कई बार रिलीज की तारीख बढ़ाने के बाद आखिरकार फिल्म इमरजेंसी 17 जनवरी को बड़े पर्दे पर रिलीज हो गई। फिल्म का निर्देशन और मुख्य किरदार दोनों ही अभिनेत्री कंगना रनौत ने किए हैं। फिल्म में कंगना ने इंदिरा गांधी के किरदार को निभाया है। पूरी फिल्म में वे कहीं भी कंगना नहीं लग रहीं। मेकअप और कपड़ों के कारण उनमें इंदिरा का ही व्यक्तित्व झलकता है। हालांकि फिल्म भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन के मुख्य पहलुओं को बस छूकर निकलती है। लोकनारायण जय प्रकाश के किरदार में अनुपम खेर ने अच्छा अभिनय किया है। अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका में श्रेयस तलपड़े ठीकठाक हैं। संजय गांधी के किरदार में विशाक नायर फिट बैठ गए हैं, जगजीवन राम के रूप में सतीश कौशिक ने गहरी छाप छोड़ी है। फिरोज गांधी की भूमिका में अधीर भट्ट और इंदिरा की करीबी पुपुल जयकर के रूप में महिमा चौधरी ने भी अच्छा काम किया है।
फिल्म की कहानी
यह फिल्म इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत और राजनैतिक जीवन को दिखाती है। फिल्म की शुरुआत में दिखाया जाता है एक छोटी बच्ची के रूप में इंदिरा हैं, लेकिन उनकी मां को उनकी बुआ एक कमरे में बंद रखती हैं, क्योंकि उन्हें टीबी की बीमारी होती है। अगले ही सीन में वह अपने दादा से सत्ता और शासक बनने की सीख लेती है। यहीं से कहानी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। पंडित जवाहर लाल नेहरू का प्रधानमंत्री बनना, 1962 के दौरान भारत और चीन के बीच युद्ध, असम संकट, शिमला समझौता, 1971 का भारत और पाकिस्तान का युद्ध, 1971 में ही बांग्लादेश का आजाद देश बनना, गांधी का शासन, 1975 से 1977 तक की इमरजेंसी, स्टेरीलाईशेषन का दौर, ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार और सबसे आखिर में अपने ही बॉडीगार्ड की गोलियों से हत्या तक फिल्म इंदिरा के व्यक्तिगत और राजनीतिक जीवन की यात्रा करती है।
सराहनीय निर्देशन, अनावश्यक संगीत
फिल्म का निर्देशन कंगना रनौत ने किया है। यह कहा जा सकता है कि इमरजेंसी उनके पिछले निर्देशित फिल्मों से बेहतर है। इंदिरा पर की गई रिसर्च फिल्म के हर दृश्य में झलकती है, चाहे वह अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से इंडिया का तीखा टकराव हो या फिर संसद में दिया भाषण हो। हालांकि, चर्चित प्रधानमंत्री और कद्दावर नेता का जीवन फिल्म में समेटना उनके जीवन के पहलुओं को छूकर निकलना भर लगता है। बात करें संगीत की, तो यह अनावश्यक और हास्यास्पद लगते हैं। सभी किरदारों के कॉस्ट्यूम डिजाइनर ने अच्छा काम किया है। प्रोस्थेटिक मेकअप का इस्तेमाल कंगना को इंदिरा बनाने में सफल रहा। सिनेमेटोग्राफी अच्छी है। हावभाव और बॉडी लैंग्वेज से कंगना बिल्कुल इंदिरा गांधी लगती हैं।
कमजोर स्क्रिप्ट, कुछ दृश्यों पर सवाल
फिल्म में इमरजेंसी का मुख्य विलेन संजय गांधी को दिखाया गया है। चाहे स्टेरीलाईशेषन का फैसला लेने की बात हो या फिर दूरदर्शन पर हावी होने की। यह सवाल खड़ा करता है। साथ ही इतने गंभीर विषय को नाटकीय रूप से दिखा दिया गया है। इंदिरा गांधी को लेकर सॉफ्ट कॉर्नर रखा गया है जो तथ्यों से मेल न खाता देख जागरूक दर्शकों को अजीब लग सकता है। फिल्म की स्क्रिप्ट काफी कमजोर है। यह घटनाओं को महज समेटती है। किरदारों के साथ जुड़ाव नहीं हो पाता। संसद में अटल बिहारी वाजपेयी और जगजीवन राम इंदिरा के साथ मिलकर गाना गाते हैं जो काफी हास्यपाद और गैरजरूरी लगता है।
