इतिहास ज़किया जाफ़री: गुजरात दंगों पर न्याय के लिए लड़ने वाली महिला| #IndianWomenInHistory

ज़किया जाफ़री: गुजरात दंगों पर न्याय के लिए लड़ने वाली महिला| #IndianWomenInHistory

द हिन्दू की रिपोर्ट अनुसार निवासियों ने जाफ़री के बंगले में शरण ली। हालांकि, दंगाइयों ने उनके बंगले को भी नहीं छोड़ा और उसमें आग लगा दी, जिसमें पूर्व सांसद सहित 69 लोग मारे गए, जो घंटों तक प्रशासन से मदद की गुहार लगाते रहे। ज़किया उस वक्त 63 वर्ष की थीं।

गुजरात के गोधरा कांड के बाद राज्य में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी। इस हिंसा में हजारों निर्दोष लोगों की जानें गई। अहमदाबाद का गुलबर्ग सोसाइटी भी इस हिंसा से अछूता नहीं रहा। दंगों के दौरान 28 फरवरी को अहमदाबाद के चमनपुरा के पूर्वी भाग में स्थित एक मुस्लिम मोहल्ले गुलबर्ग सोसाइटी पर भीड़ ने पथराव शुरू कर दिया। दंगाइयों की भीड़ ने सोसाइटी को घेर लिया और घरों में आग लगा दी। यहां रहने वाले कांग्रेस सांसद एहसान जाफ़री भी उस हिंसा के चपेट में आए, जिसमें जाफ़री समेट 68 अन्य लोगों की मौत हो गई। यह घटना गुजरात दंगों की सबसे दुखद घटनाओं में से एक मानी जाती है। हालांकि एहसान जाफ़री की पत्नी ज़किया जाफ़री इस नरसंहार में किसी तरह बच गईं।

उनका नाम सुर्खियों में तब आया, जब उन्होंने गोधरा ट्रेन अग्निकांड के बाद हुए दंगों की बड़ी साजिश के लिए बड़े राजनीतिक नेताओं को जवाबदेह ठहराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटकटाया। उन्होंने अपने पति को गुलबर्ग सोसाइटी में उनके आवास पर हुए हमले के दौरान खो दिया था। उनका दावा था कि दंगे गोधरा में हुई मौतों की अचानक हुई प्रतिक्रिया नहीं थी। उनके अनुसार, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह सहित शीर्ष पदों पर बैठे लोगों ने सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की साजिश रची थी। गुजरात दंगों के सर्वाइवर को न्याय दिलाने के लिए दो दशक तक कानूनी लड़ाई लड़ने वाली ज़किया का अहमदाबाद स्थित उनके घर पर 1 फरवरी 2025 को 86 वर्ष की उम्र में निधन हो गया।

उनका दावा था कि दंगे गोधरा में हुई मौतों की अचानक हुई प्रतिक्रिया नहीं थी। उनके अनुसार, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह सहित शीर्ष पदों पर बैठे लोगों ने सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की साजिश रची थी।

कौन हैं ज़किया जाफ़री

तस्वीर साभार: Business Standard

साल 1930 के अंत में मध्य प्रदेश के खंडवा में एक जमींदार परिवार में जन्मी ज़किया की शादी एहसान जाफ़री से हुई। वे उस वक्त मध्य प्रदेश में एक वकील के रूप में काम कर रहे थे। उनके तीन बच्चे हैं जिनमें दो बेटे और एक बेटी है। साल 1969 में, खंडवा में सांप्रदायिक दंगों के दौरान, उनके घर पर हमला किया गया, जिसके कारण उन्हें 1971 में अहमदाबाद में स्थानांतरित होने से पहले कुछ समय के लिए शरणार्थी शिविर में भी रहना पड़ा था। वह एक मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग की आवासीय कॉलोनी गुलबर्ग सोसाइटी में हुए नरसंहार में बच गई थी। गुजरात के गोधरा ट्रेन अग्निकांड में 59 तीर्थयात्रियों की जलकर मौत हो गई थी, जिसके बाद राज्य भर में दंगे हुए थे।

साल 2002 में क्या हुआ था

तस्वीर साभार: Caravan

28 फरवरी, साल 2002 को आवासीय कॉलोनी के बाहर कई हजार लोगों की भीड़ जमा हो गई। आखिरकार, भीड़ ने एक के बाद एक घरों में आग लगा दी। द हिन्दू की रिपोर्ट अनुसार निवासियों ने जाफ़री के बंगले में शरण ली। हालांकि, दंगाइयों ने उनके बंगले को भी नहीं छोड़ा और उसमें आग लगा दी, जिसमें पूर्व सांसद सहित 69 लोग मारे गए, जो घंटों तक प्रशासन से मदद की गुहार लगाते रहे। ज़किया उस वक्त 63 वर्ष की थीं। वह पहली मंजिल पर एक कमरे में छिपी हुई थीं, जो हमले में बच गईं। 17 जून, 2016 को, नरसंहार के लगभग 14 साल बाद, सेशन कोर्ट ने गुलबर्ग सोसाइटी मामले में आखिरकार अपना फैसला सुनाया।

ज़किया उस वक्त 63 वर्ष की थीं। वह पहली मंजिल पर एक कमरे में छिपी हुई थीं, जो हमले में बच गईं। 17 जून, 2016 को, नरसंहार के लगभग 14 साल बाद, सेशन कोर्ट ने गुलबर्ग सोसाइटी मामले में आखिरकार अपना फैसला सुनाया।

