवीं कक्षा में थी, तब से ट्यूशन पढ़ा रही हैं। उनका कहना है कि कोचिंग क्लासेज में पढ़ाने के लिए पहली प्राथमिकता पुरुषों को दी जाती है, और वेतन के मामले में भी महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वे कम पैसों में भी मान ही जाएंगी।

लिंग आधारित वैतनिक भेदभाव पर बात रखते हुए खुशी कहती हैं कि जब भी वो अपने सीनियर से इस बारे में शिकायत की कि उन्हें समान काम के लिए अपने पुरुष सहकर्मी के बराबर वेतन क्यों नहीं मिलता तो कभी उनके सीनियर ने या तो हंसी में टाल दिया या ये कहा कि तुम्हारे परिवार में तो और लोग भी कमाते होंगे।

उन्होंने ये भी बताया कि उन्हें डेमो क्लासेज में अच्छे प्रदर्शन के बाद भी चयनित नहीं किया गया क्योंकि बच्चे के अभिभावक को लगा की वो खुद बच्ची दिखती हैं, कई बार उनकी प्रस्तुति उनकी योग्यता से अधिक महत्वपूर्ण मानी गई। नंदिनी कहती हैं कि इन टिप्पणियों ने उन्हें अपनी प्रस्तुति को लेकर सचेत बना दिया और लंबे समय तक वे इस कशमकश में रहीं कि क्या उन्हें छात्र- छात्राएं उनकी प्रस्तुति के कारण गंभीरता से नहीं ले रहें हैं? और वे लगातार परिपक्व और ‘शिक्षिका जैसी’ दिखने के लिए कपड़ों व हाव भाव के साथ प्रयोग करती रहीं।

पितृसत्ता घर, पड़ोस से होते हुए कार्यस्थल तक महिलाओं का पीछा नहीं छोड़ता। इन महिलाओं के अनुभव यह बताने के लिए काफी हैं कि महिलाएं अगर खुद को कमतर आंकती हैं तो यह उनके भीतर होने वाली आत्मविश्वास की कमी उनकी व्यक्तिगत दिक्कत न होकर राजनीतिक- सामाजिक ढांचे का परिणाम है जो महिलाओं को हर कदम पर उनके भीतर अपने अस्तित्व को
लेकर संदेह भरने में कोई कमी नहीं छोड़ता। लेकिन खुशी, बबीता और नंदिनी जैसी तमाम महिलाएं इस सामाजिक व्यवस्था से जब तक लड़ती रहेंगी बदलाव की उम्मीद बनी रहेगी।


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