मजबूत पक्ष : किरदार के साथ न्याय
फिल्म की घोषणा के बाद से ही सबके मन में यही था कि कंगना रनौत एक विरोधी पार्टी की नेता के जीवन पर फिल्म बना रही हैं तो यह भी अन्य फिल्मों की तरह प्रोपगंडा ही होगी। वहीं यह भी डर था कि फिल्म में इमरजेंसी के दौरान इंदिरा के क्रूर चेहरे का ही जिक्र होगा। लेकिन फिल्म देखने के बाद पता चलता है कि ऐसा नहीं है। इंदिरा के किरदार में खूबियां और खामियां दोनों बखूबी दिखाई गई हैं। सत्ता के दौरान उनके बेटे संजय गांधी द्वारा अनावश्यक दखलंदाजी, पार्टी के सीनियर नेताओं के साथ बदतमीजी, उनका गुस्सैल रवैया सबका फिल्म जिक्र करती चलती है।
साथ ही इंदिरा के द्वारा लिए गए गलत फैसले जब उन्हें लगता है कि इंदिरा ही पूरी कैबिनेट है आदि सभी पक्ष मजबूती से रखे गए हैं। यह कह सकते हैं कि ये फिल्म इंदिरा का महिमामंडन नहीं है। हालांकि इसमें राजनीतिक पक्षों को सिर्फ घटनाओं की तरह समेटा गया है।
फिल्म का नाम इमरजेंसी क्यों
पूरी फिल्म देखने के बाद तक भी यह समझ नहीं आता कि फिल्म का नाम इमरजेंसी क्यों रखा गया है। इससे तो यही समझ आता है कि अधिकतर कहानी इमरजेंसी 1975 से 1977 के बीच के समय पर फिल्माई गई होगी। लेकिन फिल्म में यह एक छोटा सा हिस्सा है जिसमें इमरजेंसी का जिक्र है। इसके अलावा पूरी फिल्म इंदिरा गांधी के जीवन पर ही आधारित है। फिल्म का नाम इंदिरा दिया जा सकता था। लेकिन, इसके पीछे नियत ये हो सकती है कि फिल्म का नाम इंदिरा गांधी सुनकर फिल्म देखने के लिए और भी कम दर्शक जाते क्योंकि सबको यही लगता कि इसमें इंदिरा गांधी के जीवन का बखान ही किया गया होगा।
पूरी फिल्म में इंदिरा के साथ उनके बेटे संजय गांधी को दिखाया गया है। खाना खाने से लेकर बाहर जाने और अन्य मीटिंग तक में हर जगह संजय गांधी ही उनके साथ दिखते हैं जबकि फिल्म में राजीव गांधी और सोनिया गांधी का जिक्र तक नहीं है। यह समझ आता है कि इन दोनों का नाम निर्देशक कंगना ने जानबूझकर छोड़ा है। मुख्य किरदारों को इस तरह कहानी से अलग नहीं किया जाना चाहिए था। दूसरी ओर पंडित जवाहर लाल नेहरू अपनेआप में विशाल व्यक्तित्व रहे हैं। उनके किरदार को बेहद कमजोर और थका हुआ दिखाया गया है, जो कहीं से भी नयायसंगत नहीं लगता। नेहरू को कम से कम नेहरू की तरह तो जरूर दिखाया जाना चाहिए था।
क्या फिल्म देखी जा सकती है
अगर आप राजनीति में हल्की-फुल्की भी रुचि रखते हैं, तो फिल्म आपको बांध कर रखने में कामयाब हो सकती है। सेकंड हॉफ ज्यादा मजबूत है। हिस्ट्री ड्रामा फिल्म है तो सभी को देखनी चाहिए। फिल्म देखते समय इमरजेंसी का समय फिर से याद आना तय है। स्टेरीलाईशेषन के लिए जबरदस्ती लोगों को उठाती पुलिस और लाखों लोगों को जेल में डाले जाने जैसे दृश्य दर्शकों को मार्मिक रूप से जोड़ती है। जब इमरजेंसी में मीडिया पर दबाव था और जनजीवन जैसे रुक गया था, बसें और ट्रेनें समय पर चलना ही जीवन लगने लगा था, उस समय में जय प्रकाश जैसे नेताओं ने विरोध का बिगुल फूंका और इंदिरा को पत्र लिखकर आगाह भी किया था। यह बहादुरी ही है कि इंदिरा का वो चेहरा भी दिखाया गया है जिसने पूरे देश की गति के पहिए रोक दिए थे। कुल मिलाकर फिल्म देखने योग्य है। हालांकि फिल्म एक बैलेन्स्ड दृष्टिकोण अपनाने में कामयाब नहीं हुई है। पर फिल्म एक बार मनोरंजन के लिए जरूर देखा जा सकता है।