अदालत ने 24 लोगों को दोषी ठहराया और 11 आरोपियों को आजीवन कारावास, एक आरोपी को 10 साल की कैद और 12 को सात साल की सजा सुनाई थी। सेशन कोर्ट ने इस हत्याकांड को ‘गुजरात के नागरिक समाज के इतिहास का सबसे काला दिन’ बताया था। सेशन कोर्ट और स्पेशल इन्वेस्टगैशन टीम (एसआईटी) ने कहा था कि हत्याकांड की वजह एहसान जाफ़री के बंगले से हथियार से की गई फायरिंग थी। हालांकि कोर्ट ने सभी को ‘साजिश’ के आरोप से बरी कर दिया, जिसके लिए ज़किया मुकदमा लड़ रही थीं।

न्याय की गुहार लगाती रही ज़किया

साल 2002 में अपने पति के मौत के बाद से ही ज़किया ने साजिश की शिकायत की जांच की मांग करते हुए विभिन्न न्यायालयों में बार-बार पुलिस शिकायतें और याचिकाएं दायर की। अक्टूबर और दिसंबर 2021 के बीच, 3-न्यायाधीशों की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने उनकी अंतिम कोशिश की सुनवाई की थी। ज़किया और उनके साथ याचिका दायर करने वाली मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने तर्क दिया था कि न्यायालय के नियुक्त विशेष जांच दल (एसआईटी) और एसआईटी की रिपोर्ट की समीक्षा करने वाले मजिस्ट्रेट ने ज़किया के आरोपित लोगों को क्लीन चिट देते हुए साजिश के महत्वपूर्ण सबूतों को नज़रअंदाज़ कर दिया।

सिब्बल ने 14 दिनों की सुनवाई में कथित रूप से नज़रअंदाज़ किए गए सबूतों को सामने भी रखा था। यह भी जरूरी है कि हम समझें कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लगातार समर्थन के बिना, अपनी जगह से दूर जाने पर मजबूर, परिवार को खो चुकी एक महिला के लिए राज्य के खिलाफ़ कानूनी लड़ाई लड़ना बहुत मुश्किल है, जैसाकि ज़किया ने किया था। उन्हें मुकदमे के विभिन्न चरणों में नाकामयाबी हासिल हुई, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी।

साल 2002 में अपने पति के मौत के बाद से ही ज़किया ने साजिश की शिकायत की गहन जांच की मांग करते हुए विभिन्न न्यायालयों में बार-बार पुलिस शिकायतें और याचिकाएं दायर की। अक्टूबर और दिसंबर 2021 के बीच, 3-न्यायाधीशों की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने उनकी अंतिम कोशिश की सुनवाई की थी।

दंगों में मांगती रही मदद

गुजरात दंगों में हुई भयवाहता आज किसी से छिपी नहीं है। लेकिन, एक महिला का लगातार इतने सालों तक न्याय के लिए लड़ते रहना न सिर्फ सिस्टम की विफलता दिखाता है बल्कि दंगों में तत्कालीन नेताओं और वरिष्ठ अधिकारियों का राजनीतिक हस्तक्षेप दिखाता है। कारवां में छपी एक रिपोर्ट में ज़किया अपने इंटरव्यू में कारवां के एडिटर को बताती है कि उन्होंने मदद के लिए सौ से ज़्यादा फ़ोन कॉल किए होंगे। उन्होंने गुजरात के पुलिस महानिदेशक, अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त, राज्य के मुख्य सचिव और दर्जनों अन्य लोगों को फ़ोन करके उनसे हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई थी। यह रिपोर्ट बताती है कि नरसंहार में बच गए एक गवाह ने बाद में एक अदालत को बताया था कि जाफ़री ने नरेंद्र मोदी को भी फ़ोन किया था।

जारी रहेगी न्यायपूर्ण समाज की लड़ाई

तस्वीर साभार: Teesta Setalvad’s X account

साल 2006 से गुजरात सरकार के खिलाफ़ अपनी लंबी कानूनी लड़ाई के माध्यम से, ज़किया 2002 के गोधरा के बाद के दंगों के सर्वाइवरों के लिए ‘न्याय की लड़ाई’ का चेहरा बन गई थीं। उनका निधन देश में मानवाधिकार आंदोलन में एक युग के खत्म होने के समान है। लंबे समय तक न्याय के लिए लगातार संघर्ष ने सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में राज्य की जवाबदेही और न्याय की जरूरत पर ध्यान देने पर सभी को मजबूर किया। उनकी मौत पर तीस्ता सीतलवाड़ समेत कई राजनीतिक नेताओं ने भी शोक व्यक्त की। उन्होंने न केवल अपने पति के लिए न्याय की मांग की, बल्कि उन हजारों परिवारों की आवाज भी बनीं, जो दंगों में अपने प्रियजनों को खो चुके थे। उनकी लड़ाई ने देश के न्याय प्रणाली में कई सुधारों की मांग को भी मजबूती दी। हालांकि आज भी देश में न्याय व्यवस्था तक पहुंच सभी के लिए समान नहीं है लेकिन उनकी आवाज़ न्यायपूर्ण समाज के लिए सभी को प्रेरित करती रहेगी।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content