बिशनी देवी शाह महिला राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन क्रांतिकारी थी, जो बिटिस शासन के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन में लड़ाई लड़ते हुए जेल जाने वाली उत्तराखंड की पहली महिला राष्ट्रीय स्वतंत्रता सेनानी थीं। बिशनी देवी उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के एक साधारण परिवार से थी, जिनका जन्म साल 1912 में हुआ। उन्होंने चौथी कक्षा तक पढ़ाई की थी, जिसके बाद बिशनी की शादी 12 वर्ष की छोटी उम्र में हो गई। शादी के 4 साल बाद ही उनके पति का देहांत हो गया। पति के देहांत के बाद उन्हें समाज की कुरीतियों और रूढ़िवादी सोच का सामना करना पड़ा। उस समय सामाजिक दबाव के कारण कम आयु में पति की मृत्यु होने पर ज्यादातर महिलाएं सन्यास धारण कर माई बनने को विवश हो जाती थीं, उन्हें कोई रहने, खाने की व्यवस्था नहीं थी, न ही घर वाले अपनाते थे, वहां बिशनी देवी ने इस परम्परा को न मानकर स्वतन्त्रता आंदोलन में एक क्रांतिकारी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सवतंत्रता आंदोलन में भागीदारी
बिशनी देवी ने 19 वर्ष की आयु से राष्ट्रीय सवतंत्रता आंदोलन की सभाओं में भाग लेना शुरू किया और एक महिला क्रांतिकारी के रूप में आगे बढ़ने लगी। वह अन्य महिलाओं को भी साथ जोड़ने लगी। इनके इसी क्रांतिकारी नेतृत्व के चलते ब्रिटिशों ने उन्हें दो बार जेल भेज दिया था। 25 अक्टूबर 1930 को अल्मोड़ा नगर पालिका में स्वतंत्रता आंदोलनकारियों ने तिरंगा फहराने का निर्णय लिया था। ब्रिटिश काल में तिरंगा फहराना अपराध माना जाता और इसपर कड़ी सजा दी जाती थी।
इस दिन रैली में बड़ी संख्या में महिला आंदोलनकारी भी शामिल थीं। इस रैली को पुलिस ने बलपूर्वक रोकने की कोशिश की और लाठीचार्ज शुरू कर दिया जिसमें कई क्रन्तिकारी गंभीर रुप से घायल हो गए थे। इससे आंदोलन और उग्र हो गया। इस रैली में बिशनी देवी के साथ ही अन्य महिला आंदोलन क्रन्तिकारी- कुंती वर्मा, मंगला देवी, भगीरथी देवी, जीवंती देवी, दुर्गा देवी पंत, तुलसी देवी रावत, भक्ति देवी त्रिवेदी, रेवती देवी आदि ने भी नेतृत्व किया था। हालांकि आंदोलनकारी महिलाएं नगर पालिका में झंडारोहण करने में सफल रहीं।
उत्तराखंड से जेल जाने वाली पहली महिला
इसके बाद बिशनी देवी को दिसंबर 1930 में झंडा फहराने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल डाल दिया गया और कठोर सजा मिली। इस घटना ने उन्हें राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आंदोलन में उत्तराखंड से जेल जाने वाली पहली महिला बना दिया। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने अल्मोड़ा में स्वदेशी चीजों का प्रचार-प्रसार करना शुरू किया। पहाड़ी क्षेत्रों में महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने के लिए और स्वदेशी वस्त्रों (खादी) को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने चरखा खरीदकर घर-घर जाकर महिलाओं को बांटना शुरू किया और महिला समूह बनाकर चरखा चलाने का प्रशिक्षण दिया। इससे पहले पुरुष स्वतंत्रता आन्दोलन क्रान्तिकारी महिलाओं को प्रोत्साहित करते थे।
महिलाओं को एकजुट करना
बिशनी देवी पहाड़ी क्षेत्रों में महिला आंदोलनकरियों के साथ सहयोगी बनकर साथ चलीं और उनके मनोबल को बढ़ाने में हर प्रकार से मदद कीं। वह महिलाओं के संगठित करने, सामाजिक सांस्कृतिक अधिकारों के प्रति प्रेरित करती थी। 2 फरवरी 1931 को जब बागेश्वर में महिलाओं ने स्वतंत्रता की मांग को लेकर जुलूस निकाला तो बिशनी देवी ने बागेश्वर के सेरा दुर्ग में आधी नाली जमीन और 5 रुपये दान देकर आर्थिक मदद की। वह स्वतंत्रता आंदोलनकारियों के लिए धन जुटाने, विभिन्न सामग्री पहुंचाने और पत्रवाहक का काम भी करती थीं। 7 जुलाई 1933 में बिशनी देवी साह को ब्रिटिश शासन ने फिर से गिरफ्तार कर फतेहगढ़ जेल में डाल दिया। उन्हें नौ महीने की सजा और 200 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई।
उस समय यह राशि बड़ी मानी जाती थी। जुर्माना न दे पाने की वजह से उनकी सजा को एक साल के लिए बढ़ा दिया गया। हालांकि खराब स्वास्थ्य के चलते उन्हें साल पूरा होने से पहले ही रिहा कर दिया गया। 1934 में बागेश्वर के सरयू नदी किनारे मकर संक्रांति के अवसर पर लगने वाले उत्तरायणी मेले में ब्रिटिश सरकार ने धारा-144 लागू कर दी। इसके बावजूद बिशनी देवी साह ने बिना परवाह किए मेले की जगह पर खादी की प्रदर्शनी लगाकर विरोध किया। 1934 में रानीखेत में हर गोविंद पंत की अध्यक्षता में हुई कांग्रेस की बैठक में बिशनी देवी को कार्यकारिणी सदस्य के रूप में निर्वाचित किया गया।
बिशनी हैं हमारे लिए एक मिसाल
23 जुलाई 1935 में अल्मोड़ा के कांग्रेस भवन में बिशनी देवी साह ने तिरंगा फहराया। विजय लक्ष्मी पंडित ने भी कुमाऊं यात्रा के दौरान उनके महिला नेतृत्व की सराहना की। 26 जनवरी 1940 में उन्होंने अल्मोड़ा में झंडारोहण किया और 1940-41 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लिया। साल 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में बिशनी ने अल्मोड़ा में सक्रिय भागीदारी की। 15 अगस्त 1947 को जब देश स्वतंत्र हुआ, बिशनी देवी ने अल्मोड़ा में तिरंगे के साथ विशाल रैली का नेतृत्व किया। हालांकि स्वतंत्रता के बाद उनके योगदान के बावजूद आज़ाद भारत में वह सम्मान नहीं मिला जो उन्हें मिलना चाहिए था। उन्होंने अपना जीवन एकल महिला के रूप में जिया। आर्थिक तंगी के बीच उनके अंतिम दिन बीते और 1974 में 93 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। यह कहानी न केवल उनके साहस को दिखाती है, बल्कि यह भी याद दिलाती है कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों को उचित मान्यता और सम्मान मिलना कितना जरूरी है।
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